"विलफ्रेडो परेटो": अवतरणों में अंतर
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== परिचय ==
अर्थशास्त्र के इतिहास में विलफ़्रेडो परेटो का नाम एक ऐसे विद्वान के रूप में दर्ज है जिसने इस अनुशासन को पहले तो गणितीय और वैज्ञानिक आधार देने की भूमिका निभायी
विलफ़्रेडो परेटो इतालवी पिता की संतान थे जिन्हें इटली की सरकार की नीतियों का विरोध करने के कारण पेरिस में निर्वासित जीवन व्यतीत करना पड़ रहा था। उनके मध्यवर्गीय परिवार ने उनकी प्राथमिक शिक्षा का अच्छा प्रबंध किया और उन्हें कठोर अध्यवसाय व सादगीपूर्ण जीवन जीने के संस्कार दिये। 1858 में इटली लौट कर उन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री ली। इंजीनियर की नौकरी करने के दौरान परेटो ने इंग्लैण्ड और स्कॉटलैण्ड की कई यात्राएँ कीं और इस दौरान उन्हें ब्रिटिश अर्थव्यवस्था का अवलोकन करने का मौका मिला। उन्होंने देखा कि मुक्त बाज़ार नीति का ब्रिटेन को कितना फ़ायदा हो रहा है। वे ऐडम स्मिथ सोसाइटी के सक्रिय सदस्य बन गये और लोकतंत्र व मुक्त व्यापार के समर्थन में लेखन करने लगे। परेटो को रात में नींद कम आती थी। इस समय का सदुपयोग उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र के अध्ययन में किया। रिटायर होने के बाद उन्होंने अपनी इंजीनियरिंग ट्रेनिंग का फ़ायदा उठा कर आर्थिक विश्लेषण को गणितीय रूपों में व्यक्त करना शुरू किया। जल्दी ही उनकी ख्याति बढ़ गयी और उन्हें लुज़ाने विश्वविद्यालय में लियोन वालरस की जगह नियुक्ति मिल गयी। आगे चल कर परेटो गणितीय विधियों की संकीर्णता से उकता गये और ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों के आईने में आर्थिक गतिविधियों को परखने का प्रयास करने लगे। अपने चाचा से विरासत में प्राप्त सम्पत्ति से उन्होंने एक विशाल बंगला ख़रीदा जिसमें किसी संन्यासी की तरह अकेले अपनी पालतू बिल्लियों के साथ रहते हुए उन्होंने अपना जीवन अर्थशास्त्र की समस्याओं पर ग़ौर करते हुए गुज़ारा।
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ओर्डिनल उपयोगिता को कार्डिनल उपयोगिता पर प्राथमिकता दे कर परेटो ने अर्थशास्त्रियों से आग्रह किया कि वे उपभोक्ता से बहुत ज़्यादा अपेक्षाएँ न करें। कार्डिनल उपयोगिता के मुताबिक उपभोक्ता से न केवल यह उम्मीद की जाती थी कि वह एक वस्तु के ऊपर दूसरी को प्राथमिकता देना जानता होगा, बल्कि यह भी जानता होगा कि उस प्राथमिकता की मात्रा क्या होगी। जबकि ओर्डिनल उपयोगिता के उसूल के मुताबिक उपभोक्ता से केवल प्राथमिकता देने की आशा ही की जानी चाहिए थी। व्यवहार में कार्डिनल और ओर्डिनल उपयोगिता के बीच अंतर इस तरह समझा जा सकता है : अगर एक उपभोक्ता अनन्नास के ऊपर आम को प्राथमिकता देता है, तो उससे यह जानने की अपेक्षा करना ग़लत होगा कि वह आम को अनन्नास से दो सौ फ़ीसदी उपयोगी मानता है या डेढ़ सौ फ़ीसदी। उपभोक्ता का ख़रीद-व्यवहार ऐसी कोई सूचना नहीं देता। परेटो के इस आग्रह का परिणाम यह हुआ कि विभिन्न लोगों द्वारा ग्रहण की जाने वाली उपयोगिता को नापना ज़रूरी नहीं रह गया। जेरेमी बेंथम और जेम्स स्टुअर्ट मिल द्वारा विकसित उपयोगितावाद का दर्शन में इस उलझन से ग्रस्त था। परेटो के सूत्रीकरण का नतीजा यह हुआ कि उपयोगिता नापने का पैमाना बनाने की कोशिशें ही रुक गयीं। इसी तरह अंतर्वैयक्तिक संबंधों में भी उपयोगिता की तुलनाएँ करने का रवैया छोड़ दिया गया। यही काफ़ी समझा जाने लगा कि अगर दो व्यक्ति दो चीज़ों का विनिमय कर रहे हैं तो वे जो दे रहे हैं उसके मुकाबले उनके लिए प्राप्त की जाने वाली चीज़ की उपयोगिता अधिक है। अगर ऐसा न होता तो वे यह विनिमय करते ही क्यों। परेटो का तीसरा योगदान अनुकूलतम परिस्थिति के सिद्धांत के रूप में सामने आया। आर्थिक मामलों की अनुकूलतम स्थिति की खोज करते समय परेटो इस नतीजे पर पहुँचे कि कुछ आर्थिक परिणाम किसी भी तरीके से बेहतर नहीं किये जा सकते। अगर किसी एक व्यक्ति की स्थिति को बेहतर किया जाना है तो उसके लिए किसी दूसरे व्यक्ति की स्थिति को कमतर करना होगा। यानी कुल मिला कर स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा। परेटो का कहना था कि दो व्यक्ति तभी कोई लेन-देन करते हैं जब दोनों को फ़ायदे की उम्मीद हो। अगर लाभ किसी एक को ही होगा तो विनिमय होगा ही नहीं। ऐसी स्थिति के बावजूद अगर दबाव डाल कर वस्तुओं का पुनर्वितरण करने की कोशिश की जाएगी तो कुल मिला कर स्थिति में या आर्थिक प्रदर्शन में कोई सुधार नहीं होगा। इसलिए बाज़ार में मुक्त विनिमय की स्थिति ही अनुकूलतम कही जा सकती है।
परेटो के इस सिद्धांत के नतीजे नीतिगत क्षेत्र में निकलने लाज़मी थे। कल्याणकारी अर्थशास्त्र की पैरोकारी के लिए भी इसका इस्तेमाल किया गया। इसके मुताबिक बिना किसी का नुकसान किये अगर हर व्यक्ति की बेहतरी हो सके तो आर्थिक कल्याण में सुधार हो सकता है। यह अनुकूलतम परिस्थिति पैदा हो सके इसलिए लाज़मी समझा गया कि उपभोक्ताओं के स्तर पर जिस सीमांत दर से उपभोग में प्रतिस्थापन हो, उसी सीमांत दर से उत्पादक अपने उत्पादन में तब्दीली करें। परेटो के अनुसार केवल ऐसा होने पर ही सभी उत्पादन प्रक्रियाओं की सीमांत लागत सीमांत आमदनी के बराबर हो सकती है। दूसरी तरफ़, तीस के दशक में अर्थशास्त्रियों का यह ख़याल भी था कि मूल्यगत विवेक का इस्तेमाल किये बिना अनुकूलत ये परिस्थिति के इस सिद्धांत के ज़रिये आर्थिक प्रदर्शन का मूल्यांकन किया जा सकता है। इसलिए उन्होंने इस प्रश्न पर काफ़ी दिमाग़ खपाया और यह पता लगाने की कोशिश की कि कुछ विशेष परिस्थितियों में यह उसूल कारगर होने से चूकता तो नहीं है। परेटो के इस उसूल को अमीरों को टैक्स रियायतें देने के लिए इस्तेमाल किया जाता है : अगर मालदार लोगों को ये रियायतें मिलेंगी तो वे निवेश ज़्यादा कर सकेंगे और आर्थिक उछाल आएगा और नतीजे के तौर पर ग़रीबों की भी बेहतरी होगी। इस स्थिति में इसे परेटो-सुपीरियर की संज्ञा दी जाएगी। अगर टैक्स रियायतों से आर्थिक उछाल नहीं आया तो राजस्व की भरपाई किसी न किसी की जेब से तो करनी ही होगी। मालदारों को फ़ायदा होगा
परेटो ओप्टिमल की आलोचना करते हुए अमर्त्य सेन ने दावा किया है कि इस सिद्धांत से निकलने वाले नतीजे मूल्य-तटस्थ या वैज्ञानिक नहीं कहे जा सकते। यह सिद्धांत इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि अगर कोई परिवर्तन व्यक्ति को ख़ुशहाल बनाता है तो इससे कुल मिला कर वह समाज भी ख़ुशहाल होता है। इस मान्यता को सही नहीं माना जा सकता। दूसरे, यह सिद्धांत सभी परिस्थितियों में श्रेयस्कर नहीं है। मसलन, अकाल की स्थिति कायदे से परेटो ओप्टिमल है और जनता को भुखमरी से बचाने के लिए किया गया पुनर्वितरण परेटो ओप्टिमल के ख़िलाफ़ चला जाएगा।
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