"संशयवाद": अवतरणों में अंतर
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== परिचय ==
संशयवाद को [[आंग्ल भाषा]] में स्कैप्टिसिज़्म (Scepticism) कहते हैं। स्कैप्टिसिज्म का श्रीगणेश ईसा के पूर्व सन् 440 में [[यूनान]] देश के [[सोफिस्ट]] (Sofist) कहलानेवाले तर्कप्रधान व्यक्तियों से हुआ बतलाया जाता है। परंतु उनका संशयवाद सामान्य रूप का था। सुव्यवस्थित सिद्धांत के रूप में तो इसका आरंभ ऐलिस (Elis) के पिरो (Pyrrho) नामक प्रख्यात विचारक से, ईसा के तीन सौ वर्ष पूर्व, हुआ। पिरो ने वास्तविक ज्ञान को स्पष्ट शब्दों में असंभव बतलाया है। फिलियस का टाइमन (Timonof Philius 250 B.C.) उसका प्रमुख शिष्य था। पिरो के कुछ अनुयायियों ने तो, जिनमें सेक्सटस ऐंपिरीकस (Sextus Empiricus) का नाम विशेषतया उल्लेखनीय है, संशयवदी विश्वास को इस सीमा तक निभाया कि वे स्वयं इस बाद को भी संशय की दृष्टि से देखने लगे। इन संशयवादियों के अनुसार इच्छाओं और निराशाओं से समुद्भूत हमारे सरे ही दु:खों की उत्पत्ति पदार्थ विषयक हमारे परामर्शो की अप्रामाणिता से ही होती है। मध्यकालीन पाश्चात्य संशयवादियों में पैस्कल (Pascal) तथा आधुनिक संशयवादियों में [[डेविड ह्यूम|ह्यूम]] (David Hume) अधिक प्रसिद्ध है। पैस्कल का कहना था कि संसार संबंधी कोई भी निश्चित या संतोषप्रद सिद्धांत बुद्धि द्वारा स्थापित नहीं किया जा सकता
भारतवर्ष के कुछ संशयवादियों का उल्लेख "[[श्रामण्यफलसूत्र]]" आदि कुछ बौद्ध ग्रंथों में मिलता है। उदाहरणार्थ, अजितकेसकंबली नामक एक विचारक का कहना था कि यथार्थ ज्ञान कभी संभव नहीं
चाहे संशयवादी स्वयं कुछ भी कहें, संशय की मानसिक अवस्था कोई सुख की अवस्था नहीं होती ("न सुखं संशयात्मन:" गीता, अ. 4, श्लोक 40)। और पूर्ण रूप से संशयवादी होना अत्यंत कठिन ही नहीं, किंतु असंभव है।
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