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== शब्दावली संकलन का प्रारंभ तथा विकास ==
मध्यकाल की नाममालाओं की परम्परा के बाद पहला शब्दावली संकलन का कार्य आदम ने १८२९ में 'हिन्दवी भाषा का कोश' शीर्षक से तैयार किया जिसमें २०,००० शब्द थे.थे। तद्भव तथा देशज शब्दों को प्रधानता दी गई. आदम साहब पहले व्यक्ति थे जिन्होंने लोक से बोलचाल के शब्द संगृहीत किये. आदम से पूर्व गिलक्राइस्ट, कर्कपैट्रिक, विलियम हंटर, शेक्सपियर, रॉबक के कोश और बाद में फ़ैलन, येट, डंकर फ़ोर्ब्स, थॉमसन तथा जॉन प्लाट्स के कार्य उल्लेखनीय हैं.हैं। इनमें से फ़ैलन, थॉमसन तथा जॉन प्लाट्स के कार्य महत्त्वपूर्ण हैं.हैं। थॉमसन के संकलन में शब्दसंख्या ३०,००० है, फ़ैलन के कोश में १२१६ पृष्ठ (रायल क्टेव) हैं.हैं। प्लाट्स के कोश का पूरा नाम है - "'ए डिक्शनरी आफ़ उर्दू, क्लासिकल हिंदी ऐंड इंगलिश" (१८७४) जिसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं:
 
(१) शब्दों की व्युत्पत्ति पर प्रकाश तथा
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आधुनिक काल में [[श्यामसुन्दर दास|बाबू श्याम सुन्दर दास]], [[रामचन्द्र शुक्ल]], [[रामचन्द्र वर्मा]] के सत्प्रयासों से [[नागरी प्रचारिणी सभा]], वाराणसी से '[[हिन्दी शब्दसागर]]' (१९२२-२९) प्रकाशित हुआ जिसकी योजना २३-८-१९०७ की सभा के परम हितैषी और उत्साही सदस्य श्रीयुत रेवरेंड ई. ग्रीब्ज़ के उस प्रस्ताव के अनुसार बनी जिसमें प्रार्थना की गई थी कि "हिन्दी के एक बृहत् और सर्वांगपूर्ण कोश का भार सभा अपने ऊपर ले."
 
सन् १९१० के आरंभ में शब्द संग्रह का कार्य समाप्त हुआ. १० लाख स्लिप बनाई गई जिनमें से लगभग एक लाख शब्दों का आंकलन किया गया. यह कोश वस्तुत: सागर था जो शब्दों, अर्थों, मुहावरों, लोकोक्तियों, उदाहरणों तथा उद्धरणओं से भरपूर अर्थच्छटाएँ देने में सर्वोत्तम माना जाएगा. इसके बाद कोश कला में दीर्घकालीन अनुभव प्राप्त [[आचार्य रामचन्द्र वर्मा]] के प्रयासों से वाराणसी से 'प्रामाणिक हिन्दी कोश' (पृ.सं. ३९६६;१९६२-१९६६) प्रकाशित हुआ. 'वृहद् हिन्दी कोश' के तीसरे संस्करण में एक लाख अड़तालीस हज़ार शब्द हैं.हैं। इस बीच 'हिन्दी शब्दसागर' का नवीन संशोधित और परिवर्धित संस्करण (१९६५-७५) में प्रकाशित हुआ जिसमें कुल पृष्ठ सं. ५५७० है, संयोजक श्री करूणापति त्रिपाठी के दिनांक १८-२-६५ के वक्तव्य के अनुसार "मूल शब्द सागर से इसकी शब्द संख़्या में दुगुनी वृद्धि हुई है." इस प्रकार कोशों के आधार पर शब्दावली की संख्या दो लाख है।
 
== पारिभाषिक शब्दावली का विकास ==
[[प्राचीन भारत]] में ही दर्शन, ज्योतिष, आयुर्वेद आदि कुछ विषयों में प्रचुर भारतीय शब्दावली उपलब्ध थी.थी। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही वैज्ञानिक उपलब्धियों से संबंधित शब्दावली हिन्दी भाषा में आने लगी थी.थी। [[नागरीप्रचारिणी सभा|काशी नागरी प्रचारिणी सभा]], वाराणसी ने वैज्ञानिक शब्दावलियों के रूप में सर्वप्रथम पुस्तकाकार प्रकाशन किये। इस दिशा में [[डॉ॰ सत्यप्रकाश]] ([[विज्ञान (हिन्दी पत्रिका)|विज्ञान परिषद]], इलाहाबाद) तथा [[रघु वीर|डॉ॰ रघुवीर]] के कार्य विशेष उल्लेखनीय हैं।
 
[[रघु वीर|डॉ॰ रघुवीर]] के कोश कार्य की एक ओर अत्यधिक प्रशंसा हुई, दूसरी ओर अत्यधिक आलोचना. वस्तुत: यह प्रशंसनीय कार्य था, जिसको अत्यधिक श्रम से वैज्ञानिक आधार पर प्रस्तुत किया गया. संपूर्णत: संस्कृत पर आधारित होने के कारण इसकी व्यावहारिकता पर संदेह किया जाने लगा. उन्होंने सर्वप्रथम भाषा-निर्माण में यांत्रिकता तथा वैज्ञानिकता को स्थान दिया. [[उपसर्ग]] तथा [[प्रत्यय|प्रत्ययों]] के धातुओँ के योग से लाखों शब्द सहज ही बनाये जा सकते हैं:
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:'''उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते। प्रहार-आहार-संहार-विहार-परिहार वत्।।'''
 
इस प्रक्रिया को कोश की भूमिका में समझाया. यदि मात्र दो संभावित योग लें, मूलांश ४०० और तीन प्रत्यय लें तो ८००० रूप बन सकते हैं, जबकि अभी तक मात्र ३४० योगों का उपयोग किया गया है. यहाँ शब्द-निर्माण की अद्भुत क्षमता उद्घाटित होती है. उन्होंने विस्तार से उदाहरण देकर समझाया कि किस प्रकार गम् धातु मात्र से १८० शब्द सहज ही बन जाते हैं.हैं। प्रगति, परागति, परिगति, प्रतिगति, अनुगति, अधिगति, अपगति, अतिगति, आगति, अवगति, उपगति, उद्गति, सुगति, संगति, निगति, निर्गति, विगति, दुर्गति, अवगति, अभिगति, गति, गन्तव्य, गम्य, गमनीय, गमक, जंगम, गम्यमान, गत्वर, गमनिका आदि कुछ उदाहरण हैं.हैं। मात्र 'इ' धातु के साथ विभिन्न एक अथवा दो उपसर्ग जोड़कर १०७ शब्दों का निर्माण संभव है. उन्होंने स्पष्ट किया कि ५२० धातुओं के साथ २० उपसर्गों तथा ८० प्रत्ययों के योग से लाखों शब्दों का निर्माण किया जा सकता है. अगर धातुओं की संख्या बढ़ा ली जाए तो १७०० धातुओं से २३८०० मौलिक तथा ८४,९६,२४००० शब्दों को व्युत्पन्न किया जा सकता है.
 
इस प्रकार '''[[संस्कृत]] में शब्द निर्माण की अद्भुत क्षमता है''', जिसका अभी नाममात्र का ही उपयोग किया जा सका है. अतिवादी दृष्टि से बचकर भी लाखों ऐसे सरल शब्दों को प्रयोग में लाया जा सकता है, जो हिन्दी की प्रवृत्ति के अनुकूल हैं।
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== संक्षिप्त रूपों द्वारा नई शब्दावली ==
आज इस भागदौड़ के युग में हर आदमी की यह आदत बनती जा रही है कि कम से कम समय में कम से कम शब्दों में अपने मन के भावों को अभिव्यक्त करे. इस स्वाभाविक प्रवृत्ति के फलस्वरूप ही संस्थाओं तथा संगठनों के लम्बे-लम्बे नाम संक्षिप्त होते जा रहे हैं.हैं। नई प्रकार की यह शब्दावली अंग्रेज़ी में 'एक्रोनिम' से अभिहित की जाती है. प्रत्येक काल में ऐसे शब्द बनते रहे हैं.हैं। कालान्तर में जब ये शब्द बहुप्रयुक्त होकर कोश के अन्तर्गत अपना समुचित स्थान बना लेते हैं, तो प्राय: भूल जाते हैं कि इनका निर्माण इस विधि से हुआ होगा, जैसे अंग्रेज़ी 'न्यूज़'. हिन्दी में प्रचलित 'बदी' तथा 'सुदी' शब्द भी इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप हैं, 'स' सुदि: [शु.(शुक्लपक्ष) तथा 'ब' बहुल(कृष्णपक्ष)] हिन्दी में अंकटाड, सैम, मीडो, सीटो, इंटक, नाटो, यूनेस्को आदि पर्याप्त शब्द इसी कोटि के हैं.हैं। पिछली बार [[चीन]] के आक्रमण के समय नेफ़ा, मिग तथा रडार तीन शब्द काफ़ी प्रचलित हो गये. युद्ध में 'लेसर', 'मिग' प्रचलित हैं, प्रबंधशास्त्र में 'प्रिन्स' 'पर्ट' इसी प्रकार के शब्द हैं.हैं। हिन्दी पत्रकारिता में प्रचलित अंनिआ, उर्वसी, उपूसी, इंका, लोद इसी प्रकार के शब्द हैं.हैं।
 
== हिन्दी की विभाषा तथा बोलियों का महत्त्व ==
 
किसी बोली का लोकजीवन से अभिन्न संबंध है. बोलियों का ही परिष्कृत, सामान्यीकृत तथा संस्कृत रूप भाषा है. भाषा को ही बोलियों से ही सहज शक्ति प्राप्त होती है. गंगा का आदिस्रोत हिमखंडों से निर्मित गोमुख है, उसी प्रकार हिन्दी की गंगा को उसकी बोलियों से सारभूत तत्त्व तथा प्राणशक्ति मिलती है. व्यावहारिक लोकभाषा से शब्द संग्रह करना सरल कार्य नहीं. लोकबोली के स्थायी तत्त्व लोकगीत तथा लोककहानियों में समाहित रहते हैं.हैं। शब्द रूपों के स्रोत तथा उनके विकास की परम्परा और साथ ही अर्थ विकास की श्रृंखला निर्धारित करने में लोकजीवन का विशेष महत्त्व है. बोलियों में जब कोई बोली शिक्षित लोगों के मुख्य नगर या अन्य शिष्ट सामाजिक वर्ग की भाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो जाती है तब वह मानक भाषा कहलाती है।
 
== हिन्दी का शब्द-सामर्थ्य ==