"राजनैतिक भ्रष्टाचार": अवतरणों में अंतर
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[[भ्रष्टाचार (आचरण)]] की कई किस्में और डिग्रियाँ हो सकती हैं, लेकिन समझा जाता है कि राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार समाज और व्यवस्था को सबसे ज़्यादा प्रभावित करता है। अगर उसे संयमित न किया जाए तो भ्रष्टाचार मौजूदा और आने वाली पीढ़ियों के मानस का अंग बन सकता है। मान लिया जाता है कि भ्रष्टाचार ऊपर से नीचे तक सभी को, किसी को कम तो किसी को ज़्यादा, लाभ पहुँचा रहा है। राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार एक-दूसरे से अलग न हो कर परस्पर गठजोड़ से पनपते हैं। 2004 की ग्लोबल करप्शन रिपोर्ट के मुताबिक इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो, फ़िलीपींस के राष्ट्रपति मार्कोस, ज़ैरे के राष्ट्रपति मोबुतो सेकू, नाइजीरिया के राष्ट्रपति सानी अबाका, सरबिया के राष्ट्रपति मिलोसेविच, हैती के राष्ट्रपति डुवेलियर और पेरू के राष्ट्रपति फ़ुजीमोरी ने सैकड़ों से लेकर अरबों डॉलर की रकम का भ्रष्टाचार किया।
[[चित्र:Corrupt-Legislation-Vedder-Highsmith-detail-1.jpeg|center|thumb|550px|भ्रष्ट विधि-निर्माण के परिणाम चित्रात्मक निरूपण]]
ये भ्रष्ट नेता बिना [[नौकरशाही]] की मदद के सरकारी धन की यह लूट नहीं कर सकते थे। ख़ास बात यह है कि इस भ्रष्टाचार में निजी क्षेत्र और कॉरपोरेट पूँजी की भूमिका भी होती है। बाज़ार की प्रक्रियाओं और शीर्ष राजनीतिक- प्रशासनिक मुकामों पर लिए गये निर्णयों के बीच साठगाँठ के बिना यह भ्रष्टाचार इतना बड़ा रूप नहीं ले सकता। आज़ादी के बाद भारत में भी राजनीतिक और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की यह परिघटना तेज़ी से पनपी है। एक तरफ़ शक किया जाता है कि बड़े-बड़े राजनेताओं का अवैध धन स्विस बैंकों के ख़ुफ़िया ख़ातों में जमा है
राजनीतिक-प्रशासनिक भ्रष्टाचार को समझने के लिए ज़रूरी है कि इन दोनों श्रेणियों के अलावा एक और विभेदीकरण किया जाए। यह है शीर्ष पदों पर होने वाला बड़ा भ्रष्टाचार और निचले मुकामों पर होने वाला छोटा-मोटा भ्रष्टाचार। सूज़न रोज़ एकरमैन ने अपनी रचना करप्शन ऐंड गवर्नमेंट : कॉजिज़, कांसिक्वेसिंज़ ऐंड रिफ़ॉर्म में शीर्ष पदों पर होने वाले भ्रष्टाचार को ‘क्लेप्टोक्रैसी’ की संज्ञा दी गयी है। किसी भी तंत्र के शीर्ष पर बैठा कोई बड़ा राजनेता या कोई बड़ा नौकरशाह एक निजी इजारेदार पूँजीपति की तरह आचरण कर सकता है। हालाँकि एकरमैन ने भारत के उदाहरण पर न के बराबर ही ग़ौर किया है, पर भारत में पब्लिक सेक्टर संस्थाओं के मुखिया अफ़सरों को ‘सरकारी मुग़लों’ की संज्ञा दी जा चुकी है। न्यायाधीशों द्वारा किये जाने वाले न्यायिक भ्रष्टाचार की परिघटना भारत में अभी नयी है लेकिन उसका असर दिखाई देने लगा है। दिल्ली में हुए राष्ट्रमण्डलीय खेलों के आयोजन में हुए भीषण भ्रष्टाचार के पीछे भी नेताओं और अफ़सरों का शीर्ष खेल ही था। टू जी स्पेक्ट्रम के आबंटन में हुए भ्रष्टाचार को भी क्लेप्टोक्रैसी के ताज़े उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है। निचले स्तर पर होने वाला भ्रष्टाचार ‘स्पीड मनी’ या ‘सुविधा शुल्क’ के तौर पर जाना जाता है। थाना स्तर के पुलिस अधिकारी, बिक्री कर या आय कर अधिकारी, सीमा और उत्पाद-शुल्क अधिकारी और विभिन्न किस्म के इंस्पैक्टर इस तरह के भ्रष्टाचार से लाभांवित होते हैं। इसी तरह ज़िला स्तर पर दिये जाने वाले ठेकों के आबंटन में पूरे ज़िला प्रशासन में कमीशन की रकम का बँटना एक आम बात है।
यहाँ इन दोनों तरह के भ्रष्टाचारों के मूल्यांकन संबंधी विवाद का ज़िक्र करना ज़रूरी है। सार्वजनिक जीवन में अक्सर यह बहस होती रहती है कि क्लेप्टोक्रैसी ज़्यादा बड़ी समस्या है, या फिर सुविधा शुल्क? समाज शीर्ष पदों पर होने वाले भ्रष्टाचार से अधिक प्रभावित होता है, या निचले स्तर पर होने वाले अपेक्षाकृत छोटे भ्रष्टाचार से? इस बहस के पीछे एक विमर्श है जो क्लेप्टोक्रैसी से जुड़ा हुआ है। सत्तर और अस्सी के दशकों में देखा यह गया था कि कई बार शीर्ष पर बैठे हुए क्लेप्टोक्रैटिक शासक या अफ़सर निचले स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार को नापसंद करते हैं। उन्हें लगता था कि इस छुटभैये भ्रष्टाचार से व्यवस्था बदनाम होती है
यह सही है कि छोटे स्तर का भ्रष्टाचार रिश्वतखोरी को पूरे समाज में विकेंद्रित कर देता है। एकरमैन ने भी अपनी रचना में इस पहलू की शिनाख्त की है। भारत में इसके सामाजिक प्रभाव का एक उदाहरण विवाह के बाज़ार में लाभ के पदों पर बैठे वरों की ऊँची दहेज-दरों के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन दूसरी तरफ़ भारतीय उदाहरण ही यह बताता है कि भ्रष्टाचार का यह रूप न केवल शीर्ष पदों पर होने वाली कमीशनखोरी, दलाली और उगाही से जुड़ता है, बल्कि दोनों एक-दूसरे को पानी देते हैं। पिछले बीस वर्षों से भारतीय लोकतंत्र में राज्य सरकारों के स्तर पर सत्तारूढ़ निज़ाम द्वारा अगला चुनाव लड़ने के लिए नौकरशाही के ज़रिये नियोजित उगाही करने की प्रौद्योगिकी लगभग स्थापित हो चुकी है। इस प्रक्रिया ने क्लेप्टोक्रैसी और सुविधा शुल्क के बीच का फ़र्क काफ़ी हद तक कम कर दिया है। भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में चुनाव लड़ने और उसमें जीतने-हारने की प्रक्रिया अवैध धन के इस्तेमाल और उसके परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार का प्रमुख स्रोत बनी हुई है। यह समस्या अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण के दिनों में भी थी, लेकिन बाज़ारोन्मुख व्यवस्था के ज़माने में इसने पहले से कहीं ज़्यादा भीषण रूप ग्रहण कर लिया है। एक तरफ़ चुनावों की संख्या और बारम्बारता बढ़ रही है, दूसरी तरफ़ राजनेताओं को चुनाव लड़ने और पार्टियाँ चलाने के लिए धन की ज़रूरत। नौकरशाही का इस्तेमाल करके धन उगाहने के साथ-साथ राजनीतिक दल निजी स्रोतों से बड़े पैमाने पर ख़ुफ़िया अनुदान प्राप्त करते हैं। यह काला धन होता है। बदले में नेतागण उन्हीं आर्थिक हितों की सेवा करने का वचन देते हैं। निजी पूँजी न केवल उन नेताओं और राजनीतिक पार्टियों की आर्थिक मदद करती है जिनके सत्ता में आने की सम्भावना है, बल्कि वह चालाकी से हाशिये पर पड़ी राजनीतिक ताकतों को भी पटाये रखना चाहती है ताकि मौका आने पर उनका इस्तेमाल कर सके। राजनीतिक भ्रष्टाचार के इस पहलू का एक इससे भी ज़्यादा अँधेरा पक्ष है। एक तरफ़ संगठित अपराध जगत द्वारा चुनाव प्रक्रिया में धन का निवेश
चुनाव प्रणालियों का भ्रष्टाचार की समस्या के आईने में तुलनात्मक अध्ययन भी किया गया है। कई विद्वानों ने एक अध्ययन में दिखाया है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व (जैसे अमेरिकी चुनावी प्रणाली) फ़र्स्ट-पास्ट-दि-पोस्ट (जैसे भारतीय चुनावी प्रणाली) के मुकाबले राजनीतिक भ्रष्टाचार के अंदेशों से ज़्यादा ग्रस्त होती है। इसके पीछे तर्क दिया गया है कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व के माध्यम से सांसद या विधायक चुनने वाली प्रणाली बहुत अधिक ताकतवर राजनीतिक दलों को प्रोत्साहन देती है। इन पार्टियों के नेता राष्ट्रपति के साथ, जिसके पास इस तरह की प्रणालियों में काफ़ी कार्यकारी अधिकार होते हैं, भ्रष्ट किस्म की सौदेबाज़ियाँ कर सकते हैं।
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