"लोक संगीत": अवतरणों में अंतर

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10:42, 25 अगस्त 2006 का अवतरण

वैदिक ॠचाओं की तरह लोकगीत अत्यंत प्राचीन एवं मानवीय संवेदनाओं के सहजतम उद्गार हैं। ये लेखनी द्वारा नहीं बल्कि लोक-जिह्वा का सहारा लेकर जन-मानस से निःसृत होकर आज तक जीवित रहे।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि लोकगीतों में धरती गाती है, पर्वत गाते हैं, नदियां गाती हैं, फसलें गाती हैं। उत्सव, मेले और अन्य मधुर कंठों में लोक समूह गीते हैं।

स्व, रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों में जैसे कोई नदी किसी घोर अंधकारमयी गुफ़ा में से बहकर आती हो और किसी को उसके उद्गम का पता न हो, ठीक यही दशा लोकगीतों के प्रभाव को विद्वान मनीषियों ने स्वीकारी है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस प्रभाव को स्वीकृति देते हुए कहते हैं जब-जब शिष्टों का काव्य पंडितों द्वारा बंधकर निश्चेष्ट और संकुचित होगा तब-तब उसे सजीव और चेतन प्रसार देश के सामान्य जनता के बीच स्वच्छंद बहती हुई प्राकृतिक भाव धारा से जीवन तत्व ग्रहण करने से ही प्राप्त होगा।

लोकगीत तो प्रकृति के उद्गार हैं। साहित्य की छंदबद्धता एवं अलंकारों से मुक्त रहकर ये मानवीय संवेदनाओं के संवाहक के रूप में माधुर्य प्रवाहित कर हमें तन्मयता के लोक में पहुंचा देते हैं। लोकगीतों के विषय सामान्य मानव की सहज संवेदना से जुडे हुए हैं। जिसमें प्राकृतिक सौंदर्य सुख दुख और विभिन्न संस्कारों और जन्म मृत्यु को बड़े ही हृदयस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

संगीतमयी प्रकृति जब गुनगुना उठती है लोकगीतों का स्फुरण हो उठना स्वाभाविक ही है। विभिन्न ॠतुओं के सहजतम प्रभाव से अनुप्राणित ये लोकगीत प्रकृति रस में लीन हो उठते हैं। पावसी संवेदनाओं ने तो इन गीतों में जादुई प्रभाव भर दिया है पावस ॠतु में गाए जाने वाले बारह मासा, छैमासा तथा चौमासा गीत इस सत्यता को रेखांकित करने वाले सिद्ध होते हैं। यही नहीं लोकगीतों के स्वर्ण सभी मौसमों की संवेदनाओं के रस से छलकते हुए प्रतीत होते हैं।