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}}'''वुडरो विल्सन''' ({{lang-en|Woodrow Wilson}}) (१८५६-१९२४) [[अमेरिका के राष्ट्रपति|अमेरिका के २८ वें राष्ट्रपति]] थे। विल्सन को [[लोक प्रशासन]] के प्रकार्यों की व्याख्या करने वाले अकादमिक विद्वान, प्रशासक, [[इतिहासकार]], विधिवेत्ता, और [[राजनीतिज्ञ]] के रूप में जाना जाता है।
== जीवनी ==
वुडरो विल्सन का जन्म २८ दिसंबर, १८५६ को [[अमेरिका]] के [[वर्जीनिया]] प्रांत में हुआ था। उन्होंने [[प्रिन्सटन विश्वविद्यालय]] से [[राजनीति]], [[प्रशासन]] और [[विधि]] का अध्ययन करते हुए १८७९ में [[स्नातक]] की उपाधि प्राप्त की। प्रिन्सटन विश्वविद्यालय से ही १८८६ में विल्सन ने [[पीएच. डी.]] की उपाधि प्राप्त की। उनकी पहली रचना ''कांग्रेसी सरकार'' (Congressional Government) १८८४ में प्रकाशित हुई।<ref>[http://www.spartacus.schoolnet.co.uk/FWWwilsonW.htm वुडरो विल्सन की जीवनी]</ref> विल्सन १८८६ से लेकर १९०२ तक [[राजनीति विज्ञान]] के प्रोफेसर रहे। १९०२ से १९१० तक की अवधि में वे प्रिन्सटन विश्वविद्यालय के अध्यक्ष (President) के पद पर रहे।<ref>लोक प्रशासन, डॉ॰ अमरेश्वर अवस्थी एवं डॉ॰ श्रीराम माहेश्वरी, लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, २०११, पृष्ठ-४७, ISBN:81 85778 18 3</ref>
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नेविन्स एवं कौमेजर के शब्दों में- ” 'शक्ति अधिकाधिक शक्ति, शक्ति बिना किसी रुकावट या सीमा के' यह वचन राष्ट्राध्यक्ष विल्सन ने दिया था और राष्ट्र हठवादिता को थोपने में सफलता प्राप्त की। इस वचन की पूर्ति के लिए अविलम्ब कार्यरत हो गया। इसके पूर्व की किसी सरकार ने युद्ध में इससे अधिक बुद्धिमानी ओर कार्यक्षमता नहीं दिखलाई थी। इसके पूर्व अमेरिकावासियों ने भी ऐसी स्फूर्ति, साधन-सम्पन्नता और आविष्कार बुद्धि का प्रभावशाली प्रदर्शन नहीं किया था।“ ‘बिना विजय की शांन्ति’ युद्ध का नारा बन गया था।
 
युद्ध-विराम सन्धि के पश्चात् विल्सन जब अपने सचिव की सलाह न मानकर दिसम्बर, 1918 में [[पेरिस शान्ति सम्मेलन]] में पहुंचा तो उसका ‘शान्ति के मसीहा’ के रूप में स्वागत हुआ। यूरोप में उस समय यह भावना विद्यमान थी कि केवल विल्सन ही ऐसा व्यक्ति है जो विभिन्न राष्ट्रों के राग-द्वेष और उनकी ईर्ष्या-भावना से ऊपर उठा हुआ एवं मानवता का रक्षक है। अतः जब यह दार्शनिक राजा अपने सिद्धान्तों की पुस्तिका हाथ में लेकर सैनिक-शक्ति से लैस, सन्धि की शर्तें निर्धारित करने आया तो यूरोप की जनता ने उसके सम्मान में हृदय खोल दिया। सभी देशों में उसका अभूतपूर्व स्वागत हुआ। जब वह [[पेरिस]] पहुंचा तो फ्रांसीसी उसे देखकर आनन्द-विभोर हो उठे। सड़कों पर अपार जन-समूह ने उसकी स्तुति की और अखबारों ने उसके गुणगान किए। वास्तव में सभी की आंखें उसकी ओर लगी थीं। विजयी न्याय की, विजित दया की, और सामान्य जन-शक्ति की आशा करते थे।
 
विल्सन इस सम्मेलन में शान्ति का दीप बनकर आया था। वह नहीं चाहता था कि पेरिस सम्मेलन 1815 के [[वियना कांग्रेस]] जैसे निहित स्वार्थों का गढ़ बन जाये। परन्तु वह अन्दाज नहीं लगा पाया था कि विजेता राष्ट्रों में स्वार्थ की गन्ध रहती है और यदि वह अन्य तथ्यों को ध्यान में रखता तो वह उस जाल या धोखे से बच जाता जिसमें वह स्वयं अपने आदर्शवाद के कारण बुरी तरह उलझ गया। उसके पवित्र उद्देश्य विजेता राष्ट्रों की सत्ता-पिपासा के आगे भस्मसात हो गये। विल्सन ने अपने विचारों को प्रसिद्ध 14 सूत्रों (Fourteen Points) के रूप में प्रस्तुत किया। उसके 14 सूत्रों में प्रथम सूत्र यही था कि शान्ति के समझौते सार्वजनिक रूप से किये जायेंगें, कोई गुप्त समझौता नहीं होगा। इन सिद्धान्तों की मित्रराष्ट्रों के राजनीतिज्ञों ने भी सराहना की थी। उनके पास युद्धोत्तर समस्याओं का समाधान करने के लिए उपरोक्त सिद्धान्तों के अतिरिक्त और क्या था ? और पराजित राष्ट्रों ने भी इन सिद्धान्तों के प्रति अपनी सहमति प्रकट की परन्तु आदर्शों एवं सिद्धान्तों की अन्ततः शक्ति-पूजक राष्ट्रों के सामने कुछ न चल सकी। इस सम्मेलन में भी राष्ट्रवादी विचारों, व्यक्तिगत स्वार्थों का बोलबाला रहा, जिनका वियना कांग्रेस (1815) में प्राधान्य रहा था। फ्रांस का क्लेमेंसी और इंग्लैण्ड का लॉयड दोनों ने ही विल्सन पर अपनी हठवादिता को थोपने में सफलता प्राप्त की। आर0बी0 मोबात ने ‘यूरोपियन डिप्लोमेसी’ में लिखा है कि ”क्लेमेंसो प्रातःकाल यह वाक्य दुहराया करता था- मैं राष्ट्रसंघ (League of Nations) की स्थापना का समर्थन करूंगा।“ किन्तु इटली के ओरलैण्डो से जब एक बार पूछा गया कि राष्ट्रसंघ के बारे में आपका क्या मत है तो उत्तर दिया था कि ”हम निःसन्देह राष्ट्रसंघ की स्थापना का स्वागत करेंगे किन्तु फ्यूम (Fiums) का प्रश्न तय किया जाना चाहिये।“ विल्सन सम्पूर्ण सम्मेलन में अकेला पड़ गया था। वियना कांग्रेस के पश्चात् यूरोप में इस प्रकार इतने विशाल पैमाने पर विश्व स्तर का कोई सम्मेलन नहीं हुआ था।