"पारिभाषिक शब्दावली": अवतरणों में अंतर
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== शब्दावली संकलन का प्रारंभ तथा विकास ==
मध्यकाल की नाममालाओं की परम्परा के बाद पहला शब्दावली संकलन का कार्य आदम ने १८२९ में 'हिन्दवी भाषा का कोश' शीर्षक से तैयार किया जिसमें २०,००० शब्द
(१) शब्दों की व्युत्पत्ति पर प्रकाश तथा
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आधुनिक काल में [[श्यामसुन्दर दास|बाबू श्याम सुन्दर दास]], [[रामचन्द्र शुक्ल]], [[रामचन्द्र वर्मा]] के सत्प्रयासों से [[नागरी प्रचारिणी सभा]], वाराणसी से '[[हिन्दी शब्दसागर]]' (१९२२-२९) प्रकाशित हुआ जिसकी योजना २३-८-१९०७ की सभा के परम हितैषी और उत्साही सदस्य श्रीयुत रेवरेंड ई. ग्रीब्ज़ के उस प्रस्ताव के अनुसार बनी जिसमें प्रार्थना की गई थी कि "हिन्दी के एक बृहत् और सर्वांगपूर्ण कोश का भार सभा अपने ऊपर ले."
सन् १९१० के आरंभ में शब्द संग्रह का कार्य समाप्त हुआ. १० लाख स्लिप बनाई गई जिनमें से लगभग एक लाख शब्दों का आंकलन किया गया. यह कोश वस्तुत: सागर था जो शब्दों, अर्थों, मुहावरों, लोकोक्तियों, उदाहरणों तथा उद्धरणओं से भरपूर अर्थच्छटाएँ देने में सर्वोत्तम माना जाएगा. इसके बाद कोश कला में दीर्घकालीन अनुभव प्राप्त [[आचार्य रामचन्द्र वर्मा]] के प्रयासों से वाराणसी से 'प्रामाणिक हिन्दी कोश' (पृ.सं. ३९६६;१९६२-१९६६) प्रकाशित हुआ. 'वृहद् हिन्दी कोश' के तीसरे संस्करण में एक लाख अड़तालीस हज़ार शब्द
== पारिभाषिक शब्दावली का विकास ==
[[प्राचीन भारत]] में ही दर्शन, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि कुछ विषयों में प्रचुर भारतीय शब्दावली उपलब्ध
[[रघु वीर|डॉ॰ रघुवीर]] के कोश कार्य की एक ओर अत्यधिक प्रशंसा हुई, दूसरी ओर अत्यधिक आलोचना. वस्तुत: यह प्रशंसनीय कार्य था, जिसको अत्यधिक श्रम से वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत किया गया. संपूर्णत: संस्कृत पर आधारित होने के कारण इसकी व्यावहारिकता पर संदेह किया जाने लगा. उन्होंने सर्वप्रथम भाषा-निर्माण में यांत्रिकता तथा वैज्ञानिकता को स्थान दिया. [[उपसर्ग]] तथा [[प्रत्यय|प्रत्ययों]] के धातुओँ के योग से लाखों शब्द सहज ही बनाये जा सकते हैं:
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:'''उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते। प्रहार-आहार-संहार-विहार-परिहार वत्।।'''
इस प्रक्रिया को कोश की भूमिका में समझाया. यदि मात्र दो संभावित योग लें, मूलांश ४०० और तीन प्रत्यय लें तो ८००० रूप बन सकते हैं, जबकि अभी तक मात्र ३४० योगों का उपयोग किया गया है. यहाँ शब्द-निर्माण की अद्भुत क्षमता उद्घाटित होती है. उन्होंने विस्तार से उदाहरण देकर समझाया कि किस प्रकार गम् धातु मात्र से १८० शब्द सहज ही बन जाते
इस प्रकार '''[[संस्कृत]] में शब्द निर्माण की अद्भुत क्षमता है''', जिसका अभी नाममात्र का ही उपयोग किया जा सका है. अतिवादी दृष्टि से बचकर भी लाखों ऐसे सरल शब्दों को प्रयोग में लाया जा सकता है, जो हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुकूल हैं।
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== संक्षिप्त रूपों द्वारा नई शब्दावली ==
आज इस भागदौड़ के युग में हर आदमी की यह आदत बनती जा रही है कि कम से कम समय में कम से कम शब्दों में अपने मन के भावों को अभिव्यक्त करे. इस स्वाभाविक प्रवृत्ति के फलस्वरूप ही संस्थाओं तथा संगठनों के लम्बे-लम्बे नाम संक्षिप्त होते जा रहे
== हिन्दी की विभाषा तथा बोलियों का महत्त्व ==
किसी बोली का लोकजीवन से अभिन्न संबंध है. बोलियों का ही परिष्कृत, सामान्यीकृत तथा संस्कृत रूप भाषा है. भाषा को ही बोलियों से ही सहज शक्ति प्राप्त होती है. गंगा का आदिस्रोत हिमखंडों से निर्मित गोमुख है, उसी प्रकार हिन्दी की गंगा को उसकी बोलियों से सारभूत तत्त्व तथा प्राणशक्ति मिलती है. व्यावहारिक लोकभाषा से शब्द संग्रह करना सरल कार्य नहीं. लोकबोली के स्थायी तत्त्व लोकगीत तथा लोककहानियों में समाहित रहते
== हिन्दी का शब्द-सामर्थ्य ==
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