"जयचमराजा वोडेयार बहादुर": अवतरणों में अंतर

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=== खेल ===
 
वे एक अच्छे घुड़सवार और टेनिस खिलाड़ी थे, जिहोने रामानाथन कृष्णन को विम्बलडन में भाग लेने के सिलसिले में मदद की. अपनी निशानेबाजी के लिए वे विख्यात थे और उनके आसपास के इलाकों में कोई पागल हाथी या आदमखोर बाघ उत्पात मचाया करता तो उन्हें बुलावा भेजा जाता था.था। राजमहल के संग्रहालय में उन्हें प्राप्त वन्य जीवन से संबंधित अनेक ट्राफियां संग्रहित हैं। उन्होंने प्रसिद्ध क्रिकेटर/ऑफ़-स्पिन गेंदबाज श्री ईएएस प्रसन्ना को वेस्ट इंडीज दौरे पर भेजने में मदद की थी, जबकि उनके पिता उन्हें भेजने के लिए अनिच्छुक थे।
 
=== संगीत ===
 
वे पश्चिमी और [[कर्नाटक संगीत|कर्नाटकी]] (दक्षिण भारतीय शास्त्रीय) संगीत के जानकार थे और भारतीय दर्शन शास्त्र के मान्य विद्वान थे। उन्होंने एक अल्प-ख्यात रुसी संगीतकार निकोलाई कार्लोविच मेद्तनर (1880-1951) के संगीत को पश्चिमी दुनिया में ख्याति दिलाने में मदद की, उन्होंने उनके अनेक संगीतों की रिकॉर्डिंग के लिए धन दिया और 1949 में मेद्तनर सोसाइटी की स्थापना की. मेद्तनर का तीसरा पियानो कंसर्ट मैसूर के महाराजा को समर्पित है.है। 1945 में वे लंदन के गिल्ड हॉल ऑफ म्युज़िक के लाइसेंसधारी (Licentiate) तथा लंदन के ट्रिनिटी कॉलेज ऑफ म्युज़िक के मानद सदस्य बने. 1939 में उनके पिता युवराज कान्तीरावा नरसिंहराज वोडेयार और 1940 में उनके चाचा महाराजा कृष्णराज वोडेयार चतुर्थ के असामयिक निधन से एक कंसर्ट पियानोवादक बनने की उनकी आकांक्षा अधूरी रह गयी और उन्हें मैसूर के सिंहासन पर बैठना पड़ा.
 
1948 में लंदन के फिलहारमोनिया कंसर्ट सोसाइटी के वे पहले अध्यक्ष थे[http://www.philharmonia.co.uk/exploreandlearn/specials/10factsaboutthephilharmoniaorchestra/ ].13 अप्रैल, 27 अप्रैल और 11 मई 1949 को रॉयल अल्बर्ट हॉल में आयोजित प्रारंभिक संगीत कार्यक्रमों में से कुछ के कार्यक्रम पत्रकों की प्रतिलिपि नीचे देखें.
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1950 में लंदन के फिलहारमोनिया आर्केस्ट्रा द्वारा रॉयल अल्बर्ट हॉल में एक शाम के आयोजन को प्रायोजित करके महाराजा ने रिचर्ड स्ट्रॉस की अंतिम इच्छा को पूरा किया, इस कार्यक्रम में प्रमुख थे जर्मन संचालक विहेम फुर्तवांग्लर और सोपरानो फ्लैगस्टैड ने अपने अतिम चार गीत गाये (गोइंग टु स्लीप, सेप्टेम्बर, स्प्रिंग, ऐट सनसेट).
 
महाराजा संगीत के उतने ही अच्छे आलोचक भी थे। जब लेग्गे ने ईएमआई सूची के ताजा संस्करणों पर टिप्पणी करने को कहा, तब उनके विचार उतने ही तीखे थे जितने कि अपूर्वानुमेय रूप से स्फूर्तिदायक भी थे। वे कारजन की बीथोवेन की पांचवीं सिम्फनी (जैसा कि बीथोवेन की इच्छा थी) की विएना फिलहोर्मोनिक रिकॉर्डिंग से बड़े प्रसन्न हुए, चौथी सिम्फनी की फुर्तवैंग्लर की रिकॉर्डिंग को बड़े सम्मान के साथ स्वीकारा और सातवीं सिम्फनी के गैलिएरा के काम से निराश हुए, जिसकी रिकॉर्डिंग के लिए उन्होंने कारजन को पसंद किया। सबसे बड़ी बात यह कि उन्होंने तोस्कानिनी की रिकॉर्डिंग पर गहरी शंका व्यक्त की. उन्होंने लेग्गे को लिखा,'गति और ऊर्जा शैतानों की हैं, किसी फ़रिश्ते या सुपरमैन से बड़े उत्साह के साथ कोई ऐसी आशा नहीं करेगा'. फुर्तवैंग्लर के बीथोवेन के प्रति इतने सम्मान की एक वजह यह भी थी कि तोस्कानिनी के खराब प्रदर्शन से बहुत ही नाराज होने के बाद इसने एक टॉनिक का काम किया था.था।
 
तब तक मैसूर राज दरबार में सांस्कृतिक जीवंतता बनी रहने के कारण महाराजा बनने के बाद उन्होंने भारतीय शास्त्रीय संगीत (कर्नाटकी संगीत) सीखने की शुरुआत की. उन्होंने विद्वान वेंकटगिरीअप्पा से वीणा बजाना सीखा और दिग्गज संगीतकार तथा आस्थान विद्वान श्री वासुदेवाचार्य से कर्नाटिक संगीत की बारीकियों को सीखने में महारत हासिल की. उन्होंने अपने गुरु शिल्पी सिद्दालिंगास्वामी से एक उपासक (चित्रभानन्द के नाम से) के रूप में श्री विद्या के रहस्यों को भी सीखने की शुरुआत की. इससे उन्हें श्री विद्या के उक्त कल्पित नाम से 94 कर्नाटकी संगीत कृतियों की रचना करने की प्रेरणा मिली. सभी रचनाएं अलग रागों में हैं और उनमें से कुछ पहली बार रची गयी हैं। इस प्रक्रिया में उन्होंने मैसूर शहर में तीन मंदिर भी बनाये: मैसूर महल किले में भुवनेश्वरी मंदिर और गायत्री मंदिर और मैसूर के रामानुज रोड पर श्री कामकामेश्वरी मंदिर. सभी तीन मंदिरों को महाराजा के गुरु और प्रसिद्ध मूर्तिकार शिल्पी सिद्दालिंगस्वामी ने गढ़ा.
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[http://www.ramana-maharshi.org/m_path/1964_3/july_1964_frameset.htm ]
 
उन्होंने जयचमराजा ग्रंथ रत्न माला के हिस्से के रूप में संस्कृत से कन्नड़ में अनेक शास्त्रीय पुस्तकों के अनुवाद को भी प्रायोजित किया, साथ ही [[ऋग्वेद]] के 35 भागों का भी अनुवाद करवाया. ये सभी मूलतः संस्कृत में लिखित प्राचीन पवित्र ग्रंथ हैं, जो तब तक कन्नड़ भाषा में पूरी तरह उपलब्ध नहीं थे। सभी पुस्तकों के मूल पाठ को कन्नड़ लिपि में दिया गया है, उसके साथ आम लोगों की सुविधा के लिए उसका अनुवाद कन्नड़ में सरल भाषा में किया गया है.है। कन्नड़ साहित्य के इतिहास में इस तरह के एक स्थायी महत्त्व के काम का प्रयास कभी नहीं किया गया था! आस्थान (राज दरबार) ज्योतिषी और मैसूर महल के धर्माधिकारी स्व. एच. गंगाधर शास्त्री के अनुसार महाराजा इन सभी ग्रंथों का अध्ययन किया करते थे और लेखकों के साथ इन पर चर्चा भी किया करते थे। स्व. शास्त्री ने भी इन ग्रंथों के लेखन में बहुत योगदान किया था.था। एक त्यौहार की देर रात में (शिवरात्रि) उन्हें बुलावा आया और उनमें से एक पुस्तक के कठिन कन्नड़ शब्दों के प्रयोग को आसान बनाने की सलाह दी गयी.
 
इस श्रृंखला के अंतर्गत प्रकाशित पुस्तकों की एक सूची निम्नलिखित है: