"सैनिक कानून": अवतरणों में अंतर

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इस प्रकार धारा 358 के अंतर्गत जब तक संकटकालीन स्थिति कायम रहती है, कार्यपालिका को धारा 19 की व्यवस्थाओं के उल्लंघन का अधिकार रहता है। राष्ट्रपति द्वारा धारा 359 (1) के अंतर्गत संकटकालीन अवधि तक या आदेश में उल्लिखित अवधि तक के लिए दूसरे मौलिक अधिकार भी स्थगित किए जा सकते हैं।
 
राष्ट्रपति के अधिकार पर केवल इतना ही नियंत्रण होता है कि संकटकाल की घोषणा स्वीकृति के लिए संसद के समक्ष प्रस्तुत की जानी चाहिए। इस घोषणा को संसद के समक्ष प्रस्तुत करने की कोई निश्चित अवधि नहीं होती, और न प्रस्तुत किए जाने पर किसी प्रकार का दंड का प्राविधान ही है, किंतु घोषणा के प्रसारित होने के दो मास पश्चात् वह स्वत: समाप्त हो जाती है। एक घोषणा के समाप्त होने पर फिर दूसरी घोषणा जारी करने में राष्ट्रपति पर कोई प्रतिबंध नहीं है। धारा 359 (1) के अंतर्गत जारी किया गया राष्ट्रपति का आदेश संसद के समक्ष यथाशीघ्र प्रस्तुत होना चाहिए। इस प्रस्तुतीकरण के समय का निर्णय करना कार्यपालिका पर छोड़ दिया गया है क्योंकि यदि राष्ट्रपति का आदेश संसद के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया जाता तो भी इसका प्रभाव कम नहीं होता, और न ही प्रस्तुत करने के अभाव में कोई वैधानिक कार्रवाई की व्यवस्था है।
 
सन् 1962 के [[भारत पर चीन का आक्रमण|चीनी आक्रमण]] के दौरान, राष्ट्रपति ने संविधान की 14, 21 और 22 धाराओ का निष्पादन स्थगित करके संकटकालीन स्थिति की घोषणा की थी। हालात बहुत कुछ सामान्य हो जाने के बाद भी घोषणा को रद्द करने में अत्यधिक विलंब किए जाने पर सार्वजनिक रूप से बड़ी आलोचना हुई थी। इस तथ्य ने संकटकालीन अधिकारों के संबंध में कुछ और संरक्षण लगाने की आवश्यकता प्रगट कर दी है, क्योंकि ऐसा न होने पर कोई भी अविवेकी कार्याधिकारी अपनी सुविधा के लिए संविधान का उन्मूलन करके फौजी कानून को स्थायी कर दे सकता है। जर्मनी के उस वाइमर संविधान को हम अभी भूले नहीं हैं, जिसके अनुसार कानूनी शासन को स्थायी न बनने देने के लिए तरह तरह की युक्तियों का सहारा लिया गया था। भारत में भी इस प्रकार की संभावनाओं के प्रति उदासीन रहना उचित न होगा।