"नुसरत फ़तेह अली ख़ान": अवतरणों में अंतर
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'''नुसरत फतह अली खान''' सूफी शैली के प्रसिद्ध कव्वाल थे। इनके गायन ने [[कव्वाली]] को [[पाकिस्तान]] से आगे बढ़कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।
== जीवन परिचय ==
इनका जन्म [[१३ अक्टूबर]] [[१९४८]] को [[पाकिस्तान]] में हुआ। इनके १२५ एलबम निकल चुके हैं। इनका नाम गिनिज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज है।..उन दिनों मैं राजस्थान की यात्रा पर था, जहाँ एक बस में मैंने उसके घटिया ऑडियो सिस्टम में खड़खड़ के बीच, "आफरीन-आफरीन.." सुना था। ज़्यादा समझ में नहीं आया पर धुन कहीं अन्दर जाकर समां गई- वहीँ गूँजती रही. फिर जब उदयपुर की एक म्यूजिक शाप पर फिर उसी धुन को सुना जो अबकी बार कहीं ज़्यादा बेहतर थी तो एक नशा-सा छा
मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि जब नुसरत साहब गाते होगें, खुदा भी वहीँ-कहीं आस-पास ही रहता होगा, उन्हें सुनता हुआ मदहोश-सा. धन्य हैं वो लोग, जो उस समय वहां मौजूद रहें होगें. उनकी आवाज़-उनका अंदाज़, उनका वो हाथों को हिलाना, चेहरे पर संजीदगी, संगीत का उम्दा प्रयोग, यह सब जैसे आध्यात्म की नुमाइंदगी करते मालूम देते हैं। दुनिया ने उन्हें देर से पहचाना, पर जब पहचाना तो दुनिया भर में उनके दीवानों की कमी भी नहीं रहीं. १९९३ में शिकागो के विंटर फेस्टिवल में वो शाम आज भी लोगो को याद हैं जहाँ नुसरत जी ने पहली बार राक-कंसर्ट के बीच अपनी क़व्वाली का जो रंग जमाया,लोग झूम उठे-नाच उठे, उस 20 मिनिट की प्रस्तुति का जादू ता-उम्र के लिए अमेरिका में छा
कव्वालों के घराने में 13 अक्तूबर 1948 को पंजाब के फैसलाबाद में जन्मे नुसरत फतह अली को उनके पिता उस्ताद फतह अली खां साहब जो स्वयं बहुत मशहूर और मार्रुफ़ कव्वाल थे, ने अपने बेटे को इस क्षेत्र में आने से रोका था और खानदान की 600 सालों से चली आ रही परम्परा को तोड़ना चाहा था पर खुदा को कुछ और ही मंजूर था, लगता था जैसे खुदा ने इस खानदान पर 600 सालों की मेहरबानियों का सिला दिया हो, पिता को मानना पड़ा कि नुसरत की आवाज़ उस परवरदिगार का दिया तोहफा ही है और वो फिर नुसरत को रोक नहीं पाए और आज इतिहास हमारे सामने है।
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जब नुसरत जी गुरु नानक की वाणी,"कोई कहे राम-राम,कोई खुदाए...."को अपनी आवाज़ देते हैं तो तो सुनने वाला मदहोशी में डूब जाता है। ऐसा निराला अंदाज़, दुनिया भर में जो लोग पंजाबी-उर्दू और क़व्वाली नहीं भी समझ पाते थें, पर उनकी आवाज़ और अंदाज़ के दीवानें थें. उन्हीं दीवानों में से एक -"गुडी", जो स्वयं एक मशहूर कम्पोजर और निर्माता रहे हैं, ने नुसरत जी को समझने के लिए अनुवादक का सहारा लिया और इस गायक को समझा. फिर दोनों दीवानों ने मिलकर एक अल्बम."डब क़व्वाली" के नाम से भी निकाला. गुडी ने नुसरत साहब के काम को दुनिया भर में फैलाया.गुडी बड़ी विनम्रता से कहते हैं,"यह उनके लिए बड़े भावनात्मक पल रहे हैं।" इसी अल्बम में "बैठे-बैठे,कैसे-कैसे...." सुनिए,शुरुआती ३० सेकेण्ड ही काफी हैं, नशे में डूब जाने के लिए. पूर्व और पश्चिम में के आलौकिक फ्यूजन में भी उन्होंने अपना पंजाबीपन और सूफियाना अंदाज़ नहीं छोडा और फ्यूजन को एक नई परिभाषा दी. उन्होंने सभी सीमाओं से परे जाकर गायन किया। खाने के बेहद शौकीन नुसरत जी ने सिर्फ इस मामले में अपने डाक्टरों की कभी नहीं सुनी. जी भरकर गाया और जी भरकर खाया. महान सूफी संत और कवि रूमी की कविता को नुसरतनुमा अंदाज़ में क़व्वाली की शक्ल में सुनना, दावे से कहता हूँ कि बयां को लफ्ज़ नहीं मिलेगें. जिबरिश करने को जी चाहेगा. नुसरत और रूमी, मानो दो रूह मिलकर एक हो गई हों. बस आप सुनते चले जाएँ और कहीं खोते चले जाए.
मैं लिखता चला जाऊं और आप इस गायक को सुनते चले जाएँ और सब सुध-बुध खो बैठे, ऐसा हो सकता है।सुनिए,"मेरा पिया घर आया....","पिया रे-पिया रे.....","सानु एक पल चैन...","तेरे बिन.....","प्यार नहीं करना...." "साया भी जब साथ छोड़ जाये....","साँसों की माला पे...."और न जाने ऐसे कितने गीत हैं, ग़ज़ल हैं, कव्वालियाँ है, दुनिया भर का संगीत खुद में समेटे हुए, इस गायक को यदि नहीं सुना हो सुनने निकलिए, हिंदी फिल्मों से, पंजाबी संगीत से, सूफी संगीत से, फ्यूजन से कहीं भी चले जाइए, यह गायक, नुसरत फतह अली भुट्टो, आपको मिल जायेगा, आपको मदहोश करने के लिए-आपको अध्यात्मिक शांति दिलाने के लिए.....हर जगह -हर रूप में मौजूद है नुसरत साहब. इन्हें आप किसी भी नामी म्यूजिक -शाप में "वर्ल्ड-म्यूजिक" की श्रेणी में ही पायेगें. 16 अगस्त १९९७ को जब नुसरत साहब ने दुनिया-ए-फानी को अलविदा कहा, विश्व-संगीत में एक गहरा शोक छा
तो चलिए शुरुआत करते हैं "संगम" के सबसे हिट गीत "अफरीन अफरीन" से. क्या बोल लिखे हैं जावेद साहब ने और अपनी धुन और गायिकी से नुसरत साहब ने इस गीत को ऐसी रवानगी दी है कि गीत ख़तम होने का बाद भी इसका नशा नहीं टूटता. "आफरीन-आफरीन" सूफी कलाम में एक बड़ा मुकाम रखती है। इसे ऑडियो में सुनना एक आध्यात्मिक अनुभव से गुजरना होता है तो विजुअल में देखना एक आलौकिक अनुभव से गुजरना होता है। एक ही तर्ज़ के दो अनुभव, लिखने को शब्द नहीं मिलते हैं, कहने को कुछ बचता नहीं है। ...
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