"सत्य": अवतरणों में अंतर
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== अनुरूपता का सिद्धान्त (Correspondence theory)==
अन्य चेतनों का हमें स्पष्ट बोध नहीं हो सकता। कुछ लोग कहते हैं कि अनुरूपता के आधार पर हम उनके अस्तित्व में विश्वास करते हैं। परंतु ऐसा अनुमान करने की योग्यता प्राप्त होने से पहले ही बच्चा ऐसा विश्वास करता है। संभवत: वह सभी पदार्थों को अपने नमूने का समझता है
निर्णायों के सत्य असत्य का प्रश्न प्राय: प्राकृतिक तथ्यों के संबंध में उठता है। मैं कहता हूँ "मेज पर पुस्तक पड़ी है" इस वाक्य के यथार्थ होने का अर्थ क्या है?
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मैं ख्याल करता हूँ कि मुझसे अलग, बाहर, मेज और पुस्तक विद्यमान हैं और उनमें एक विशेष संबंध है। यदि स्थिति वास्तव में ऐसी ही है तो मेरा वाक्य सत्य है; ऐसा न होने की हालत में असत्य है। यह "सत्य का अनुरूपता सिद्धांत" है।
अनुरूपता का सिद्धांत वस्तुवाद से गठित है
अनुरूपता सिद्धांत के अनुसार हम अपने विचार और बाह्य स्थिति में समानता देखते हैं। अपने विचारों का तो हमें स्पष्ट बोध होता है, पर बाहर की स्थिति को हम कैसे जानते हैं? हम दो विचारों को साथ रखकर उनकी समानता असमानता की बाबत कह सकते हैं, परंतु बाह्य पदार्थ तो हमारी चेतना में प्रविष्ट ही नहीं हो सकता। उसकी तुलना किसी विचार से कैसे करेंगे? अनुरूपतावाद में यह मान लिया जाता है कि बाह्य स्थिति का ज्ञान हमें पहले से ही है। यदि पहले ही ऐसा ज्ञान हो तो निर्णय के सत्य असत्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता। हमारी स्थिति ऐसे मनुष्य की स्थिति है जिसने ताजमहल के चित्र देखे हैं, परंतु ताजमहल को नहीं देखा
== अविरोध का सिद्धान्त (Coherence theory of truth)==
अध्यात्मवाद कहता है कि वस्तुवाद के पास इस आपत्ति से बचने का कोई साधन नहीं। सत्य के मापक की खोज स्वयं अनुभव में करनी चाहिए। अनुभव में "आंतरिक अविरोध" सत्य की कसौटी है। अपने पिछले दृष्टांत को फिर लें। "पुस्तक मेज पर पड़ी है", मैं यह कैसे जानता हूँ? आंख ऐसा बताती है। यह एक अनुभव है। परंतु आँख कभी कभी धोखा भी दे देती है। मैं हाथ से पुस्तक और मेज को छूता हूँ। यह दूसरा अनुभव पहले अनुभव की पुष्टि करता है। हाथ से खटकाता हूँ तो जो शब्द सुनाई देता है, वह पुस्तक और मेज से निकला प्रतीत होता है। तीसरा अनुभव पहले दोनों अनुभवों की पुष्टि करता है दूसरे भी पुस्तक को मेज पर पड़ा देखते हैं। अनुरूपता सत्य का चिह्न है, परंतु यह अनुरूपता विचार और बाह्य पदार्थ के दरमियान नहीं, अनुभव के विविध भागों के दरमियान होती है। आकर्षणनियम के अनुसार प्रत्येक पदार्थ अन्य पदार्थों से आकृष्ट होता है
इस विवरण से ऐसा लगता है कि सत्य अनेक सत्य वाक्यों का समुदाय है
जिन वाक्यों को हम सत्य कहते हैं, वे दो प्रकार के होते हैं- वैज्ञानिक नियम संबंधी और तथ्य संबंधी। "दो और दो चार होते हैं," यदि किसी त्रिकोण के भुज बराबर हों, तो उसके कोण भी बराबर होंगे। - यह वाक्य हर कहीं और सदा सत्य हैं; देश और काल का भेद उनके सत्य होने से असंगत है। "भारत 1947 ई. में स्वाधीन हुआ।" 1947 ई. से पहले यह वाक्य कहा ही नहीं जा सकता था, परंतु अब यह भी सदा के लिए सत्य है।
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सत्य का तीसरा सिद्धांत "[[व्यवहारवाद]]" या "[[प्रैग्मेटिज्म]]" के नाम से प्रसिद्ध है। अपने आधुनिक रूप में यह अमरीका की देन है। वास्तव में व्यवहारवाद कोई सिद्धांत नहीं, एक मनोवृत्ति है जो सामान्य से विशेष को, स्थिरता से परिवर्तन को, चिंतन से क्रिया को अधिक महत्व देती है। इस विचार के प्रसार में चाल्र्स पीअर्स, विलियम जेम्स और जान डियूई का विशेष भाग है। पीअर्स नैयामिक था, जेम्स मनोवैज्ञानिक था, डियूई की अभिरुचि नीति और राजनीति में थी। पीअर्स ने प्रत्ययों के "अर्थ" को स्पष्ट करने में व्यवहारवाद की विधि का प्रयोग किया, जेम्स ने "सत्य का स्वरूप निर्णीत करने में इसे बर्ता, डियूई ने "भद्र" पर इसे लागू किया। इस तरह वे न्याय, सौंदर्यशास्त्र और नीति को अनुभववाद के निकट ले आए।
पीअर्स ने नए विचार को "प्रैग्मेटिस्म" का नाम दिया। उसकी दृढ़ धारणा थी कि दर्शन को विज्ञान के दृष्टिकोण और उसकी विधि को अपनाना चाहिए। दर्शन के लिए सत्य ज्ञान निरपेक्ष या समग्र का दोषरहित ज्ञान है; विज्ञान की दृष्टि में ऐसा ज्ञान मानव बुद्धि के लिए अप्राप्य है। हमे सापेक्ष ज्ञान से संतुष्ट होना चाहिए, यही हमारे लिए काम की वस्तु है। दर्शन का प्रमुख काम स्वीकृत मान्यताओं को सिद्ध करना रहा है, विज्ञान के लिए आविष्कार प्रमुख है। नवीन वैज्ञानिक विधि में आगमन और निगमन दोनों का समन्वय होता है। कुछ उदाहरणों की नींव पर प्रतिज्ञा की जाती है, उसे सत्य मानकर निष्कर्ष निकाले जाते हैं
जेम्स ने अमूर्त सत्य को नहीं, अपितु विशेष विश्वासों के सत्य को अपने विवेचन का विषय बनाया। उसके विचारानुसार सत्य कोई स्थायी वस्तु नहीं जिसे देखना ही हमारा काम है, यह तो क्रिया में बनता है। अपनी पुस्तक "व्यवहारवाद" में वह कहता है-
"व्यवहारवाद, मूल रूप में, उन दार्शनिक विवादों को मिटाने का नियम है जो इसके बिना अंतरहित होते। जगत् एक है या अनेक? स्वाधीन है या पराधीन? प्राकृतिक है या आध्यात्मिक? ये विचार ऐसे हैं जिनमें एक या दूसरा सत्य या असत्य हो सकता है
जेम्स से बहुत पहले इसी भाव को प्रकट करते हुए [[रामानुज]] ने कहा था-"व्यवहार योग्यता सत्यम्"।
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