"लुईस माउंटबेटन": अवतरणों में अंतर
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== वंशानुक्रम ==
लॉर्ड माउंटबेटन का जन्म ''हिज सीरीन हाइनेस बैटनबर्ग के राजकुमार लुइस '' के रूप में हुआ, हालांकि उनके जर्मन शैलियां और खिताब 1917 में खत्म कर दिए गए थे। वह बैटनबर्ग के राजकुमार लुइस और उनकी पत्नी हीसे व राईन की राजकुमारी विक्टोरिया के दूसरे पुत्र और सबसे छोटी संतान थे। उनके नाना नानी लुडविग चतुर्थ, हीसे व राईन के ग्रांड ड्यूक और ब्रिटेन की राजकुमारी ऐलिस थे, जो महारानी विक्टोरिया और प्रिंस कंसोर्ट अल्बर्ट की बेटी थी। उनके दादा दादी हीसे के राजकुमार अलेक्जेंडर और बैटनबर्ग की राजकुमारी जूलिया थे। उसके दादा दादी की शादी असमान थी, क्योंकि उनकी दादी शाही वंश की नहीं थी, परिणामस्वरुप, उन्हें और उनके पिता को सीरीन हाइनेस की उपाधि दी गयी न की ग्रांड ड्युकल हाइनेस, वे हीसे के राजकुमार कहलाने के अयोग्य थे और उन्हें कम वांछनीय बैटनबर्ग उपाधि दी
उनके पिता का पैंतालीस साल का कैरियर 1912 में अपने शिखर पर पहुंच गया जब उन्हें पहली बार नौवाहनविभाग में फर्स्ट सी लॉर्ड नियुक्त किया गया। हालांकि, दो साल बाद 1914 में, विश्व युद्ध के पहले कुछ महीनों के दौरान यूरोप भर में बढती जर्मन विरोधी भावनाओं और कई हारी हुई समुद्र लड़ाइयों के कारण, राजकुमार लुईस को लगा कि इस पद से हट जाना उनका कर्तव्य था।<ref>लॉर्ड ज़कर्मैन,''बर्मा के अर्ल माउंटबेटन, केजी, ओ एम 25 जून 1900-27'' अगस्त 1979, रॉयल सोसाइटी के सदस्यो6 की याद में, वोल. 27 (नव. 1981) पीपी 355-364. www.jstor.org/stable/769876 पर 13 मई 2009 तक पहुंचा</ref> 1917 में, जब शाही परिवार ने जर्मन नाम और खिताब का उपयोग बंद कर दिया तो बैटनबर्ग के राजकुमार लुइस, लुइस माउंटबेटन बन गए और उन्हें मिल्फोर्ड हैवेन का मार्क्वेश बनाया गया। उसके दूसरे बेटे को ''लॉर्ड लुईस माउंटबेटन '' की शिष्टाचारस्वरुप उपाधि मिली और वह अनौपचारिक रूप से उनकी मौत तक ''लॉर्ड लुईस '' कहा जाता रहा, भले ही बाद में उन्हें सुदूर पूर्व में युद्घकालीन सेवा के लिए वाइसकाउंट बनाया गया और फिर भारत के एक ब्रिटिश शासित देश से एक संप्रभु राज्य बनने में उनकी भूमिका के लिए अर्ल की उपाधि दी
== प्रारंभिक जीवन ==
जीवन के पहले दस वर्षों के लिए माउंटबेटन की पढाई घर पर ही हुई. उसके बाद उन्हें [[हर्टफ़र्डशायर|हर्टफोर्डशायर]] के लाकर्स पार्क स्कूल भेजा गया और अंततः अपने बड़े भाई का अनुसरण करते हुए वह वह नौसेना कैडेट स्कूल
कहा जाता है कि अपने भांजे के नाम बदलने और भविष्य की रानी के साथ सगाई के बाद उन्होंने यूनाइटेड किंगडम के वंश को भविष्य का 'माउंटबेटन घराना' कह दिया था, जबकि राजमाता रानी मेरी ने 'बैटनबर्ग बकवास' के साथ कुछ भी करने से इनकार कर दिया. एक आदेश के बाद शाही घराने का नाम विंडसर बना जो अभी भी कायम है। वैसे यह नाम सम्राट की इच्छा पर बदला जा सकता है। राजकुमार फिलिप और [[एलिजा़बेथ द्वितीय|एलिजाबेथ II]] की शादी के बाद यह फैसला सुनाया गया था कि उनके गैर-शाही अविवाहित वंशज "विंडसर-माउंटबेटन' उपनाम धारण करेंगे. सम्राट के अंतिम संस्कार के एक सप्ताह बाद ही नई रानी के चाचा डिकी ( लॉर्ड माउंटबेटन) ने ब्रोडलैंड्स में मेहमानों के सामने घोषणा की कि "माउंटबेटन का घराना अब राज कर रहा hai!<ref>वि6दसर का युद्ध, 2002</ref>
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=== द्वितीय विश्व युद्ध ===
जब 1939 में जंग छिड़ी, तो माउंटबेटन को सक्रिय रूप से सेना में भेजते हुए उन्हें पांचवीं डिस्ट्रोयर फ्लोटिला के कमांडर के तौर पर एचएमएस केली में मौजूद उनके पोत/जहाज़ पर तैनात कर दिया गया, जो अनेक साहसिक कारनामों के लिए प्रसिद्ध था।<ref name="ReferenceA"/> मई 1940 के शुरुआती दिनों में, एक ब्रिटिश दल की अगुवाई करते हुए माउंटबेटन ने नम्सोस अभियान में लड़ रही मित्र देशों की सेनाओं को धुंध में से भी निकल लिया था। 1940 में ही उन्होंने सेना के काम आने वाले एक छलावरण का अविष्कार किया था, जिसका नाम था ‘माउंटबेटन पिंक नेवल केमोफ्लाज पिगमेंट’. 1941 में क्रीट की लड़ाई के दौरान उनकी जहाज़ डूब
अगस्त 1941 में, माउंटबेटन को नोरफ्लोक, वर्जीनिया में स्थित एचएमएस ''इल्सट्रियस'' का कप्तान नियुक्त कर दिया गया, जिसका मकसद जनवरी के दौरान भूमध्य सागर में [[माल्टा]] पर हुए हमले के नुकसान की मरम्मत करना था। इस दौरान उनके पास अपेक्षाकृत ज्यादा खाली समय था, तो उन्होंने पर्ल हार्बर का अचानक ही मुआयना किया। यहां वो तत्परता की कमी, अमेरिकी थलसेना तथा अमेरिकी फ़ौज में सहयोग की कमी और एक साझा मुख्यालय न होने से नाराज़ थे।
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माउंटबेटन और उनके सहयोगियों की तीन प्रमुख तकनीकी उपलब्धियां हैं: 1) इंग्लैंड के तट से नोर्मंडी तक पानी के नीचे से तेल की पाईप-लाइन का निर्माण करना, 2) बारूद के बक्सों और डूबे हुए जहाजों से एक कृत्रिम बंदरगाह बनाना और 3) धरती और पानी, दोनों जगह चलने वाले टैंक (ज़मीन पर आ सकने वाले पोत) का निर्माण.<ref name="ReferenceA"/>
माउंटबेटन ने एक और परियोजना, हाबाकुक परियोजना का प्रस्ताव चर्चिल को दिया था। यह था वायुयान को ले जाने वाला 600 मीटर का एक बड़ा और अभेद्य वाहक, जो भूसी और बर्फ़ से मिश्रित "पाय्क्रेट" से बनता था। बेहद खर्चीली होने के कारण हाबाकुक परियोजना कभी भी अमल में नहीं आ पाई.<ref name="ReferenceA"/>
[[चित्र:SE 000014 Mountbatten as SACSEA during Arakan tour.jpg|left|thumb|लॉर्ड लुइस माउंटबेटन, सुप्रीम एलाइड कमांडर, फरवरी 1944 में उनके अराकान मोर्चे के दौरे के दौरान देखे
माउंटबेटन दावा था कि जो सबक डिएपे की विनाशक कार्रवाई से सीखे गए थे वो आने वाले दो साल बाद डी-डे पर नॉर्मेंडी आक्रमण के लिए आवश्यक थे। हालांकि, पूर्व रॉयल मरीन जूलियन थॉम्पसन जैसे इतिहासकारों ने लिखा है कि सबक सिखाने कि लिए डिएपे की विनाशनक कार्रवाई की जरूरत नहीं थी।<ref name="Thompson">{{Cite book|last=Thompson|first=Julian|authorlink=Julian Thompson|title=The Royal Marines: from Sea Soldiers to a Special Force|chapter=14. The Mediterranean and Atlantic, 1941–1942|pages=263–9|location=London|publisher=[[Pan Books]]|origyear=2000|year=2001|edition=Paperback|isbn=0-330-37702-7}}</ref> फिर भी, डिएपे की कार्रवाई की असफलताओं से सीख लेते हुए अंग्रेजों ने कई नए तरीके आजमाए - जिनमें सबसे उल्लेखनीय हैं होबार्ट फन्नीज़ - नवाचार, जिसकी वजह से नॉर्मेंडी उतरने के दौरान निसंदेह राष्ट्रमंडल देशों के सिपाहियों ने तीन बीच (गोल्ड बीच, जूनो बीच और स्वॉर्ड बीच) पर कई जानें बचाईं.{{Citation needed|date=August 2010}} {{Or|date=August 2010}}
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अक्टूबर 1943 में, चर्चिल ने माउंटबेटन को दक्षिण पूर्वी एशिया कमान का प्रधान संबद्ध कमांडर नियुक्त किया। उनके कम व्यवहारिक विचारों को लेफ़्टिनेंट कर्नल जेम्स एलासन के नेतृत्व में योजना बनाने वाले अनुभवी कर्मचारियों ने दरकिनार कर दिया, हालांकि उनमें से कुछ प्रस्ताव को, जैसे कि रंगून के निकट जल और थल से हमला करना, चर्चिल के अंत के पहले, उनके समान ही पाया गया।<ref>''हॉट सीट ", जेम्स एलासन, ब्लेकसोर्न, लंदन 2006.'' </ref> वे, 1946 में दक्षिण पूर्वी एशिया कमान (SEAC) के भंग होने तक उस पद पर बने रहे.
उत्तर पूर्वी एशिया थियेटर के प्रधान संबद्ध कमांडर होने के दौरान, उनके आदेश के विरुद्ध जनरल विलियम स्लिम द्वारा [[म्यान्मार|बर्मा]] पर फिर से अधिकार कर
=== अंतिम वायसराय ===
[[क्लिमेण्ट रिचर्ड एट्ली|क्लीमेंट एटली]] को इस भूखंड में मिले अनुभव और उनके लेबर समर्थन की समझ के चलते लड़ाई के बाद उन्हें भारत का वायसराय नियुक्त किया गया। सन १९४८ तक उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्र हो रहे भारत के निरीक्षक पद का कार्यभार सौंपा गया। माउंटबेटन के निर्देशों ने इस पर जोर दिया की सत्ता हस्तांतरण में भारत संगठित रहे, लेकिन यह भी निर्देश दिया कि तेज़ी से परिवर्तित हो रही स्थिति पर अनुकूल रवैया रखें ताकि ब्रिटेन की वापसी में उसके यश को क्षति न
माउंटबेटन [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|कांग्रेसी]] नेता नेहरु के निकटवर्ती थे, उन्हें उनकी भारत के लिए उदारपंथी सोच पसंद थी। वह मुस्लिम नेता जिन्ना के प्रति अलग विचार रखते थे लेकिन वह जिन्ना की ताकत भलीभांति पहचानते थे। उनके शब्दों में "अगर कहा जा सकता हो की १९४७ में एक व्यक्ति के हाथों में भारत का भविष्य था तो वह आदमी मोहम्मद अली जिन्ना था।<ref name="SarJinna">सरदेसाई, ''भारत.'' ''द डेफिनेटिव हिस्टरी'' (बॉल्डर: वेस्टव्यूप्रेस, 2008, पी. 309-313.</ref> मुसलमानों के संगठित भारत में प्रतिनिधित्व के लिए जिन्ना के विवादों से नेहरु और ब्रिटिश थक चुके थे, उन्होंने सोचा की बेहतर होगा अगर मुसलमानों को अलग राष्ट्र दिया जाए बजाय इसके की किसी तरह का समाधान ढूंडा जाये जिसपर जिन्ना और कांग्रेसी दोनों राज़ी हों.<ref name="Greenberg, Jonathan D. 2005">ग्रीनबर्ग, जोनाथन डी. "स्मृति की पीढ़ियां: भारत / पाकिस्तान और इसराइल/फिलिस्तीन के विभाजन की याद". दक्षिण एशिया, अफ्रीका और मध्य पूर्व के २५ का तुलनात्मक अध्ययन, नंबर 1 (2005): 89 . प्रोजेक्ट म्यूज़</ref>
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माउंटबेटन ने निष्कर्ष निकाला कि स्वतन्त्र भारत एक अप्राप्य लक्ष्य है और उन्होंने स्वतन्त्र भारत और [[पाकिस्तान]] के विभाजन की योजना मान ली.<ref name="ReferenceA"/> माउंटबेटन ने मांग की कि एक तय दिन पर ब्रिटिश द्वारा भारतीयों को सत्ता का हस्तांतरण होना चाहिए, मसलन एक समयसीमा से भारतीयों को विश्वास दिलाया जा सकता है कि ब्रिटिश सरकार निष्कपटता से इस जल्द मिलने वाली और कुशल स्वतंत्रता की ओर प्रयासरत है और किसी कारणवश ये प्रक्रिया रुकनी नहीं चाहिए.<ref>ज़िग्लर, ''माउंटबेटन.'' ''भारत में वाइसराय के रूप में बिताए गए वर्षों सहित,'' पी. 355.</ref> उन्होंने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि इस अनसुलझी स्थिति से निबटने के लिए वह १९४७ से आगे का इंतज़ार नहीं करेंगे. इसके विनाशकारी परिणाम भारतीय उपमहाद्वीप पर रहने वाले लोगों पर होने वाले थे।जल्दबाजी में हस्तांतरण की प्रक्रिया एक विध्वंस को सामने लाकर खड़ी करेगी जिसमे ऐसे उत्पात का व्यभिचार और प्रतिशोध उत्पन्न होगा जो भारतीय उपमहाद्वीप ने कभी न देखा हो.
भारतीय नेताओ में गांधी ने बलपूर्वक एक एकजुट भारत के सपने का समर्थन किया और कुछ समय तक लोगों को इस उद्देश्य के लिए एकत्र किया। लेकिन जब माउंटबेटन की सीमा ने जल्द स्वतंत्रता प्राप्त करने की सम्भावना पर मुहर लगायी तब लोगों के मत बदल
माउंटबेटन ने उन भारतीय राजकुमारों के साथ मजबूत रिश्ता भी बनाया, जो भारत के उन हिस्सों पर राज कर रहे थे जो सीधे ब्रिटिश शासन के अंतर्गत नहीं आते थे। इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी पुस्तक ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में कहते हैं कि माउंटबेटन का हस्तक्षेप उन राजकुमारों के एक बड़े बहुमत को भारतीय संघ में शामिल होने का विकल्प अपनाने के लाभ दिखाने में निर्णायक रहा. इसलिए विभिन्न रजवाडों की एकता को उनके योगदान के सकारात्मक पहलू के रूप में देखा जा सकता है।
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जब भारत और पाकिस्तान ने 14 से 15 अगस्त 1947 की रात स्वतंत्रता प्राप्त की, तो माउंटबेटन जून 1948 तक भारत के पहले गवर्नर जनरल के रूप में कार्य करते हुए दस महीने तक [[नई दिल्ली (प्रशासनिक राजधानी क्षेत्र)|नई दिल्ली]] में रहे.
भारत की स्वतंत्रता में अपनी स्वयं की भूमिका के आत्म-प्रचार—विशेषकर अपने दामाद लॉर्ड ब्रेबोर्न और डोमिनिक लापियर व लैरी कॉलिंस की अपेक्षाकृत सनसनीखेज पुस्तक ''फ्रीडम एट मिडनाइट'' में (जिसके मुख्य सूचनाकार वे स्वयं थे)—के बावजूद उनका रिकार्ड बहुत मिश्रित समझा जाता है। एक मुख्य मत यह है कि उन्होंने आजादी की प्रक्रिया में अनुचित और अविवेकपूर्ण जल्दबाजी कराई और ऐसा उन्होंने इसलिए किया क्योंकि उन्हें यह अनुमान हो गया था कि इसमें व्यापक अव्यवस्था और जनहानि होगी और वे नहीं चाहते थे कि यह सब अंग्रेजों के सामने हो और इस प्रकार वे वास्तव में उसके, विशेषकर पंजाब और [[बंगाल]] में घटित होने का कारण बन
1950 के दशक में भारत सरकारों के सलाहकार रहे कनाडियन-अमेरिकी हार्वर्ड विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री जॉन केनेथ गालब्रेथ, जो नेहरू के आत्मीय बन गए थे और जिन्होंने 1961-63 में अमेरिकी राजदूत के रूप में कार्य किया, इस संबंध में माउंटबेटन के विशेष रूप से कड़े आलोचक थे। पंजाब-विभाजन की भयंकर दुर्घटनाओं का सनसनीखेज विवरण कॉलिंस और लापियर की पुस्तक ''फ्रीडम एट मिडनाइट'', जिसके माउंटबेटन स्वयं मुख्य सूचनाकर थे और उसके बाद बापसी सिधवा के उपन्यास ''आइस कैंडी मैन'' (संयुक्त राज्य में ''क्रैकिंग इंडिया'' के रूप में प्रकाशित), जिस पर ''[[अर्थ (१९९८ फ़िल्म)|अर्थ]]'' फिल्म बनी, में दिया गया है। 1986 में आईटीवी ने अंतिम वायसराय के रूप में माउंटबेटन के दिनों का अनेक भागों में नाट्य रूपांतर प्रसारित किया''[[Lord Mountbatten: The Last Viceroy]]'' .
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चार्ल्स ने अमांडा की माता (जो उनकी दादी थी), लेडी ब्रेबॉर्न, को अपनी रुचि के बारे में पत्र लिखा. उनका उत्तर पक्ष में था, लेकिन उन्होंने सलाह दी थी कि उनके हिसाब से उनकी बेटी राजगृह में जाने के लिए अभी छोटी हैं।<ref name="JD">{{Cite book| last=Dimbleby| first = Jonathan| authorlink = Jonathan Dimbleby| title = The Prince of Wales: A Biography| location = New York| publisher = William Morrow and Company| year = 1994| pages = 263–265|isbn =0-688-12996-X}}</ref>
चार साल बाद माउंटबेटन ने 1980 की उनकी भारत की योजनाबद्ध यात्रा के लिए स्वंय और चार्ल्स का साथ देने के लिए अमांडा का आंमत्रण सुरक्षित कर
चार्ल्स की भारत की यात्रा को पुनः निर्धारित की गई, लेकिन प्रस्थान के योजना की तिथि तक माउंटबेटन जीवित नहीं रहे. जब 1979 में, चार्ल्स ने अंततः अमांदा के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा, लेकिन उस समय तक परिस्थितियां नाटकीय रूप से बदल गई थीं और अमांडा ने चार्ल्स का विवाह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया.<ref name="JD"/>
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== हत्या ==
माउंटबेटन आमतौर पर छुट्टियां मनाने मुलघमोर, काउंटी सिल्गो के अपने ग्रीष्मकालीन घर जाते थे, यह आयरलैंड के उत्तरी समुद्री तट बुंड्रोन, काउंटी डोनेगल और सिल्गो, काउंटी सिल्गो के बीच बसा एक छोटा समुद्रतटीय गांव है। बुंड्रोन मुलघमोर आईआरए के स्वयंसेवकों में बहुत लोकप्रिय अवकाश गंतव्य था, उनमें से कई वहां माउंटबेटन की उपस्थिति और मुलघमोर के आंदोलनों से अवगत हो सकते हैं। {{Citation needed|date=December 2009}} गार्डा सिओचना के सुरक्षा सलाह और चेतावनियों के बावजूद, 27 अगस्त 1979 को, माउंटबेटन एक तीस फुट (10 मीटर) लकड़ी की नाव, ''शेडो वी'' में लॉबस्टर के शिकार और टुना मछली पकड़ने के लिए potting बंदरगाह पर और टूना मछली पकड़ने गए, जो मुलघमोर के बंदरगाह में दलदल में फ6स गया था। थॉमस मैकमोहन नामक एक आईआरए सदस्य उस रात सुरक्षा रहित नाव से फिसल कर गिरते गिरते एक रेडियो नियंत्रित पचास पाउंड (२३ किग्रा) का बम नाव में लगा गया। जब माउंटबेटन नाव पर डोनेगल बे जा रहे थे, एक अज्ञात व्यक्ति ने किनारे से बम को विस्फोट कर दिया. मैकमोहन को [[लॉंगफ़र्ड, लंदन|लॉगफ़ोर्ड]] और ग्रेनार्ड के बीच गार्डा नाके पर पहले ही गिरफ्तार किया गया था। माउंटबेटन, उस समय 79 वर्ष के थे, गंभीर रूप से घायल हो गए थे और विस्फ़ोट के तुरंत बाद बेहोश होकर गिर गए और उनकी मृत्यु हो
निकोलस नैचबुल के माता और पिता, उसके जुड़वें भाई तीमुथि सहित, विस्फ़ोट में बच गए थे लेकिन गंभीर रूप से घायल हो गए थे।
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== अंतिम संस्कार ==
[[चित्र:Mountbatten's grave at Romsey Abbey.JPG|thumb|रोम्से एब्बे में माउंटबेटन का कब्र]]
आयरलैंड के राष्ट्रपति, पैट्रिक हिलेरी और टाओइसीच, जैक लिंच, ने डबलिन में सेंट पट्रिक के कैथेड्रल में माउंटबेटन की यादगार सेवा में भाग
माउंटबेटन को वेस्टमिंस्टर एब्बे मे6 टीवे पर प्रसारित अंतिम संस्कार, जो कि पूर्ण रूप से योजनाबद्ध थी, के बाद रोम्से एब्बे में दफनाया गया था।<ref>{{Cite journal| last = Hugo| first = Vickers| title = The Man Who Was Never Wrong| journal = Royalty Monthly| page = 42|date=November 1989| postscript = <!--None-->}}</ref>
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