"विद्याधर चक्रवर्ती": अवतरणों में अंतर

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== जन्म-और मृत्यु-तिथि ==
जयपुर [[इतिहास]] के जाने माने विद्वान और अनुसंधानकर्ता डॉ॰ [[असीम कुमार राय ]] ने सिटी-पैलेस, [[जयपुर]] के पोथीखाने से प्राप्त [[जन्मपत्री]] के आधार पर लिखा है -'[[विद्याधर]] का जन्म [[बंगाल]] में [[वैशाख]] शुक्ल दशमी, [[विक्रम संवत]] 1750 (सन [[1693]] [[ईस्वी]]) में ज्ञानेंद्र चक्रवर्ती, जो [[आमेर]] में '''संतोष राम''' नाम से प्रसिद्ध हुए के घर में हुआ था.था। उनकी मृत्यु फाल्गुन सुदी नवमी संवत 1807 (सन [[1751]]) को जयपुर में हुई. डॉ॰ [[असीम कुमार राय]] के अनुसन्धान के अनुसार [[जयपुर]] दरबार के पुराने कागज़ात में [[विद्याधर]] के नाम का सबसे पहले उल्लेख [[संवत]] [[1775]] (सन [[1719]]-20) में उपलब्ध हुआ है, जब वह [[आमेर]] के 'महकमा-हिसाब' ( 'कचहरी-मुस्तफी') (या लेखा-विभाग) में 'नायब-दरोगा' (Junior Inspector Audit) के पद पर काम कर रहे थे.थे। संवत 1781 (सन 1725-26) में [[विद्याधर]] के [[मामा]] कृष्णाराम को अपनी पुत्री और भांजे [[विद्याधर]] के [[विवाह]] के लिए दरबार की और से 5 हज़ार रुपये बतौर परवरिश दिए जाने का लिखित उल्लेख मिला है.है।<ref> 2.'जयपुर-दर्शन' जयपुर अढाई शती समारोह समिति: संपादक : डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा सहृदय नाट्याचार्य एवं हरि महर्षि तथा अन्य : 1978</ref>
 
== दीवान पद पर पदोन्नति ==
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पुराना शहर चारों ओर से ऊंचे मज़बूत परकोटे से घिरा हुआ था, जिसमें प्रवेश के लिए सात दरवाजे बनवाये गए। बहुत बाद में एक और द्वार भी बना जो 'न्यू गेट' कहलाया। पूरा शहर सामान आकार के छह भागों में बँटा है और यह 111 फुट(34 मी.) चौड़ी सड़कों से विभाजित है। प्रासाद-भाग में हवामहल परिसर, टाउनहाल, तालकटोरा, गोविन्ददेव मंदिर, उद्यान एवं वेधशाला आदि हैं तो पुराने शहर के उत्तर-पश्चिमी ओर की पहाड़ी पर नाहरगढ़, शहर के मुकुट जैसा लगता एक किला|[http://www.archinomy.com/case-studies/1906/jaipur-evolution-of-an-indian-city]
 
नगर को [[वास्तु शास्त्र]] के अनुरूप अलग-अलग प्रखंडों (चौकड़ियों) में समकोणीय मार्गों के आधार पर बांटने, विशेषीकृत हाट-बाज़ार विकसित करने, इसकी सुन्दरता को बढ़ाने वाले अनेकानेक निर्माण करवाने वाले [[विद्याधर]] का नगर-नियोजन [http://www.archinomy.com/case-studies/1906/jaipur-evolution-of-an-indian-city] आज देश-विदेश के कई विश्वविद्यालयों में मानक-उदाहरण के रूप में छात्रों को पढ़ाया जाता है| [[ली कार्बूजियर]] के [[चंडीगढ़]] की वास्तु-योजना [http://chandigarh.gov.in/knowchd_gen_plan.htm][http://architectuul.com/architecture/city-of-chandigarh] बहुत कुछ जयपुर के नगर-नियोजन से ही अभिप्रेरित है.है। [[रूस]] के [[भारतविद]] विद्वान [[ए. ए.कोरोत्स्काया]] ने अपनी प्रसिद्ध किताब '''[[भारत]] के नगर''' में विद्याधर और जयपुर की विशिष्ट वास्तुरचना बारे में विस्तार से विचार व्यक्त किये हैं|
 
[[सवाई जयसिंह]] के समकालीन, [[संस्कृत]] और [[ब्रजभाषा]] के महा[[कवि]] [[श्रीकृष्णभट्ट कविकलानिधि]] ने अपने [[इतिहास]]-[[काव्य]][[ग्रंथ]] '''[[ईश्वरविलास महाकाव्य]]''' में विद्याधर की प्रशस्ति में कहा है "बंगालयप्रवर वैदिकागौड़विप्र: क्षिप्रप्रसादसुलभ: सुमुख:कलावान विद्याधरोजस्पति मंत्रिवरो नृपस्यराजाधिराजपरिपूजित: शुद्ध-बुद्धि:" भावार्थ यह कि [[महाराजा जयसिंह]] का [[मंत्री]] विद्याधर (वैदिक) [[गौड़]] [[जाति]] का [[बंगाली]]-[[ब्राह्मण]] है, देखने में बड़ा सुन्दर और बोलने में बड़ा सरल स्वभाव का है, विभिन्न कलाओं में निष्णात शुद्ध बुद्धि वाले (इस विद्याधर) को महाराजाधिराज जयसिंह बड़ा मान-सम्मान देते हैं.हैं।" कविशिरोमणि [[भट्ट मथुरानाथ शास्त्री]] ने सन [[1947]] में 476 पृष्ठों में प्रकाशित अपना एक यशस्वी काव्य-ग्रन्थ '''[[जयपुर-वैभवम]]''' तो विद्याधर की अमर वास्तुकृति- [[जयपुर]] के नगर-सौंदर्य, दर्शनीय स्थानों, देवालयों, मार्गों, यहाँ के सम्मानित नागरिकों, उत्सवों और त्योहारों आदि पर ही केन्द्रित किया था|
 
 
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[[File:The Indur Mahal -Chandra Mahal- from the garden, Jeypore.jpg|thumb| जयपुर का 'चन्द्रमहल' : जिसके वास्तुविद विद्याधर थे ]]
== विद्याधर के पूर्वज और मथुरा के राजा कंस की शिला==
विद्याधर के वंशज (प्रपौत्र के पौत्र) सूरजबक्श की जानकारी<ref> 6. 'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : 'जयपुर अढाईशती समारोह समिति' प्रधान-सम्पादक : डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य वर्ष 1978 </ref>के अनुसार "महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री के छोटे भाई (अनुज) मेघनाथ भट्टाचार्य ने सन १९०४ ईस्वी में अपने पूर्वज विद्याधर पर एक बहुत महत्वपूर्ण टिप्पणी '''' साहित्य-परिषद्-पत्रिका'''' में प्रकाशित करवाई थी.थी। इस विवरण को संवत १३२२ (सन [[१९१८]] ईस्वी ) में [[कलकत्ता]] के ज्ञानेंद्र मोहन दास ने अपनी बांगला-पुस्तक 'बगैर बाहिरे बांगाली' में भी शामिल किया था.था। इस विवरण के अनुसार : ''" यशोहर'' (जो [[बांगलादेश]] में आज का [[जैसोर]] है) ''के राजा विक्रमादित्य ने अपने पुत्र प्रतापादित्य को मुग़ल शासन की जानकारी करने के लिए [[आगरा]] भेजा था.था। जब वह आगरा पहुँचने से पहले कुछ दिन [[मथुरा]] में था, तो उसे वहां'' [[ग्रेनाइट]] की ''एक काली शिला मिली जिसके बारे में यह बात इतिहास में प्रसिद्ध थी कि यह शिला वही है, जिस पर एक के बाद एक पटक कर मथुरा के राजा [[कंस]] ने [[देवकी]] की सात संतानों को मार डाला था.था। कहा जाता है कि आठवीं संतान एक बालिका थी और जब कंस ने इस शिला पर पटक कर उसे भी मौत के घाट उतारना चाहा तो वह उसके हाथों से छूट गयी. आकाशगामी हो कर उस [[योगमाया]] ने (अष्टभुजा देवी के रूप में प्रकट हो कर) कंस के वध की भविष्यवाणी की.''
 
''जैसोर के राजा विक्रमादित्य का पुत्र प्रतापादित्य [[मथुरा]] से इसी शिला को अपने पिता के राज्य [[जैसोर]] (बंगाल) ले गया.गया। जब वह राजा बना, तो आमेर के [[राजा मानसिंह]](प्रथम) ने (बंगाल-बिहार के सूबेदार के नाते) जैसोर को मुग़ल सत्ता के अधीन करने के लिए उस पर आक्रमण कर दिया. प्रतापादित्य को युद्ध में पराजित कर अकबर के सेनापति [[राजा मानसिंह]] इस शिला को [[आमेर]] ले आये." ''उस 'भयंकर' शिला के साथ विद्याधर के पूर्वज दस वैदिक बंगाली ब्राह्मण भी आमेर आये थे जिनकी चर्चा ऊपर की गयी है.है। "तांत्रिक-पद्धति से पूजा अर्चना करने वाले वैदिक [[बंगाली]] ब्राह्मणों के परामर्श से इस शिला पर अष्टभुजा [[महिषासुर]]मर्दिनी | [[महिषासुर मर्दिनी]] की सुन्दर प्रतिमा उत्कीर्ण करवाई गयी"''<ref> 7.'जयपुर-दर्शन' प्रकाशक : प्रधान-सम्पादक : [डॉ॰ प्रभुदयाल शर्मा 'सहृदय'नाट्याचार्य] वर्ष 1978 [पेज 210] प्रकाशक : जयपुर अढाई शती समारोह समिति, नगर विकास व्यास (अब जयपुर विकास प्राधिकरण) परिसर, भवानी सिंह मार्ग, जयपुर,</ref>
और आमेर महलों में एक मंदिर निर्मित करवा कर विधिवत प्रतिष्ठित कर दी गयी. आज भी आमेर के राजप्रासाद में यही मूर्ति विद्यमान है.है। पशुबलि पर कानूनी-प्रतिबन्ध लगने से पहले इस विग्रह पर एक समय [[दुर्गा]] [[अष्टमी]] के दिन जीवित महिष (भेंसे) (और बाद में बकरे) की बलि भी दी जाती थी.थी।
 
== पुस्तक सन्दर्भ ==