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रामानन्द सम्प्रदाय के प्रवर्तक समी '''रामानन्दाचार्य''' का जन्म सम्वत् 1236 में हुआ था। जन्म के समय और स्थान के बारे में ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है। शोधकर्ताओं ने जो जानकारी जुटाई है उसके अनुसार रामानन्द जी के पिता का नाम पुण्यसदन और माता का नाम सुशीला देवी था। उनकी माता नित्य वेणीमाधव भगवान की पूजा किया करती थीं। एक दिन वे मन्दिर में दर्शन करने गईं तो उन्हें दिव्योणी सुनाई दी - हे माता पुत्रवती हो। उनके आँचल में एक माला और दाहिनार्त शंख प्रकट हुआ। वह प्रसाद पाकर बहुत खुश हुईं और पतिदेव को सारी बात बताई।
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'''स्वामी रामानंद़''' को मध्यकालीन भक्ति आंदोलन का महान संत माना जाता है.उन्होंने रामभक्ति की धारा को समाज के निचले तबके तक पहुंचाया.वे पहले ऐसे आचार्य हुए जिन्होंने उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार किया.उनके बारे में प्रचलित कहावत है कि -द्वविड़ भक्ति उपजौ-लायो रामानंद.यानि उत्तर भारत में भक्ति का प्रचार करने का श्रेय [[स्वामी रामानंद]] को जाता है.उन्होंने तत्कालीन समाज में ब्याप्त कुरीतियों जैसे छूयाछूत,ऊंच-नीच और जात-पात का विरोध किया .
एक दिन माता ने देखा- आकाश से प्रकाश पुंज आ रहा है। वह प्रकाश उनके मुख में समा गया। माता डरकर बेहाश हो गईं। थोड़ी देर बाद उन्हें जब होश आया तो वे उठकर बैठ गई। उस दिन से उनके शरीर में एक शक्ति का संचार होने लगा। शुष्लग्न में प्रात:काल आचार्य प्रकट हुए। उनके प्रकट होने के समय माता को बिल्कुल पीड़ा नहीं हुई। पुण्यसदन जी के घर बालक पैदा होने की खबर पाकर पूरा प्रयाग नगर उमड़ पड़ा। कुलपुरोहित ने उनका नाम रामानन्द रखा। बालक के लिए सोने का पालना लगाया गया। उनके शरीर पर कई दिव्य चिन्ह थे। माथे पर तिलक का निशान था। बालक के खेलने के समय एक तोता रोजाना उसके पास आ जाता और ‘राम-राम‘ का शब्द करता। यह ‘राम-राम‘ का शब्द उनके जीन का आधार बन गया। इस बालक के पास एकोनर और कौआ भी रोजाना आता था। ह कौआ बालक के खिलौने लेकर उड़ जाता और बालक के मचलने परोपस दे जाता। भादों के महीने में ऋषि-पंचमी के दिन अन्न प्रक्षालन का उत्स मनाया गया। थाल में पकान, खीर और लड्डू रखे गए लेकिन बालक रामानन्द ने केल खीर को उंगली लगाई। माता ने थोड़ी-सी खीर मुख में खिला दी। उसके अलावा बालक को कुछ नहीं खाया। यह खीर ही आजीन उनका आहार था।
 
== आरंभिक जीवन ==
एक दिन बालक रामानन्द खेलते हुए पूजा के मन्दिर में जा पहुंचे। उन्होंने दाहिना्रत शंख उठा लिया और बजाने लगे। पिता ने शंख को हाथ से छीन लिया और क्रोधित होने लगे। बालक रामानन्द बाहर भाग गया। बाद में उनके पिता को स्वप्न में वेणीमाधव भगवान ने शंख बालक को देने की आज्ञा की। प्रात:काल बालक को शंख बजाने को कहा। उस दिन से बालक रामानन्द दिन में तीन बार उस शंख को बजाते थे। पांच साल की उम्र में पिता ने कुछ ग्रन्थों के श्लोक सिखाए तो बालक ने तुरन्त याद कर लिए। एक साल में ही बालक रामानन्द ने कई ग्रन्थों को कण्ठस्थ कर लिया। प्रयाग कुम्भ में विद्वानों की एक सभा हुई। इसमें बालक रामानन्द को भी बुलाया गया। सभी विद्वानों ने इसमें अपने-अपने मत रखे। बालक रामानंद ने कहा- जसे कमल के दल पर पानी की बूंद लटकती है वैसे ही जी इस पृथ्वी पर हैं। पता नहीं कब उसके जाने का समय आ जाए? इसलिए बाद-विवाद छोड़ कर भगवान की भक्ति करनी चहिए। इस पर सभी विद्वानों और भक्तों ने उनकी प्रशंसा तथा आरती की।
स्वामी रामानंद का जन्म [[प्रयाग]](इलाहाबाद) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था.उनकी माता का नाम सुशीला देवी और पिता का नाम पुण्य सदन शर्मा था.आरंभिक काल में हीं उन्होंने कई तरह के अलौकिक चमत्कार दिखाने शुरू किये.धार्मिक विचारों वाले उनके माता-पिता ने बालक रामानंद को शिक्षा पाने के लिए काशी के स्वामी राधवानंद के पास [[श्रीमठ]] भेज दिया. श्रीमठ में रहते हुए उन्होंने वेद,पुराणों और दूसरे धर्मग्रंथों का अध्ययन किया और प्रकांड विद्वान बन गये.[[पंचगंगा घाट]] स्थित श्रीमठ में रहते हुए उन्होंने कठोर साधना की .उनके जन्म दिन को लेकर कई तरह की भ्रंतियां प्रचलित है लेकिन अधिकांश विद्वान मानते हैं कि स्वामीजी का जन्म 1400 ईस्वी में हुआ था.यानि आज से कोई सात सौ दस साल पहले.
== शिष्य परंपरा ==
स्वामी रामानंद ने राम भक्ति का द्वार सबके लिए सुलभ कर दिया. उन्होंने [[अनंतानंद]], [[भावानंद]], [[पीपा]], [[सेन]], [[धन्ना]], [[नाभा दास]], [[नरहर्यानंद]], [[सुखानंद]], [[कबीर]], [[रैदास]], [[सुरसरी]], [[पदमावती]] जैसे बारह लोगों को अपना प्रमुख शिष्य बनाया,जिन्हे [[द्वादश महाभागवत]] के नाम से जाना जाता है. इनमें कबीर दास और रैदास आगे चलकर काफी ख्याति अर्जित किये. कबीर औऱ [[रविदास]] ने [[निर्गुण]] राम की उपासना की.इस तरह कहें तो स्वामी रामानंद ऐसे महान संत थे जिसकी छाया तले सगुण और निर्गुण दोनों तरह के संत-उपासक विश्राम पाते थे.जब समाज में चारो ओर आपसी कटूता और वैमनस्य का भाव भरा ङुआ था, वैसे समय में स्वामी रामानंद ने नारा दिया-जात-पात पूछे ना कोई-ङरि को भजै सो हरी का होई. उन्होंने सर्वे प्रपत्तेधिकारिणों मताः का शंखनाद किया और भक्ति का मार्घ सबके लिए खोल दिया. उन्होंने महिलाओं को भी भक्ति के वितान में समान स्थान दिया. उनके द्वारा स्थापित [[रामानंद सम्प्रदाय]] या [[रामावत]] संप्रदाय आज वैष्णवों का सबसे बड़ा धार्मिक जमात है. वैष्णवों के 52 द्वारों में 36 द्वारे केवल रामानंदियों के हैं. इस संप्रदाय के संत बैरागी भी कहे जाते हैं. इनके अपने अखाड़े भी हैं. यूं तो रामानंद सम्प्रदाय की शाखाएं औऱ उपशाखाएँ देश भर में फैली हैं. लेकिन [[अयोध्या]],[[चित्रकूट]],[[नाशिक]], [[हरिद्वार]] में इस संप्रदाय के सैकड़ो मठ-मंदिर हैं. [[काशी]] के [[पंचगंगा घाट]] पर अवस्थित [[श्रीमठ]],दुनिया भर में फैले रामानंदियों का मूल गुरुस्थान है. दूसरे शब्दों में कहें तो [[काशी]] का [[श्रीमठ]] हीं सगुण और निर्गुण रामभक्ति परम्परा और [[रामानंद सम्प्रदाय]] का मूल आचार्यपीठ है.वर्तमान में [[जगदगुरू रामानंदाचार्य स्वामी श्रीरामनरेशाचार्यजी महाराज]],श्रीमठ के गादी पर विराजमान हैं.वे न्याय शास्त्र के प्रकांड विद्वान हैं और संत समाज में समादृत हैं.
 
== भक्ति-यात्रा ==
आठ साल की अस्था में बालक का यज्ञोपवीत कराया गया। माघ शुक्ला द्वादशी के दिन विद्वानों ब्राह्मणों नें पलास का डंडा देकर काशी पढ़ने चलने के लिए कहा और कुछ देर बाद लौटने के लिए कहने लगे। लेकिन बालक रामानन्द लौटकर आने के लिए तैयार न हुए। तो उनको उनके पिता पंडित औंकार शर्मा के घर लेकर आए। पंडित औंकार शर्मा रामानन्द जी के मामा लगते थे। शर्मा जी उनकी बुद्घि चातुर्य को देखकर आनन्दित थे। कुमार ने कुछ ही दिनों में चारों वेद उपवेद को कण्ठस्थ कर उनके रहस्यों को समझ लिया।
स्वामी रामानंद ने भक्ति मार्ग का प्रचार करने के लिए देश भर की यात्राएं की.वे पुरी औऱ [[दक्षिण भारत]] के कई धर्मस्थानों पर गये और रामभक्ति का प्रचार किया.पहले उन्हें [[स्वामी रामनुज]] का अनुयाय़ी माना जाता था लेकिन [[श्रीसम्प्रदाय]] का आचार्य होने के बावजूद उन्होंने अपनी उपासना पद्धति में ऱाम और सीता को वरीयता दी. उन्हें हीं अपना उपास्य बनाया.राम भक्ति की पावन धारा को हिमालय की पावन ऊंचाईयों से उतारकर [[स्वामी रामानंद]] ने गरीबों और वंचितों की झोपड़ी तक पहुंचाया. वे भक्ति मार्ग के ऐसे सोपान थे जिन्होंने वैष्णव भक्ति साधना को नया आयाम दिया.उनकी पवित्र चरण पादुकायें आज भी श्रीमठ, काशी में सुरक्षित हैं, जो करोड़ों रामानंदियों की आस्था का केन्द्र है. स्वामीजी ने भक्ति के प्रचार में संस्कृत की जगह लोकभाषा को प्राथमिकता गी.उन्होंने कई पुस्तकों की रचना की जिसमें आनंद भाष्य पर टीका भी शामिल है.[[वैष्णवमताब्ज भाष्कर]] भी उनकी प्रमुख रचना है.
 
== चिंतनधारा ==
उनकी प्रसिद्घि सुनकर नित्य-प्रति अनेकों लोग बालक को देखने आते। एक दिन सिद्घ देवी आई। उन्होंने कहा- मैं कालीखोह से आई हूं। उन्होंने बालक से संस्कृत में पूछा- हे कुमार, कौनसी स्त्री है जो बड़ी चंचल है और चित्त में छुपी रहती हैं? वह नए-नए पदार्थ लाकर व्यक्तियों के सामने रखती है। परन्तु एक बार कोई उसे देख लेता है तो वह सदा के लिए लुप्त हो जाती है। इस पर बालक रामानन्द ने उत्तर दिया- उस स्त्री का नाम माया है। तब वृृद्घा ने कहा- उससे ब्याह कर लो। तब कुमार ने कहा- उसकी इच्छा करते ही मुँह काला हो जाता है। ब्याह के समय मनुष्य लंगड़ा हो जाता है। वह माया अन्धी भी है। मैं तो ब्रह्मचारी हूं। सारे जगत का कल्याण करूंगा। वृद्घा ने आर्शीवाद दिया- ऐसा ही होगा और अपने स्थान पर चली गई। वह माता साक्षात् कालिका देवी थीं।
भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य और संस्कृति के विकास में भागवत धर्म तथा वैष्णव भक्ति से संबद्ध वैचारिक क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. वैष्णव भक्ति के महान संतों की उसी श्रेष्ठ परंपरा में आज से लगभग सात सौ नौ वर्ष पूर्व स्वामी रामानंद का प्रादुर्भाव हुआ. उन्होंने श्री सीताजी द्वारा पृथ्वी पर प्रवर्तित विशिष्टाद्वैत(राममय जगत की भावधारा) सिद्धांत तथा रामभक्ति की धारा को मध्यकाल में अनुपम तीव्रता प्रदान की. उन्हें उत्तरभारत में आधुनिक भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाला और वैष्णव साधना के मूल प्रवर्त्तक के रूप में स्वीकार किया जाता है. एक प्रसिद्ध लोकोक्ति के अनुसार-
 
भक्ति द्रविड़ ऊपजी, लायो रामानंद.
यह समद सुनकर उनके पिता को बड़ा दुख हुआ। वह शांडिल्य गोत्र के एक ब्राह्मण की कन्या माधवी से वो विवाह तय कर चुके थे। इस बात को सुनकर वे कुमारिल भट्ट की मीमांसा लेकर आए। इसमे लिखा था- ‘‘एक बार विवाह अश्य करना चाहिए।‘‘विवाह न करने से अनेकों पाप लगते हैं। इस पर रामानन्द जी ने कहा- यह कर्मकाण्ड की बात है। जिसे ज्ञान और भक्ति की सिद्घि बाल्यकाल में ही हो जाए उसे कोई पाप नहीं लगता। ऐसा कहकर वह चुप हो गए। पिता ने समझा कि वे हंसी में ऐसा कह रहे हैं और विवाह की तैयारी में लग गए। कन्या माधवी ने स्वप्न में देखा- कोई देवता कह रहा है कि तूने रामानन्द से विवाह किया तो विधवा हो जाएगी। यह सुनकर उसके माता-पिता का उत्साह नष्ट हो गया। कन्या ने जीन भर अविवाहित रहने की ठान ली और कठोर तप करने लगी। अन्न त्याग कर केल लौंग खाकर रहने लगी। उसे दूसरा स्प्न हुआ- जिससे तुम्हारा विवाह होने वाला था, जाकर उसी से उपदेश लो तो तुम्हारा शीघ्र कल्याण होगा। दूसरे दिन प्रात:काल ही वह अपने परिवाार के साथ रामानन्द जी के सामने प्रस्तुत हुई और मन्त्र दीक्षा लेने की मांग करने लगी। रामानन्द जी के मना करने पर दूसरे लोग भी उसका समर्थन करने लगे। ज्यादा जिद करने पर रामानन्द जी ने अपने शंख को बजा दिया।
 
== रामानंद का समन्वयवाद ==
शंख ध्वनि सुनते ही उनकी समाधि लग गई। समाधि में उसे दस जन्मों का स्मरण हो आया। उसने कहा- मुझे भगवान से दिव्य ज्ञान मिल गया है मैं अभी भगान के धाम में जा रही हूं। यह कहते ही एक दिव्य विमान वहाँ प्रकट हुआ और वह विमान पर बैठ कर चली गई। इस पर लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके माता-पिता ने भी दीक्षा लेने की बात कही। इस पर रामानन्दाचार्य बहुत लज्जित महसूस करने लगे। वे वहीं बैठे-बैठे अन्तर्ध्यान हो गए। माता-पिता मूर्छित होकर गिर पड़े। उन्हें दिव्य धाम के दर्शन हुए। जहाँ कुमार रामानन्द दिव्य सिंहासन पर बैठे थे। बड़े-बड़े देता और ऋषि उनकी स्तुति कर रहे थे। जन्म में उन्हें भगान ने जो आर्शीाद दिया था ह भी उन्हें ज्ञात हो गया। मोह माया का बंधन छूट गया। माता-पिता ने उठ कर देखा, सभी लोग लिाप कर रहे थे।
तत्कालीन समाज में विभिन्न मत-पंथ संप्रदायों में घोर वैमनस्यता और कटुता को दूर कर हिंदू समाज को एक सूत्रबद्धता का महनीय कार्य किया. स्वामीजी ने मर्यादा पुरूषोत्तम [[श्रीराम]] को आदर्श मानकर सरल रामभक्ति मार्ग का निदर्शन किया. उनकी शिष्य मंडली में जहां एक ओर कबीरदास, रैदास, सेननाई और पीपानरेश जैसे जाति-पाति, छुआछूत, वैदिक कर्मकांड, मूर्तिपूजा के विरोधी निर्गुणवादी संत थे तो दूसरे पक्ष में अवतारवाद के पूर्ण समर्थक अर्चावतार मानकर मूर्तिपूजा करने वाले स्वामी अनंतानंद, भावानंद, सुरसुरानंद, नरहर्यानंद जैसे सगुणोपासक आचार्य भक्त भी थे. उसी परंपरा में कृष्णदत्त पयोहारी जैसा तेजस्वी साधक और गोस्वामी तुलसीदास जैसा विश्व विश्रुत महाकवि भी उत्पन्न हुआ. आचार्य रामानंद के बारे में प्रसिद्ध है कि तारक राममंत्र का उपदेश उन्होंने पेड़ पर चढ़कर दिया था ताकि सब जाति के लोगों के कान में पड़े और अधिक से अधिक लोगों का कल्याण हो सके. उन्होंने नारा दिया था-
 
जाति-पाति पूछे न कोई.
चारो ओर पित्ति देखकर पुण्य सदन जी ने शरीर त्यागने की इच्छा की लेकिन लोगों ने उन्हें धैर्य बंधाया। उसी समय योग बल से महर्षि राघानन्द हाँ प्रकट हुये। शिष्ठ मुनि के अतार राघानन्द जी के प्रकट होते ही समस्त नर नारी उनके चरणों में जा पड़े। उन्होने समाधि लगाकर लोगों की समस्या को समझा। े पुण्य सदन जी को सम्बोधित कर कहने लगे- आपका पुण्य महान है। आपको प्रभु ने रदान दिया था कि ह बारह साल तक े आपके घर में बाल लीला का आनन्द देंगे। अब ह समय पूरा हो गया है और प्रभु अपने लोक को चले गये है। इस पर लोगो ने महर्षि राघानन्द जी से एक बार दर्शन कराने की बात की तो राघानन्द जी ने बड़े राम यज्ञ की आश्यकता बताई। उस यज्ञ के बाद कुमार रामानन्द प्रकट हुये। महíष राघानन्द जी ने कुमार से कहा- आपने दर्शन देकर हमारे यज्ञ को सफल किया। अब आप इस भूमि पर धर्म में आई गिराट को मिटाने के लिए और यनों के अत्याचार को खत्म करने के लिए यहीं रहो। महर्षि राघानन्द जी ने उन्हें राम मंत्र की दीक्षा देकर धित ैष्ण संन्यास दिया। रामानन्द जी पंच गंगा घाट पर तपस्या करने लगे। लोगों के ज्यादा आग्रह पर ह शंख बजाकर लोगों की समस्या का समाधान कर देते। एक मुर्दा उनकी शंख ध्नि सुनकर जीति हो गया था। उन्हें जब ज्यादा क्षिोभ होने लगा तो उन्होंने शंख बजाना बंद कर दिया। े लोगों के आग्रह पर दिन में सिर्फ एक बार शंख बजाने लगे।
 
हरि को भजै सो हरि का होई.
आधी रात के पश्चात एक दिन जब े गंगा स्नान के लिए गये तो कलयुग राज उनके सामने प्रकट हुये। उनका पंच पात्र सोने का था। कलयुग राज उसमें जा बैठे। लेकिन आचार्य को इसका पता चल गया। जब आचार्य ने उनसे पूछा कि आप मेरी पूजा में ध्नि क्यों डालते हो तो कलयुग राज प्रत्यक्ष होकर राम मंत्र की दीक्षा मांगने लगे। रामानन्दाचार्य जी ने अपना स्भा छोड़ उन्हें मंत्र दीक्षा दी। रामानन्द जी ने अपने जीन काल में अनेकों दुखियों और पीड़ितों को अपने आर्शीाद से ठीक किया जिनमें राजकुमार का क्षय रोग, रैदास को दीक्षा, कबीर को आर्शीाद, नये योगी श्री हरि नाथ की पीड़ा, ब्राह्मण कन्या बीनी का उद्घार जसी अनेकों चमत्कारिक घटनायें शामिल थीं। गगनौढ़गढ़ के राजा पीपाजी को मंत्र दीक्षा देकर उन्होंने ैष्णब सन्त बना दिया। उन्होंने अपने जीन काल में यनों से हिन्दुओं की रक्षा की। उनके अत्याचारों को रुकाने के लिए दिल्ली के बादशाह से सन्धि की। आचार्य ने धर्म प्रचार के लिए काशी से चलकर गगनौरगढ़, चित्रकूट, जनकपुर, गंगासागर, जगन्नाथपुरी आदि स्थानों की यात्रा की। आज उन्हीं के तपोबल से रामानन्द सम्प्रदाय का शिाल पंथ चल रहा है।
 
आचार्यपाद ने स्वतंत्र रूप से [[श्रीसंप्रदाय]] का प्रवर्तन किया. इस संप्रदाय को रामानंदी अथवा वैरागी संप्रदाय भी कहते हैं. उन्होंने बिखरते और नीचे गिरते हुए समाज को मजबूत बनाने की भावना से भक्ति मार्ग में जाति-पांति के भेद को व्यर्थ बताया और कहा कि भगवान की शरणागति का मार्ग सबके लिए समान रूप से खुला है-
== श्री रामानंदाचार्य : कबीर तथा तुलसी के प्रेरक ==
श्री रामानंद मध्ययुगीन उदार चेतना के जन्मदाता, भक्ति आंदोलन के प्रवर्तक, तथा तत्कालीन धार्मिक तथा समाजिक चेतना के मार्गदर्शक थे। उन्होंने भारत की सांस्कृतिक जीवन धारा को अक्षुण्य प्रवाहित करने में महत्वपूर्ण योगदान किया। वे वास्तव में कबीर तथा तुलसी के प्रेरणास्रोत थे। श्री रामानंद जिस युग में हुए वह भारत के इतिहास में धर्म, संस्कृति तथा समाज के हृ◌ास का काल था। इस्लाम की आंधी से भारतीय समाज अभी संभल न पाया था। तैमूर के आक्रमण से लेकर बाबर के आक्रमण तक समूचे समाज में राजनीतिक और सांस्कृतिक पराभव का काल था। श्री रामानंद की एक महत्वपूर्ण देन रामभक्ति को एक व्यापक सांस्कृतिक आंदोलन का आधार बनाकर राष्ट्रीय जागरण करना था। यद्यपि अलवार साहित्य में रामभक्ति का वर्णन दक्षिण भारत में ९वीं शताब्दी के प्रारंभ में हो गया था। परंतु उत्तर भारत में इसका प्रचार मुख्यत: ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ। रामानुज ने ग्यारहवीं शताब्दी में कृष्ण भक्ति की उपासना का प्रचलन किया, वहां श्री रामानंद को आगे चलकर उत्तरी भारत में रामभक्ति का श्रेय प्राप्त है। शीघ्र ही रामभक्ति की गंगा देश के एक कोने से दूसरे कोने तक प्रवाहित होने लगी। राम के नाम ने अनेक सामाजिक और सांस्कृतिक व्याधियों के लिए रामबाण औषधि का काम किया। रामभक्ति उत्तर तथा दक्षिण में सम्पूर्ण देश की एकता को आबद्ध करने में सहायक सिद्ध हुआ। इसने समाज में आशा, आत्म विश्वास तथा स्वाभिमान का भाव जाग्रत किया।
 
सर्व प्रपत्तिधरकारिणो मता:
श्री रामानंद ने रामभक्ति के माध्यम से एक सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया। सामाजिक विषमताओं और बाहरी आडम्बरों में जकड़े समाज में पुनरुत्थान की ओर पहला कदम बढ़ाने वाले रामानंद थे। रामभक्ति के माध्यम से उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों में सामाजिक समरसता तथा समन्वय की भावना पैदा करने का एक सफल प्रयास किया। श्री रामानंद ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ श्री वैष्णवमताज भास्कर में प्रचलित ऊंच-नीच की भावना पर क्रूर प्रहार किया।
 
कहकर उन्होंने किसी भी जाति-वरण के व्यक्ति को राममंत्र देने में संकोच नहीं किया. चर्मकार जाति में जन्मे रैदास और जुलाहे के घर पले-बढ़े कबीरदास इसके अनुपम उदाहरण हैं.
श्री रामानंद की कथनी और करनी के एकात्मक भाव के प्रभाव से जहां एक ओर कबीर तथा अनेकानेक शिष्य रामानंद जी की वाणी के संदेशवाहक बने, वहीं दूसरी ओर रामभक्ति के महान उपासक तुलसी उनके प्रचारक बने। एक ओर कबीर ने ‘जात-पांत‘ पूछे न कोई, हरि को भजे सो हरि का होई‘ का दिव्य संदेश दिया, तो तुलसी ने दूसरी ओर ‘सिया राम मय सब जग जानी‘ का अमृत वचन बोला। वस्तुत: रामानंद वह कर पाये जो भारत के अनेक विद्वान तथा अनेक संत महापुरुष न कर सके। रामभक्ति का यह दिव्य शंखनाद समूचे समाज को जोड़ने का मंत्र बन गया।
 
== धार्मिक अवदान ==
साथ ही श्री रामानंद ने एक प्रभावी तथा अद्भुत शिष्य परंपरा का निर्माण किया। विश्व के समूचे इतिहास में किसी भी व्यक्ति ने उतने श्रेष्ठ तथा समर्पित शिष्यों का निर्माण नहीं किया जितना रामानंद ने। रामानंद के बारह प्रसिद्ध शिष्य भक्ति आंदोलन के मुख्य प्रचारक बने। उनकी रामभक्ति की धारा दो प्रवाहों में विभाजित हुई थी। एक निराकार निर्गुण रामभक्ति में तथा दूसरी साकार सगुण अवतारी रामभक्ति में। एक का प्रतिनिधित्व किया कबीर ने तथा दूसरे को व्यापक स्वरूप प्रदान किया तुलसी ने।
मध्ययुगीन धर्म साधना के केंद्र में स्वामी जी की स्थिति चतुष्पथ के दीप-स्तंभ जैसी है. उन्होंने अभूतपूर्व सामाजिक क्रांति का श्रीगणेश करके बड़ी जीवटता से समाज और संस्कृति की रक्षा की. उन्हीं के चलते उत्तरभारत में तीर्थ क्षेत्रों की रक्षा और वहां सांस्कृतिक केंद्रों की स्थापना संभव हो सकी. उस युग की परिस्थितियों के अनुसार, वैरागिनी साधु समाज को अस्त्र-शस्र से सज्जित अनी के रूप में संगठित कर तीर्थ-व्रत की रक्षा के लिए, धर्म का सक्रिय मूर्तिमान स्वरूप खड़ा किया. तीर्थस्थानों से लेकर गांव-गांव में वैरागी साधुओं ने अखाड़े स्थापित किए. मूल्य ह्रास की इस विषम अवस्था में भी संपूर्ण संसार में रामानंद संप्रदाय के सर्वाधित मठ, संत, रामगुणगान, अखंड रामनाथ संकीर्तन आज भी व्यवस्थित हैं और सर्वत्र आध्यामिक आलोक प्रसारित कर रहे हैं. वैष्णवों के बावन द्वारों में सर्वाधिक सैंतीस द्वारे इसी संप्रदाय से जुड़े हैं।
इसके अतिरिक्त भी फैली इसकी शाखा, प्रशाखा और अवान्तर शाखाएं जैसे- [[रामस्नेही]], [[कबीरदासी]], [[घीसापंथी]], [[दादूपंथ]] आदि नामों से इस संप्रदाय की मूलभावना की संवाहिका बनी हैं. यह स्वामी रामानंद के ही व्यक्तित्व का प्रभाव था कि हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य, शैव-वैष्णव विवाद, वर्ण-विद्वेष, मत-मतांतर का झगड़ा और परस्पर सामाजिक कटुता बहुत हद तक कम हो गई. उनके ही यौगिक शक्ति के चमत्कार से प्रभावित होकर तत्कालीन मुगल शासक [[मोहम्मद तुगलक]] संत कबीरदास के माध्यम से स्वामी रामानंदाचार्य की शरण में आया और हिंदुओं पर लगे समस्त प्रतिबंध और जजियाकर को हटाने का निर्देश जारी किया. बलपूर्वक इस्लाम धर्म में दीक्षित हिंदुओं को फिर से हिंदू धर्म में वापस लाने के लिए परावर्तन संस्कार का महान कार्य सर्वप्रथम स्वामी रामानंदाचार्च ने ही प्रारंभ किया. इतिहास साक्षी है कि [[अयोध्या]] के राजा [[हरिसिंह]] के नेतृत्व में चौंतीस हजार राजपूतों को एक ही मंच से स्वामीजी ने स्वधर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया था. ऐसे महान संत, परम विचारक, समन्वयी महात्मा का प्रादुर्भाव [[तीर्थराज प्रयाग]] में एक [[कान्यकुब्ज ब्राह्मण]] परिवार में हुआ था. जन्मतिथि को लेकर मतभेद होने के बावजूद रामानंद संप्रदाय में मान्यता है कि आद्य जगद्गुरू का प्राकट्य माघ कृष्ण सप्तमी संवत् 1356 को हुआ था. इनके पिता का नाम पंडित पुण्य सदन शर्मा और माता का नाम सुशीला देवी था. धार्मिक संस्कारों से संपन्न पिता ने रामानंद को काशी के श्रीमठ में गुरू राघवानंद के सानिध्य में शिक्षा ग्रहण के लिए भेजा. कुशाग्रबुद्धि के रामानंद ने अल्पकाल में ही सभी शास्त्रों, पुराणों का अध्ययन कर प्रवीणता प्राप्त कर ली. गुरू राघवानंद और माता-पिता के दबाव के बावजूद उन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार नहीं किया और आजीवन विरक्त रहने का संकल्प लिया. ऐसे में स्वामी रामानंद को [[रामतारक मंत्र]] की दीक्षा प्रदान की. रामानंद ने श्रीमठ की गुह्य साधनास्थली में प्रविष्ट हो राममंत्र का अनुष्ठान तथा अन्यान्य तांत्रिक साधनाओं का प्रयोग करते हुए घोर तपश्चर्या की. योगमार्च की तमाम गुत्थियों को सुलझाते हुए उन्होंने अष्टांग योग की साधना पूर्ण की. दीर्घायुष्य प्राप्त करने के कारण जगद्गुरू राघवानंद ने अपने तेजस्वी और प्रिय शिष्ट रामानंद को श्रीमठ पीठ की पावन पीठ पर अभिषिक्त कर दिया. अपने पहले संबोधन में ही जगदगुरू रामानंदाचार्य ने हिंदू समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं अंधविश्वासों को दूर करने तथा परस्पर आत्मीयता एवं स्नेहपूर्ण व्यवहार के बदौलत धर्म रक्षार्थ विराट संगठित शक्ति खड़ा करने के संकल्प व्यक्त किया. काशी के परम पावन पंचगंगा घाट पर अवस्थित श्रीमठ, आचार्यपाद के द्वारा प्रवाहित श्रीराम प्रपत्ति की पावनधारा के मुख्यकेंद्र के रूप में प्रतिष्ठित होकर उसी ओजस्वी परंपरा का अनवरत प्रवर्तन कर रहा है. आज भी श्रीमठ आचार्यचरण की परिकल्पना के अनुरूप उनके द्वारा प्रज्ज्वलित दीप से जनमानस को आलोकित कर रहा है. यही वह दिव्यस्थल है, जहां विराजमान होकर स्वामीजी ने अपने परमप्रतापी शिष्यों के माध्यम से अपनी अनुग्रहशक्ति का उपयोग किया था. रामानंदाचार्च पीठ का पवित्र केंद्र सारे देश में फैले रामानंद संप्रदाय का मुख्यालय है. श्रीमठ में अवस्थित रामानंदाचार्च की चरणपादुका दुनियाभर में बिखरे रामानंदी संतों, तपस्वियों एवं अनुयायियों की श्रद्धा का अन्यतम बिंदु है. यह परम सौभाग्य और संतोष का विषय है कि श्रीमठ के वर्तमान पीठासीन आचार्य स्वामी [[रामनरेशाचार्यजी]] भी स्वामी रामानंदाचार्च की प्रतिमूर्ति जान पड़ते हैं. उनकी कल्पनाएं, उनका ज्ञान, उनकी वग्मिता और सबसे अच्छी उनकी उदारता और संयोजन चेतना ऐसी है कि यह विश्वास किया जाता है कि स्वामी रामानंद का व्यक्तित्व कैसा रहा होगा. वर्तमान जगद्गुरू रामानंदाचार्च पद प्रतिष्ठित स्वामी रामनरेशाचार्य जी महाराज के सत्प्रयासों का नतीजा है कि श्रीमठ से कभी अलग हो चुकी कबीरदासीय, रविदासीय, रामस्नेही, प्रभृति परंपराएं वैष्णव के सूत्र में बंधकर श्रीमठ से एकरूपता स्थापित कर रही है. कई परंपरावादी मठ मंदिरों की इकाईयां श्रीमठ में विलीन हो रही हैं. तीर्थराज प्रयाग के दारागंज स्थित आद्य जगद्गुरू रामनंदाचार्य का प्राकट्यधाम भी इनकी प्रेरणा से फिर भव्य स्वरूप में प्रकट हुआ है. स्वामी रामानंद को रामोपासना के इतिहास में एक युगप्रवर्तक आचार्य माना जाता है. उन्होंने श्रीसंप्रदाय के विशिष्टाद्वैत दर्शन और प्रपतिसिद्धांत को आधार बनाकर रामावत संप्रदाय का संगठन किया. श्रीवैष्णवों के नारायण मंत्र के स्थान पर रामतारक अथवा षडक्षर राममंत्र को सांप्रदायिक दीक्षा का बीजमंत्र माना. बाह्य सदाचार की अपेक्षा साधना में आंतरिक भाव की शुद्धता पर जोर दिया, छुआछूत, ऊंच-नीच का भाव मिटाकर वैष्णव मात्र में समता का समर्थन किया. नवधा से परा और प्रेमासक्ति को श्रेयकर बताया. साथ-साथ सिद्धांतों के प्रचार में परंपरापोषित संस्कृत भाषा की अपेक्षा हिंदी अथवा जनभाषा को प्रधानता दी. स्वामी रामानंद ने प्रस्थानत्रयी पर विशिष्टाद्वैत सिद्धांतनुगुण स्वतंत्र आनंद भाष्य की रचना की. तत्व एवं आचारबोध की दृष्टि से वैष्णवमताब्ज भास्कर, श्रीरामपटल, श्रीरामार्चनापद्धति, श्रीरामरक्षास्त्रोतम जैसी अनेक कालजयी मौलिक ग्रंथों की रचना की. स्वामी रामानंद के द्वारा दी गई देश-धर्म के प्रति इन अमूल्य सेवाओं ने सभी संप्रदायों के वैष्णवों के हृदय में उनका महत्व स्थापित कर दिया. भारत के सांप्रदायिक इतिहास में परस्पर विरोधी सिद्धांतों तथा साधना-पद्धतियों के अनुयायियों के बीच इतनी लोकप्रियता उनके पूर्व किसी संप्रदाय प्रवर्तक को प्राप्त न हो सकी. महाराष्ट्र के नाथपंथियों ने ज्ञानदेव के पिता विट्ठल पंत के गुरू के रूप में उन्हें पूजा, अद्वैत मतावलंबियों ने ज्योतिर्मठ के ब्रह्मचारी के रूप में उन्हें अपनाया. बाबरीपंथ के संतों ने अपने संप्रदाय के प्रवर्तक मानकर उनकी वंदना की और कबीर के गुरू तो वे थे ही, इसलिे कबीरपंथियों में उनका आदर स्वाभाविक है. स्वामी-रामानंद के व्यक्तित्व की इस व्यपाकता का रहस्य, उनकी उदार एवं सारग्राही प्रवृति और समन्वयकारी विचारधारा में निहित है. निश्चय हीं उनके विराट व्यक्तित्व एवं व्यापक महत्ता के अनुरूप कतिपय आर्षग्रंथ एवं संत-साहित्य में उल्लेखित उनके रामावतार होने का वर्णन अक्षरश: प्रमाणित होता है. रामनंद: स्वयं राम: प्रादुर्भूतो महीतले।
 
== रचना संसार ==
क्रांतिकारी कबीर ने रामानंद से निर्गुण राम तथा भक्ति का रहस्य सीखा। यद्यपि राम की अवतारवाद की धारणा को उन्होंने स्वीकार नहीं किया, परंतु ईश्वर को व्रह्म के रूप में स्वीकार किया। इसके प्रमाण श्री गुरूग्रंथ साहब में उनके एक पद से होता है जो उसमें दिया गया है। कबीर पर रामानंद का प्रभाव प्राय: सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है कि उन्होंने भक्ति के लिए अभय का पाठ रामानंद से ही सीखा। कबीर ग्रंथावली में राम का नाम २१७ बार आया है, कबीर की भक्ति रामानंद की भांति जाति भेद अथवा वर्ग भेद से ऊपर है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है यदि रामानंद व कबीर हिन्दू समाज के उपेक्षित जनों में एक आशा और भरोसे की नींव न डालते तो उनमें से अधिकतर मुसलमान हो गए होते। महाकवि तुलसी ने रामानंद की भक्ति तथा अद्वैत वेदांत का समन्वय कर सगुण रामभक्ति का पाठ विश्व को पढ़ाया। वस्तुत: समाज के प्रबुद्ध विचार तथा जन सामान्य के विचारों का अद्भुत समन्वय तुलसी के दर्शन में दृष्टिगोचर होता है। जहां शंकर का अद्वैतवाद प्रबुद्ध विचार का परिचायक है, वहां रामानंद के भक्ति संबंधी विचारों में जन सामान्य की भावना का प्रतिनिधित्व है। दोनों का अद्भुत समन्वय तुलसी में दिखलाई देता है। इसी कारण उनका प्रसिद्ध ग्रंथ रामचरितमानस विश्व के महानतम ग्रंथों में माना जाता है। धर्म की मर्यादा को महत्व देते हुए उन्होंने भक्ति की धारा प्रभावित की।
स्वामी रामानन्दाचार्य द्वारा विरचित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है:
 
(1) [[वैष्णवमताब्ज भास्कर]]: (संस्कृत), <br />
अत: निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि श्री रामानंदाचार्य को ही यह श्रेय है कि उन्होंने प्रेम और रामभक्ति को उत्तर भारत में जनव्यापी एक सांस्कृतिक आंदोलन का स्वरूप प्रदान किया। रामभक्ति के माध्यम से उन्होंने देश में नव जागरण किया। उन्होंने भारतीय समाज में आत्मविश्वास व सामाजिक चेतना जगाई। इसके फलस्वरूप धर्म मत परिवर्तन की प्रक्रिया अवरुद्ध हुई। जन भाषा के माध्यम से उनके द्वारा फैला यह आंदोलन शीघ्र ही भक्ति आंदोलन के रूप में व्यक्त हुआ और जिसे कबीर तथा तुलसी ने रक्षात्मक के साथ-साथ आक्रामक स्वरूप प्रदान किया। वही रामभक्ति की अविरल धारा आज भी भारतीय समाज को समेटे हुए प्रेरणा व राष्ट्रीय जागरण का स्रोत बनी हुई है।
(2) [[श्रीरामार्चनपद्धतिः]] (संस्कृत), <br />
(3) [[रामरक्षास्तोत्र]] (हिन्दी), <br />
(4) [[सिद्धान्तपटल]] (हिन्दी), <br />
(5) [[ज्ञानलीला]] (हिन्दी), <br />
(6) [[ज्ञानतिलक]] (हिन्दी), <br />
(7) [[योगचिन्तामणि]] (हिन्दी) <br />
(7) [[satnami panth]] (हिन्दी) <br />
 
'आनन्दभाष्य' नाम से जगदगुरु रामानन्दाचार्य जी ने प्रस्थानत्रयी का [[भाष्य]] लिखा है।
[[श्रेणी:भक्ति आन्दोलन]]
 
=बाहरी कड़ी ==
* [http://www.india-forum.com/forums/index.php?showtopic=1891&pid=77785&mode=threaded&show=&st=& ]
* [http://www.ramanandacharya.blogspot.com/2008_12_01_archive.html रामानन्दाचार्य पर हिन्दी ब्लॉग]
 
[[श्रेणी:हिन्दू आध्यात्मिक नेता]]