"विश्वविद्यालय": अवतरणों में अंतर

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[[ईस्ट इंडिया कंपनी]] के शासनकाल में [[कलकत्ता]] मदरसा और [[बनारस संस्कृत कालेज]] उच्च शिक्षाकेंद्र के रूप में स्थापित हुए। सन् 1845 ई. में [[बंगाल]] काउंसिल ऑव एजूकेशन ने पहली बार कलकत्ते में एक विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए प्रस्ताव पास किया जिसे आगे चलकर सन् 1854 ई. के वुड के घोषणापत्र ने स्वीकार किया। इसके अनुसार कलकत्ता विश्वविद्यालय की योजना लंदन विश्वविद्यालय के आदर्श पर बनाई गई थी और उसमें कुलपति, उपकुलपति, सीनेट, अध्ययन-अध्यापन, परीक्षा, आदि की व्यवस्था की गई। सन् 1856 ई. तक कलकत्ता, बंबई और मद्रास में विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए योजनाएँ तैयार हो गईं और 24 जनवरी, 1857 ई. को तत्संबंधी बिलों को भारत के गवर्नरजनरल की स्वीकृति प्राप्त हो गई। कलकत्ता विश्वविद्यालय ने पहले कार्य आरंभ किया और बाद में उसी वर्ष बंबई तथा मद्रास विश्वविद्यालय ने। प्रारंभ में इन विश्वविद्यालयों में चार प्रभाग, कला, कानून, चिकित्सा और इंजीनियरिंग के खोले गए। ये विश्वविद्यालय महाविद्यालयों को संबंधित (affiliate) करनेवाले थे। बंबई और मद्रास विश्वविद्यालयों का यह अधिकार अपने ही प्रांतों तक सीमित रहा। सन् 1867 ई. में पंजाब प्रांत में एक विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए प्रस्ताव किया गया और सन् 1882 ई. में विशेषत: पूर्वी भाषाओं के अध्ययन के लिए पंजाब विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। सन् 1882 ई. के शिक्षा आयोग ने महाविद्यालयीय शिक्षा तथा वित्त संबंधी परिस्थिति का पूर्णरूपेण पुनरवलोकन किया और अपने सुझाव दिए। सन् 1857 ई. में इलाहाबाद में एक विश्वविद्यालय स्थापित किया गया। सन् 1902 ई. के विश्वविद्यालय आयोग ने विश्वविद्यालयों को "शिक्षण संस्थाओं" के रूप में, तथा सीनेट, सिंडीकेट और फ़ैकल्टी" को मान्यता देने की संस्तुति की। सन् 1904 ई. के विश्वविद्यालय अधिनियम के द्वारा सीनेट के संघटन में परिवर्तन हुआ, उसकी सदस्यसंख्या में वृद्धि हुई; सिंडीकेट को कानूनी मान्यता मिली और उसमें अध्यापकों का प्रतिनिधित्व भी रहा; प्राचार्य एवं अध्यापकों की नियुक्ति के नियम तथा शर्तें निश्चित हुईं। सन् 1913 ई. की शैक्षिक नीति के आधार पर ढाका, अलीगढ़, बनारस, पटना, नागपुर आदि में नए शिक्षण तथा सावास विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई। 1916 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने स्नातकोत्तर शिक्षा विभागों को प्रारंभ किया। इस विश्वविद्यालय की दशा की जाँच के लिए थ्द्वअ 1917 ई. में कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग बना जिसकी रिपोर्ट ने देश में उच्च शिक्षा के रूप एवं विकास पर विशेष प्रभाव डाला। अब विश्वविद्यालय साधारणतया माध्यमिक शिक्षा कार्य से अलग हो जाए और उनका ध्यान स्नातक तथा स्नातकोत्तर अध्ययन पर केंद्रित हुआ। पाठ्य विषयों की संख्या तथा उनके विस्तार में वृद्धि हुई और शिक्षक प्रशिक्षण, कानून, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, भवननिर्माण, कृषि आदि विषयों का अध्यापन होने लगा। सन् 1924 ई. में अंतर्विश्वविद्यालय परिषद बना जिसने विश्वविद्यालयों के कार्य को सुगठित किया। माध्यमिक शिक्षा के निरंतर विस्तार होने से विश्वविद्यालयों की संख्या भी क्रमश: बढ़ती गई जैसा कि केंद्रीय सलाहकार समिति की रिपोर्टों से प्रकट होता है।
 
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद सन् 1948 ई. में डा.डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता में एक विश्वविद्यालय आयोग की स्थापना हुई जिसने भारतीय विश्वविद्यालयों को राष्ट्रीय एवम् जनतंत्रात्मक आधार पर पुन:संगठित करने के लिए विस्तृत सुझाव दिए। देश की दशा एवम् आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए नवीन पाठ्यविषयों को प्रारंभ करने पर जोर दिया गया। इस आयोग की रिपोर्ट के बाद विश्वविद्यालयों की संख्या बढ़ी। विश्वविद्यालयों की आर्थिक दशा की जाँच करने और उच्च शिक्षा के प्रसार हेतु उन्हें उचित अनुदान देने के लिए केंद्रीय सरकार ने एक विश्वविद्यालय अनुदान समिति (University Grants Commission) बनाई। भारतीय विश्वविद्यालय शिक्षण तथा संबंधित करनेवाले (affliliating) दोनों प्रकार के हैं। विश्वविद्यालय अनुदान समिति संस्थाओं के शिक्षण रूप धारण करने पर अधिक बल देती है।
 
कुछ भारतीय विश्वविद्यालय केंद्रीय सरकार पर आधारित हैं, यथा बनारस, अलीगढ़, अलीगढ़, विश्वभारती आदि। अन्य प्रांतीय विश्वविद्यालय शिक्षण करनेवाले तथा सावास हैं। इनमें विद्यार्थी छात्रावास में रहते, तथा विद्याध्ययन करते हैं। दूसरे प्रकार के विश्वविद्यालय वे हैं जो केवल परीक्षा लेते तथा महाविद्यालयों को संबंधित करते हैं। इन विश्वविद्यालयों में भी अब थोड़ा बहुत शिक्षण कार्य होने लगा है।