"प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थाएं": अवतरणों में अंतर

छो बॉट: डॉट (.) के स्थान पर पूर्णविराम (।) और लाघव चिह्न प्रयुक्त किये।
छो बॉट: डॉट (.) के स्थान पर पूर्णविराम (।) और लाघव चिह्न प्रयुक्त किये।
पंक्ति 1:
सच होने के बावजूद यह तथ्य बहुत-से लोगों को चौंका सकता है कि प्राचीन [[भारत]] औद्योगिक विकास के मामले में शेष विश्व के बहुत से देशों से कहीं अधिक आगे था। [[रामायण]] और [[महाभारत]] काल से पहले ही भारतीय व्यापारिक संगठन न केवल दूर-देशों तक व्यापार करते थे, बल्कि वे आर्थिकरूप से इतने मजबूत एवं सामाजिक रूप से इतने सक्षम संगठित और शक्तिशाली थे कि उनकी उपेक्षा कर पाना तत्कालीन राज्याध्यक्षों के लिए भी असंभव था। रामायण के एक उल्लेख के अनुसार [[राम]] जब चौदह वर्ष का वनवास काटकर [[अयोध्या]] वापस लौटते हैं तो उनके स्वागत के लिए आए प्रजाजनों में श्रेणि प्रमुख भी होते हैं।
 
प्राचीन ग्रंथों में इस तथ्य का भी अनेक स्थानों उल्लेख हुआ है कि उन दिनों व्यक्तिगत स्वामित्व वाली निजी और पारिवारिक व्यवसायों के अतिरिक्त तत्कालीन भारत में कई प्रकार के औद्योगिक एवं व्यावसायिक संगठन चालू अवस्था में थे, जिनका व्यापार दूरदराज के अनेक देशों तक विस्तृत था। उनके काफिले समुद्री एवं मैदानी रास्तों से होकर [[अरब]] और [[यूनान]] के अनेक देशों से निरंतर संपर्क बनाए रहते थे। उनके पास अपने अपने कानून होते थे। संकट से निपटने के लिए उन्हें अपनी सेनाएं रखने का भी अधिकार था। सम्राट के दरबार में उनका सम्मान था। महत्त्वपूर्ण अवसरों पर सम्राट श्रेणि-प्रमुख से परामर्श लिया करता था.था। उन संगठनों को उनके व्यापार-क्षेत्र एवं कार्यशैली के आधार पर अनेक नामों से पुकारा जाता था। गण, पूग, पाणि, व्रात्य, संघ, निगम अथवा नैगम, श्रेणि जैसे कई नाम थे, जिनमें श्रेणि सर्वाधिक प्रचलित संज्ञा थी। ये सभी परस्पर सहयोगाधारित संगठन थे, जिन्हें उनकी कार्यशैली एवं व्यापार के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था।
 
भारतीय धर्मशास्त्रों में प्राचीन समाज की आर्थिकी का भी विश्लेषण किया गया है.है। उनमें उल्लिखित है कि हाथ से काम करने वाले शिल्पकार, व्यवसाय चलाने वाली जातियां व्यवस्थित थीं.थीं। सामूहिक हितों के लिए संगठित व्यापार को अपनाकर उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय दिया था.था। इसी कारण वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से काफी समृद्ध भी थीं.थीं। आचार्य पांडुरंग वामन काणे ने उस समय के विभिन्न व्यावसायिक संगठनों की विशेषताओं का अलग-अलग वर्णन किया है.है। [[कात्यायन]] ने श्रेणि, पूग, गण, व्रात, निगम तथा संघ आदि को वर्ग अथवा समूह माना है.1है।1 लेकिन आचार्य काणे उनकी इस व्याख्या से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार ये सभी शब्द पुराने हैं। यहां तक कि वैदिक साहित्य में भी ये प्रयुक्त हुए हैं। यद्यपि वहां उनका सामान्य अर्थ दल अथवा वर्ग ही है.2है।2 इसी प्रकार कौषीतकिब्राह्मण उपनिषद् में पूग को रुद्र की उपमा दी गई है.3है।3 आपस्तंब धर्मसूत्र में संघ को पारिभाषित करते हुए उसकी कार्यविधि और भविष्य को देखने हुए, अन्य संगठनों के संदर्भ में उसके अंतर को समझा जा सकता है.4है।4
 
[[पाणिनि]]काल तक संघ, व्रात, गण, पूग, निगम आदि नामों के विशिष्ट अर्थ ध्वनित होने लगे थे। उन्होंने श्रेणि के पर्यायवाची अथवा विभिन्न रूप माने जाने वाले उपर्युक्त नामों की व्युत्पत्ति आदि की विस्तृत चर्चा की है.है। इस तथ्य का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं कि श्रेणियों की पहुंच केवल आर्थिक कार्यकलापों तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि उनकी व्याप्ति धार्मिक, राजनीति और सामाजिक सभी क्षेत्रों में थी। इसलिए कार्यक्षेत्र को देखते हुए उन्हें विभिन्न संबोधनों से पुकारा जाना भी स्वाभाविक ही था.था। दूसरी ओर यह भी सच है कि पूग, व्रात्य, निगम, श्रेणि इत्यादि विभिन्न नामों से पुकारे जाने के बावजूद सहयोगाधारित संगठनों के बीच उनके कार्यकलापों अथवा श्रेणिधर्म के आधार पर कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं थी। दूसरे शब्दों में ये नाम विशिष्ट परिस्थितियों में कार्यशैली एवं कार्यक्षेत्र के अनुसार अपनाए तो जाते थे, परंतु उनके बीच स्पष्ट कार्य-विभाजन का अभाव था.था। संगठन के विभिन्न नामों के कारण उनके बीच अनौपचारिक-से भेद एवं उनसे ध्वनित होने प्रचलित अर्थ को आगे के अनुच्छेदों में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है-
 
== व्रात्य ==
यह नाम प्राचीन काल से ही संघ अथवा वैकल्पिक सरकार के रूप में प्रचलित रहा है.है। इसमें आंतरिक लोकतंत्र की भावना प्रधान होती थी। पाणिनी ने अपने महाभाष्य में ऐसे लोगों को व्रात्य माना है, जिनका कोई विशिष्ट व्यवसाय नहीं था, जो अपने तात्कालिक हितों के लिए किसी भी प्रकार का व्यवसाय अपना सकते थे। दूसरे शब्दों में उन्हें कई व्यवसायों का कार्यसाधक ज्ञान होता था.था। और समय तथा उपयोगिता के अनुसार वे अपना कोई भी व्यवसाय चुन सकते थे। व्रात्य प्रायः अपने शारीरिक बल से ही अपनी जीविका चलाते थे। वे विविध जातियों से आए हुए दक्ष शिल्पकार थे और अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा के लिए आपस में संगठित होकर रहना आवश्यक मानते थे।
कात्यायन ने व्रात्यों को विचित्र अस्त्रधारी सैनिकों का झुंड माना है.है। इससे कुछ विभिन्न विक्रमादित्य खन्ना ने किरन कुमार थपल्याल एवं मजुमदार के हवाले से एक ही परिक्षेत्र में रहने वाले, आर्थिक हितों के लिए प्रयासरत, समूह को व्रात्य एवं पूग की संज्ञा दी है.है। उनके अनुसार—
‘व्रात्य एवं पूग एक ही नगर अथवा गांव के निवासियों के सामान्यतः एक ही व्यवसाय में लगे, समान आर्थिक हितों के लिए गठित समूह थे।’5
स्पष्ट है कि व्रात्य समानधर्मा लोग थे, जिनको एकाधिक व्यवसायों की जानकारी होती थी। अपने परंपरागत उद्यम में अनुकूल अवसर न देख वे सहयोगी संगठन के गठन की ओर उन्मुख होते थे। उनके संगठन अधिक लोकतांत्रिक और उदार होते थे।
पंक्ति 15:
== पूग ==
 
आचार्य काणे ने अपने वृहद् ग्रंथ ‘धर्मशास्त्र का इतिहास’ में उल्लेख किया है कि व्रात्य की भांति पूग भी विभिन्न जातियों से आए हुए लोग थे। वे आवश्यकता पड़ने पर मिस्त्री से लेकर श्रमिक तक, कुछ भी काम कर सकते थे। कशिका के अनुसार वे धनलोलुप और कामी थे, जिनका कोई स्थिर व्यवसाय नहीं था.था। कात्यायन ने पूग को व्यापारियों का समुदाय स्वीकार किया है.है। कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में एक स्थान पर सैनिकों एवं श्रमिकों में अंतर दर्शाया गया है.है। उनके अनुसार सौराष्ट्र एवं कांबोज राज्य के सैनिकों की श्रेणियां अलग-अलग वर्गों में विभाजित थीं.थीं। उनमें से कुछ आयुध के सहारे अपनी आजीविका चलाने वाली थीं, तो कुछ की आजीविका का माध्यम कृषि था—
पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का समुदाय है और श्रेणि विभिन्न जातियों के लोगों का समुदाय है—जैसे हेलाबुकों, तांबूलिकों, कुविंदों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियां. चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में हेलाबुकों को प्रत्येक घोड़े के लिए एक द्रम्म देने का वृत्तांत मिलता है.’6है।’6
पूग संभवतः ऐसे व्यक्तियों का संगठन होता था, जिनका पैत्रिक व्यवसाय युद्ध अथवा सेवाकर्म था; अर्थात ऐसे लोग जो वर्ण-विभाजन की दृष्टि से वाणिज्यकर्म के लिए अधिकृत नहीं थे। कृषक एवं सैनिक जातियों के लोग अपने व्यवसाय से हताश होकर, परिवर्तन अथवा अपेक्षाकृत अधिक आर्थिक लाभ के लिए संगठन का निर्माण करते थे। इस बात की भी पर्याप्त संभावना है कि वाणिज्यिक अनुभव की कमी तथा शिल्पकलाओं के ज्ञान के अभाव में शूद्रवर्ग एवं सेना से निकाले गए लोगों के संगठन को पूग माना गया हो. ऐसे लोग युद्धक अथवा गैरव्यावसायिक श्रेणियों के गठन को प्राथमिकता देते थे। इस तरह पूग एवं व्रात्य कहे जाने वाले संगठनों में सैद्धांतिक दृष्टि से कोई खास अंतर नहीं था.था।
 
== संघ ==
 
संघ को सामान्यतः विशिष्ट लोगों के संगठन का पर्याय माना गया है.है। प्राचीन भारत में गणतांत्रिक सत्ता के ध्रुवों को संघ के नाम से पुकारने की परंपरा रही है.है। संघों के सदस्यों का चयन बहुमत के आधार पर किया जाता था.था। तथापि वह सीमित गणतंत्र था.था। उनके सदस्य प्रायः वर्णव्यवस्था में ऊपर के क्रम पर आने वाली जातियों से संबद्ध होते थे, जो अपने आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक हितों की प्राप्ति हेतु संगठन का निर्माण करते थे। लगभग यही आशय गण का भी रहा है.है। प्रारंभ में इन दोनों के बीच कोई सैद्धांतिक विभाजन था भी नहीं. प्रकारांतर में गण और संघ में भेद अवश्य किया जाने लगा था.था। लेकिन गण को एकवचन के रूप में भी स्वीकारा जाता रहा है, जबकि संघ की संज्ञा विवेकवान लोगों के समूह के लिए सुरक्षित रही है, जो अपने निर्णय सिद्धांततः आमसहमति के आधार पर लेते हों. विशेषकर बौद्धधर्म के अभ्युध्य के पश्चात ब्राह्मणों ने स्वयं को उनसे अलग दिखाने के लिए, उनके संगठनों को संघ कहना प्रारंभ कर दिया था.था। मनु ने संघ का प्रयोग संगठित समाज के लिए किया है.है। जबकि कात्यायन के अनुसार संघ बौद्धों तथा जैनों का समाज है.है। डा॓. रमेशचंद्र मजुमदार एवं डा॓. किरन कुमार थपल्याल, दोनों ने इसी मत की संस्तुति की है.है। इन दोनों के हवाले से विक्रमादित्य खन्ना लिखते हैं कि—
‘संघ का संबोधन सामान्यतः राजनीतिक संगठनों के लिए था.था। यद्यपि कभी-कभी उसका इस शब्द का प्रयोग शैक्षिक एवं धर्मिक गतिविधियों के विकास को समर्पित संगठनों, विशेषकर बौद्ध भिक्षुओं के दल, के लिए भी कर लिया जाता था.’7था।’7
इस वर्गीकरण से संघ की आर्थिक विशेषताओं का कोई बोध नहीं होता. यह भी हो सकता है कि बौद्धों के धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक हितों के लिए गठित समूहों को संघ की संज्ञा दी जाती हो. लेकिन लोकपंरपरा में व्यापारियों के समूहों को भी संघ कहने का चलन था.था।
 
== गण ==
 
प्राचीन भारतीय वांङमय में गण शब्द का उल्लेख अनेकार्थी है.है। गण का सामान्य अभिप्राय सुसंस्कृत नागरिक से भी है.है। गांवों एवं नगरों में सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए, समाज के जिन विशिष्ट व्यक्तियों को यह जिम्मेदारी सौंपी जाती थी, उन्हें ‘गण’ कहा जाता था.था। कई बार धार्मिक एवं राजनीतिक उद्देश्यों के लिए मनोनीत व्यक्ति भी ‘गण’ की संज्ञा से विभूषित कर दिए जाते थे। कालांतर में इस संज्ञा का उपयोग आर्थिक उद्देश्यों के गठित संगठनों के लिए भी किया जाने लगा. वसिष्ठ धर्मसूत्र में ‘गण’ का उल्लेख संगठित समाज के रूप में किया गया है.है। कुछ इसी प्रकार का अर्थ मनु ने भी बताया है; यानी पूरा समाज गण अथवा गणसमूह है.है। कात्यायन ने वर्ण-विभाजन को आधार बनाकर इसे और भी विशेषीकृत करते हुए, ब्राह्मणों के संगठन को गण की संज्ञा दी है.है। मिताक्षरा के अनुसार गण व्यापारियों के समूह थे, जिनका प्रमुख व्यवसाय हेलाबूक अर्थात घोड़े का व्यवसाय करना था.था। विक्रमादित्य खन्ना ने गण को धार्मिक एवं राजनीतिक संगठन मानते हुए उसको संघ के समक्ष रखा है.है। डाॅ. मजुमदार का संदर्भ देते हुए वे लिखते हैं कि—
‘प्रारंभ में गण का अभिप्राय व्यापारियों के समूह से था, मगर कालांतर में उन्हें राजनीतिक एवं धार्मिक संगठन के रूप में भी मान्यता मिलने लगी.’8
सामान्य नागरिकताबोध की प्रस्तुति के लिए भी गण का उपयोग आम नागरिकों के लिए मान्य रहा है.है। गणतंत्र उसी शब्द की व्युत्पत्ति है.है। यही अर्थ सहस्राब्दियों तक विद्वानों को मान्य रहा है.है। लेकिन यह भी सत्य है कि समय के साथ संज्ञाएं एवं उनके संदर्भ बदलते रहते हैं। कई बार स्वार्थी लोग भी शब्दों को उनके मूल संदर्भों से काटकर मनमानी व्याख्याएं करते रहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गण का उपयोग प्रारंभ में नागरिक और नागरिक-समूहों के लिए सुरक्षित था.था। बाद में यही संज्ञा व्यापारी-समूहों को भी दी जाने लगी. लेकिन कालांतर में, बौद्ध धर्म के उद्भव के बाद ब्राह्मणों ने उनके संगठनों को संघ तथा अपने समूहों को गण कहना आरंभ कर दिया था.था।
 
== नैगम अथवा निगम ==
 
नैगम अथवा निगम शब्द का अंग्रेजी पर्याय Corporation है, जिसका आशय एक ऐसे जिम्मेदार संगठन से है, जिसका गठन विशिष्ट सेवाओं की देखभाल तथा उन्हें सुचारू बनाए रखने के लिए किया जाता है.है। नागरिक सेवाओं में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आदि सभी सेवाएं सम्मिलित हैं। श्रेणि तथा पूग की भांति नैगम भी व्यावसायिक संगठन होते थे। नैगम को परिभाषित करने का कार्य कात्यायन द्वारा किया गया.गया। उनके अनुसार नैगम का आशय एक ही नगर के नागरिकों के समूह से है.है। वैदिक साहित्य में श्रेणि, पूग अथवा नैगम जैसे शब्द अनेक स्थानों पर आए हैं, जहां उनका सामान्य अर्थ दल अथवा संगठन से ही है.है। हालांकि किरन कुमार थपल्याल की राय इससे कुछ भिन्न है.है। उनके अनुसार निगम अथवा नैगम का कार्यक्षेत्र विस्तृत होता था, यहां तक कि नगरीय सीमाओं से परे भी. नैगम के सापेक्ष श्रेणि एक छोटी इकाई थी और एक नैगम कई श्रेणियों पर अनुशासन कर सकता था.था। नैगम को हम आंग्ल शब्द फेडरेशन का पर्याय भी मान सकते हैं। उनके अनुसार—
‘निगम को प्रायः गिल्ड अथवा नगर के समतुल्य माना जाता है.है। यह श्रेणि की अपेक्षा बड़े होते थे। गुप्तकाल के आसपास निगम का किसी एक परिक्षेत्र में कार्यरत श्रेणियों पर नियंत्रण होता था.’9था।’9
मित्र मिश्र ने ‘वीरमित्रोदय’ में नैगम को परिभाषित करते हुए कहा है कि, पौर वणिकों को नैगम कहते हैं।10 वैधानिक दृष्टि से नैगम आधुनिक जायंट स्टा॓क कंपनी के अनुरूप होते थे। डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार के विचार भी दृष्टव्य हैं—
‘जायंट स्टा॓क कंपनी के ढंग से संगठित होकर व्यापारी लोग अपने जो समूह बनाते थे, उनकी संज्ञा ‘संभ्भूय समुत्थान’ थी। पर शिल्पियों की श्रेणियों के समान व्यापारियों के समूह भी विद्यमान थे, जिन्हें ‘निगम’ कहा जाता था.था।...जिस प्रकार शिल्पी लोग श्रेणि में संगठित होकर अपने साथ संबंध रखने वाले विषयों पर कानून बनाते थे और शिल्प को नियंत्रित करते थे, उसी प्रकार निगम में संगठित व्यापारी अपने व्यापार के संबंध में व्यवस्था करते थे। क्योंकि पुरों में प्रधानतया व्यापारियों का ही निवास होता है और वहां वे प्रमुख स्थान रखते थे, अतः स्वाभाविक रूप से पौर संस्था का विकास निगम को आधर बनाकर ही हुआ.11हुआ।11
बौद्ध साहित्य में जनपद एवं नैगम को परस्पर पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया गया है.12है।12 निगम के प्रधान या मुखिया को ‘श्रेष्ठी’ कहा जाता था.था। ‘महाबग्ग’ के अनुसार एक बार राजगृह के श्रेष्ठी के महारोग से व्यथित व्यापारियों ने जब उसका उपचार राजवैद्य से कराने का विचार किया तो वे उसकी अनुमति के लिए सम्राट बिंबसार के दरबार में पहुंचे. वहां जाकर उन्होंने प्रार्थना की कि—
‘हे देव! इस श्रेष्ठी ने आपके और निगम के प्रति बहुत उपकार किया है.’13है।’13
स्पष्ट है कि निगम के रूप में संगठित वणिकों को ही ‘नैगम’ कहा जाता था.था। ये व्यापारिक संगठन अधिकार-संपन्न होते थे, जो क्षेत्रीय श्रेणियों पर अनुशासन बनाए रखकर विकास के लिए बहुआयामी स्तर पर काम करते थे। प्रायः एक ही परिक्षेत्र में रहने वाले व्यापारी, शिल्पकार, श्रेणि-प्रमुख अपने परिक्षेत्र से बाहर व्यापार के प्रसार के लिए संगठित होते थे। छोटी-छोटी श्रेणियां भी, अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा एवं व्यावसायिक स्पर्धा में बने रहने के लिए, निगम के रूप में एकजुट हो जाती थीं.थीं। विक्रमादित्य खन्ना के हवाले से निगम को और गहराई से समझा जा सकता है—
‘आमतौर पर व्यापारियों, दस्तकारों एवं तकनीकी कार्यों में दक्ष व्यक्तियों, यहां तक कि युद्धकला में निपुण सैनिकों के संगठन को निगम अथवा श्रेणि के रूप में पहचाना जाता था.था।..इनमें से श्रेणि, निगम तथा पणि (अथवा पण) अपने समाज के विकास के लिए आर्थिक गतिविधियों में अधिक लिप्त रहते थे।’14
याज्ञवल्क्य स्मृति में निगम को पाषंड एवं श्रेणि के समानांतर रखा गया है.है। याज्ञवल्क्य के अनुसार पाषंड धार्मिक संप्रदायों के संगठन थे। याज्ञवल्क्य के अनुसार—
‘श्रेणि-नैगम-पाषंड और गण के संगठन की एक ही विधि है.’15है।’15
इस विश्लेषण के आधार पर निगम को आधुनिक यूरोपीय गिल्ड अथवा विभिन्न श्रेणियों की फेडरेशन के रूप में दर्ज किया जा सकता है.है।
 
== पण ==
 
पण को मुद्रा का पर्याय माना गया है.है। पण अथवा पणि का आशय भी सामान्यतः ऐसे संगठनों से था, जो धनार्जन के लिए व्यापार को अपनाते थे। जिनका लक्ष्य अपने सदस्यों के आर्थिक विकास के लिए कार्य करना था.था। विक्रमादित्य खन्ना ने पणि को श्रेणि एवं नैगम के समकक्ष रखते हुए ऐसा समूह माना है जिसका उद्देश्य अपने सदस्यों का आर्थिक उत्थान था.था। उनके अनुसार—
‘पणि (अथवा पणि) को सामान्यतः सौदागरों, शिल्पकारों के ऐसे समूह के रूप में जाना जाता है, जो अपने माल की बिक्री के लिए, काफिलों के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक निरंतर सफर करते रहते थे।’16
दूसरे शब्दों में पणि व्यापारियों के काफिले थे, जो अपने व्यापार के सिलसिले में देश-देशांतर की यात्रा करते रहते थे। तकनीकी रूप में उनमें तथा श्रेणि के अन्य रूपों में बहुत अंतर नहीं था.था। उनकी पहचान अक्सर एक-दूसरे में घुलमिल जाती है.है।
 
== श्रेणि ==
 
भारत में सहयोगाधारित व्यापारिक आर्थिक संगठनों के लिए श्रेणि शब्द का उपयोग ईसा से भी आठ सौ वर्ष पहले से होता आ रहा है परस्पर सहयोगाधारित संगठनों के लिए यह शब्द इतना प्रचलित रहा है कि उन्हें व्यवस्थित करने और वैधानिकता का दर्जा दिलानेवाले नियमों को भी श्रेणि-धर्म कहा जाता था- संगठित व्यापार एवं उत्पादन के क्षेत्र में कार्य करने वाले संगठनों के लिए यह संबोधन 1000 ईस्वी; अर्थात मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना तक लोगों की जुबान पर चढ़ा रहा. इन संगठनों के लिए यद्यपि पूग, नैगम, व्रात्य, पाणि, गण आदि संज्ञाएं भी प्राचीनकाल से चली आ रही थीं, विद्वानों ने उनके बीच के सैद्धांतिक अंतर स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है, तथापि ऐसे संगठनों के श्रेणि शब्द का प्रचलन ही सर्वाधिक रहा. आज भी इसे गिल्ड के पर्याय के रूप में जाना जाता है.है। ध्यातव्य है कि गिल्ड श्रेणि के समानधर्मा यूरोपीय संगठन हैं। तथापि भारतीय प्रायद्वीप में श्रेणि शब्द का उपयोग व्यापक संदर्भ लिए हुए था.था। लगभग सभी प्रकार के व्यापारिक, उद्यमी और राजनीतिक संगठनों, नागरिक सेवा प्रदान करने वाले निकायों को श्रेणि के नाम से पहचाना जाता था.था।
जहां तक प्राचीन संदर्भों की बात है, विष्णुधर्मसूत्र में श्रेणि का उल्लेख संगठित समाज के लिए किया गया है, जबकि मिताक्षरा ने श्रेणि को पान के पत्तों के व्यापारियों का समुदाय माना गया है.17है।17 याज्ञवल्क्य ने श्रेणि को विभिन्न जातियों के लोगों का संगठन माना है, जो किसी समान आर्थिक-व्यापारिक उद्देश्य के लिए संगठित होते हैं। जो भी हो इतना सत्य है कि श्रेणि व्यापारियों के संगठित समूह थे, जिनकी अपनी पहचान थी। विद्वानों द्वारा उसके बारे में अलग-अलग व्याख्या, उनके अनुभव और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भी संभव है.है।
उल्लेखनीय है कि व्यापारिक संगठनों को अलग-अलग नाम का दिया जाना किंचित मतवैभिन्न्य तथा सुविधा की दृष्टि से था.था। किसी भी व्यक्ति अथवा समूह को अपने हितों की सुरक्षा के अनुसार किसी भी प्रकार के व्यवसाय को अपनाने की छूट थी। हालांकि कई स्थान पर इस नियम में व्यवधान भी थे। व्यवस्था के लिहाज से श्रेणियों को उनके लिए तय व्यवसाय में काम करने की अनुमति प्राप्त थी। ’याज्ञवल्क्य (2/30) ने ऐसे कुलों जातियों, श्रेणियों एवं गणों को दंडित करने को कहा है, जो अपने आचार-व्यवहार से च्युत होते हैं।’18 नारद स्मृति में भी श्रेणि, नैगम, पूग एवं गण का जिक्र करते हुए उनके परंपरानुरूप कार्यों की व्याख्या की गई है.है। ‘
इन संगठनों के व्यवसाय के अनुसार उनकी संरचना एवं सामाजिक प्रस्थिति में भी अंतर था.था। याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि पूगों एवं श्रेणियों को अपने झगड़ों का अन्वेषण करने, उन्हें सुलझाने का पूरा अधिकार है.है। उन्होंने पूग को श्रेणि से उच्चतम स्थिति में माना है.है। मिताक्षरा ने भी याज्ञवल्क्य का समर्थन करते हुए श्रेणि और पूग के बीच पूग की उच्चतम स्थिति को ही मान्यता दी है.है। मिताक्षरा के अनुसार—
‘पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का समुदाय है और श्रेणि विभिन्न जातियों के लोगों का समुदाय है—जैसे हेलाबुकों, तांबूलिकों, कुविंदों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियां. चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में ‘हेड़ाविकों को प्रत्येक घोड़े के एक द्रम्म देने का वृत्तांत मिलता है.है। नासिक अभिलेख संख्या 15 में लिखा है कि अभीर राजा ईश्वरसेन के शासनकाल में 1000 कार्षापण कुम्हारों के समुदाय (श्रेणि) में, 500 कार्षापण तेलियों की श्रेणि में, 2000 कार्षापण पानी देनेवालों की श्रेणि (उदक-यंत्र-श्रेणि) में स्थिर संपत्ति के रूप में जमा किए गए, जिससे कि उनके ब्याज से रोगी भिक्षुओं की दवा की जा सके. नासिक के नौवें एवं बारहवें शिलालेखों में जुलाहों की श्रेणि का भी उल्लेख है.है। हुविष्क के शासनकाल के मथुरा के ब्राह्मशिलावालों एवं कांस्यकारों (ताम्र एवं कांसा बनानेवालों) की श्रेणियों में धन जमा करने की चर्चा हुई है.है। स्कंदगुप्त के इंदौर ताम्रपत्र में तैलियों की एक श्रेणि का उल्लेख है.है। इन सब बातों से स्पष्ट है कि ईसा के आसपास की शताब्दियों में कुछ जातियों, यथा लकड़हारों, तेलियों, तमोलियों, जुलाहों आदि के समुदाय इस प्रकार की संगठित एवं व्यवस्थित थे कि लोग उनमें निःसंकोच सहस्रों रुपये इस विचार के साथ जमा करते थे कि उनसे ब्याज-रूप में दान के लिए धन मिलता रहेगा.’19
स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में श्रेणियां न केवल संगठित व्यापार का माध्यम बनी हुई थीं, बल्कि वे आधुनिक वित्तीय संगठनों की तरह व्यवहार भी करती थीं.थीं। लोग अपना व्यक्तिगत धन भी मुनाफे या लाभ की इच्छा के साथ उनके पास जमा कर सकते थे। उस समय के शासकों को भी श्रेणियों की वित्तीय क्षमताओं पर पूरा विश्वास था.था। यहां तक कि राज्य के दायित्वों को पूरा करने के लिए भी श्रेणियों में धन निवेश किया जाता था.था। मथुरा से प्राप्त दूसरी शताब्दी के एक दस्तावेज में बुनकरों की दो श्रेणियों में से प्रत्येक के पास चांदी के 550 सिक्के जमा करने का उल्लेख मिलता है, ताकि उससे प्राप्त ब्याज से ब्राह्मणों तथा गरीबों को भोजन कराया जा सके. ब्याज की दर बहुत उपयुक्त बहुत कुछ वर्तमान दरों के अनुकूल थी। प्रोफेसर किरण कुमार थपल्याल के अनुसार नासिक अभिलेख में जुलाहों को दो हजार कार्षापण एक रुपया सैकड़ा प्रतिमाह ब्याज की दर से प्रदान किए गए थे, ताकि उस धन से भिक्षुओं के लिए भोजन, वस्त्र आदि का प्रबंध किया जा सकें. इसी प्रकार एक अन्य दस्तावेज में भिक्षुओं को जलपान कराने के लिए एक हजार कार्षापण 0.75 रुपया प्रतिमाह के ब्याज पर जुलाहों की एक और श्रेणि को दिए जाने का भी उल्लेख है.है। इसी प्रकार गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त के एक लेख में इंद्रपुर निवासिनी तेलियों की श्रेणि को कुछ धन उधार के रूप में देने का उल्लेख हुआ है, ताकि उससे मिलने वाले ब्याज से सूर्य मंदिर के दीपों के लिए तेल का खर्च निकलता रहे. इन उद्धरणों से सिद्ध होता है, कि उस समय के बड़े राज्य भी अपनी समाज-कल्याण संबंधी योजनाओं को पूरा करने के लिए भी श्रेणियों की वित्तीय स्थिति और साख का लाभ उठाने का प्रयास करते रहते थे—
‘ये श्रेणियां बैंक का कार्य करती थीं और इनको इतना टिकाऊ एवं चिरस्थायी माना जाता था कि स्वयं राजा या राजपुरुष भी इनके पास अक्षयनिधि (न लौटाया जाने वाला धन) रखा करते थे। धन को जमा करने की बात को निगम-सभा के सम्मुख भी सुनाया जाता था.20था।20
सामूहिक सहमति और सर्वकल्याण की भावना के आधार पर गठित उन व्यापारिक संगठनों को व्यापक अधिकार प्राप्त थे। किंतु यह आधिकारिता तभी तक मान्य थी, जब तक कि समूह अपने और राज्य के हित में कल्याण के कार्यक्रमों का संपादन करें. उन्हें किसी प्रकार का राष्ट्रविरोधी अथवा जनविरोधी कार्य करने की अनुमति नहीं थी। राजा को ऐसे समूहों पर नियंत्रण करने का शास्त्रोक्त अधिकार प्राप्त था.था। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इन अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या की है.है। वैसे भी आर्थिक उपलब्धियों को नीति, मर्यादा एवं सामाजिक शुचिता द्वारा नियंत्रित एवं मर्यादित करने की परंपरा भारतीय समाज में आदिकाल से ही रही है, जिसे प्रायः सभी धर्मग्रंथों में सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ है.है। भारतीय परंपरा में अर्थनीति विषयक एक सिद्धांत है, उसके अनुसार—
‘जिस मनुष्य का आर्थिक जीवन शुद्ध है—वह स्वयं भी शुद्ध है.21है।21
इसका सीधा-सा आशय है कि नैतिक पवित्रता के लिए व्यक्ति को अपने आर्थिक जीवन की पवित्रता का ध्यान रखना अत्यावश्यक है.है। बिना आर्थिक जीवन में पवित्रता लाए सामाजिक जीवन में शुद्धता संभव नहीं है.है। परोक्ष रूप में यह सिद्धांत जहां मानव जीवन में अर्थ की महत्ता को स्वीकार करता है, वहीं उसकी प्राप्ति के मार्ग को भी मर्यादित करता हुआ चलता है.है।
 
== उपसंहार ==
 
आर्थिक जीवन में पवित्रता और नैतिक मर्यादाओं पर जोर, ये भावनाएं भारतीय समाज में मौजूद तत्कालीन लोकोन्मुखी व्यवस्थाओं की ओर संकेत करती हैं। साफ है कि उन दिनों भारतीय समाज में सहकारिता भले ही उस रूप में मौजूद न रही हो, जैसा कि हम आज उसको देखते हैं, मगर वह सिद्धांत और भावनात्मक रूप भारतीय चिंतन परंपरा सहकारिता की भावना के बहुत निकट है.है। यहाँ ध्यान रखना होगा कि प्राचीन समाज में जनसाधारण शैक्षिक रूप में भले ही बहुत अधिक उन्नत न हों—बड़े-बड़े शास्त्रों का अध्ययन-मनन करने में भी वे भले ही असमर्थ रहते हों, किंतु मानव सभ्यता के प्रत्येक कालखंड व्यावहारिक ज्ञान की उनमें प्रचुरता ही रही है.है। सभ्यता के प्रारंभिक दौर में भी भारतीय समाज में लगभग वे सभी व्यवस्थाएँ मौजूद थीं, जिन्हें समाज कल्याण की अनिवार्यता माना जाता है.है। जहाँ तक सहकारी समूहों की व्याप्ति की बात है, प्रोफेसर आर.सी. मजूमदार ने 27 प्रकार की समितियों का उल्लेख अपनी पुस्तक ‘प्राचीन भारत में सहकारी जीवन’ Cooperative Life in Ancient India) में किया है.है। एक अन्य स्थान पर कात्यायन ने लिखा है कि समितियाँ कई प्रकार की होती थीं और उन्हें कई नामों से पुकारा जाता था.था। डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत की शासन-संस्थाएं एवं राजनीतिक विचार में बौद्ध ग्रंथों के हवाले से लिखा है कि उन दिनों अठारह प्रकार की श्रेणियां थीं.थीं। इसी प्रकार कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में अठारह प्रकार के व्यापार समूहों का उल्लेख किया है, जिनका उस समय के समाज एवं शासन पर व्यापक प्रभाव था.था।
 
== संदर्भानुक्रमणिका ==