"यज्ञ": अवतरणों में अंतर
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बाह्य इन्द्रियों को रोकना दम है।
निवृत्त की गयी इन्द्रियों भटकने न देना उपरति है।
सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख, हानि-लाभ, मान अपमान को शरीर धर्म मानकरसरलता से सह लेना तितीक्षा
रोके हुए मन को आत्म चिन्तन में लगाना समाधान है।
कई योगी अपान वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं जैसे अनुलोम विलोम से सम्बंधित श्वास क्रिया तथा कई प्राण वायु में अपान वायु का हवन करते हैं जैसे गुदा संकुचन अथवा सिद्धासन। कई दोनों प्रकार की वायु, प्राण और अपान को रोककर प्राणों को प्राण में हवन करते हैं जैसे रेचक और कुम्भक प्राणायाम।
कई सब प्रकार के आहार को जीतकर अर्थात नियमित आहार करने वाले प्राण वायु में प्राण वायु का हवन करते हैं अर्थात प्राण को पुष्ट करते
यज्ञ से बचे हुए अमृत का अनुभव करने वाले पर ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात यज्ञ क्रिया के परिणाम स्वरूप जो बचता है वह ज्ञान ब्रह्म स्वरूप है। इस ज्ञान रूपी अमृत को पीकर वह योगी तृप्त और आत्म स्थित हो जाते हैं परन्तु जो मनुष्य यज्ञाचरण नहीं करते उनको न इस लोक में कुछ हाथ लगता है न परलोक में।
इस प्रकार बहुत प्रकार की यज्ञ विधियां वेद में बताई गयी हैं। यह यज्ञ विधियां कर्म से ही उत्पन्न होती हैं। इस बात को जानकर कर्म की बाधा से जीव मुक्त हो जाता है।
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