"भवभूति": अवतरणों में अंतर
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यह एक नाटक ही कवि की प्रतिमा और पांडित्य की अभिव्यक्ति के लिए अलं है। इन्होंने कहा है - 'एको रस: करुण एव' (करूणरस ही एकमात्र रस है)। इस नाटक में अनेक रसों का रूप धारण करके करुण रस सहृदयों के हृदय पर अपना प्रभाव छोड़ जाता है। अपने नाटक में प्रेम के जिस उच्च और आदर्श रूप की कवि ने प्रतिष्ठा की है वह अवस्था के साथ ढलता नहीं और भी पूर्ण तथा उदात्त रूप प्राप्त करता है। संभवत: यही कारण है कि कवि ने नारी के बाह्य सौंदर्य के वर्णन की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया है और उसके अंतःसौंदर्य को ही उद्घाटित किया है। प्रेम की इस पवित्रता के साथ विश्वास की महिमा, हृदय की महत्ता, भाषा क गंभीरता और भावों के तरंगायित क्रीड़ाविलास में यह नाटक साहित्य में 'एको रस: करुण एव' के समान एक ही है।
पांडित्य और प्रतिभा के घनी भवभूति के नाटकों में शास्त्रों का व्यापक ज्ञान, भाषा की प्रौढ़ता, भाव की गरिमा और निरीक्षण की सूक्ष्मता के कारण सरसता के स्थान पर गांभीर्य और उदात्तता विशेष प्राप्त होती है। संभवत: इन कारणों से उस समय कवि की रचनाएँ अधिक लोकप्रिय न हो सकीं और उनके नाटकों का उस समय किसी राजसभा में अभिनय न हो सका। [[उज्जयिनी]] में महाकालयात्रा के अवसर पर एकत्र पुरवासियों के समक्ष की उनके नाटकों का अभिनय हुआ और तदनंतर वे यशोवर्मा के राज्य में समादृत हुए। मालतीमाधव की प्रस्तावना में उनकी गर्वोक्ति 'ये नाम केचिदिह न: प्रथयन्त्यवज्ञाम्' (जो कुछ लोग मेरी अवज्ञा कर रहे
== बाहरी कड़ियाँ ==
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