"मैत्रायणी उपनिषद्": अवतरणों में अंतर

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== परिचय ==
इस उपनिषद् में शाकायन्य ने कई प्रकार से ब्रह्म का निरूपण करके अंतिम रूप से स्थिर किया है कि उसके सभी वर्णन "द्वैधी भाव विज्ञान" के अंतर्गत हैं। उसका सच्चा स्वरूप "अद्वैतीभाव विज्ञान" है जो अद्वैत कार्य कारण निर्मुक्त, निर्वचन, अनौपम्य, और निरूपाख्य है। संसार में सबसे बढ़कर जानने और खोजने का तत्व यही है और संन्यास लेकर वन में मन को निर्विषय कर उसे यहीं प्राप्त कर सकते है।
 
मनुष्य शरीर शकट की तरह अचेतन है। अनंत, अक्षय, स्थिर, शाश्वत और अतीद्रिय ब्रह्म अपनी महिमा से उसे चेतनामय करके प्रेरित करता है। प्रत्येक पुरूष में वर्तमान चिद्रूपी, आत्मा उसी का अंश है। अपनी अनंत महिमा में ब्रह्म को अकेलेपन की अनुभूति होने से उसने अनेक प्रकार की प्रजा बनाकर उनमें पंचधा प्राण रूपी वायु और वैश्वानर अग्नि के रूप में प्रवेश किया। यह देहरथ, कर्मेद्रियाँ अश्व, ज्ञानेंद्रियाँ रश्मियाँ और मन नियंता है। प्रकृति रूपी प्रतोद ही इस देह रूपी रथचक्र को निरंतर घुमा रहा है।
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पाँच तन्मात्राओं और पाँच महाभूतों के संयोग से निर्मित देह की आत्मा भूतात्मा कहलाती है। अग्नि से अभिभूत अय: पिंड को कर्त्रिक जिस तरह नाना रूप दे देता है उसी तरह सित असित कर्मों से अभिभूत एवं रागद्वेषादि राजस तामस गुणों से विमोहित भूतात्मा चौरासी लाख योनियों की सद् असद्, ऊँची नीची गतियों में नाना प्रकार के चक्कर काटती है। उसका सच्चा स्वरूप अकर्ता, अद्दश्य और अग्राह्य है परंतु आत्मस्थ होते हुए भी इस भगवान् को प्रकृति के गुणों का पर्दा पड़े रहने के कारण भूतात्मा देख नहीं पाती।
 
आत्मा शरीर का एक अतिथि है जो इसे छोड़कर यहीं सायुज्यलाभ कर सकती है। मनुष्य का प्राक्तन क्रम नदी की ऊर्मियों की तरह शरीर आत्मा का प्रवर्तक और समुद्रवेला की तरह मृत्यु का पुनरागमन दुर्निवार्य है। इद्रियों के शब्द स्पर्शादि विषय अनर्थकारी है और उनमें आसक्ति के कारण मनुष्य परम पद को भूल जाता है। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है। आश्रमविहित तपस्या से सत्वशुद्धि करके मन की वृत्तियों का क्षय करने, उसे विषयों से खींचकर और समस्त कामनाओं तथा तंकल्पों का परित्याग कर आत्मा में लय कर देने से जो "अमनीभाव" अर्थात् निर्विषयत्व की विलक्षण अवस्था होती है। वह मोक्ष स्वरूप है। इससे शुभाशुभ कर्म क्षीण हो जाते है, और वर्णातीत बुद्धिग्राह्य सुख प्राप्त होता है।
 
प्राणरूप से अंतरात्मा और आदित्य रूप से बाह्यात्मा को पोषण करनेवाली आत्मा के मूर्त और अमूर्त दो रूप हैं। मूर्त असत्य और अमूर्त सत्य है। यही तद्ब्रह्म है और ऊँ की मात्राओं में त्रिधा व्याकृत है। उसमें समस्त सृष्टि ओतप्रोत है। अस्तु, आदित्य रूप से ऊँ की अथवा प्रणवरूपी उद्गोथ ब्रह्म के "मर्ग" की घ्यानोपासना, प्रणवपूर्वक गायत्री मंत्र के साथ्, आत्मसिद्धि का साधन है।