"ज्ञान": अवतरणों में अंतर

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'''स्वप्रसारित ज्ञान और केंद्र प्रसारित ज्ञान'''-
स्वप्रसारित ज्ञान अनादि सत्ता है और केंद्र प्रसारित ज्ञान मस्तिस्क से प्रसारित होने वाला ज्ञान है। केंद्र प्रसारित ज्ञान मृत्यु के साथ बीज रूप में स्वप्रसारित ज्ञान में लीन हो जाता है, पुनः सुसुप्ति से स्वप्न और जाग्रत अवस्था की तरह जन्म लेता है। स्व प्रसारित ज्ञान सर्वत्र है। केंद्र प्रसारित ज्ञान देह बद्ध है। केंद्र प्रसारित ज्ञान के कारण अहँकार की सत्ता है। स्व प्रसारित ज्ञान परमात्मतत्त्व है। जिस प्रकार केंद्र प्रसारित ज्ञान देह का भासित ईश्वर है उसी प्रकार स्व प्रसारित ज्ञान सृष्टि का ईश्वर है। स्व प्रसारित ज्ञान का जब एक अंश अपरा (जड़ ) प्रकृति को स्वीकार कर लेता है तो केंद्र प्रसारित ज्ञान का उदय होता है और वह प्रजापति होकर शरीर का कारण दिखायी देता है। स्व प्रसारित ज्ञान साक्षी रूप में देह में भासित होता है केंद्र प्रसारित ज्ञान कर्ता, भोक्ता के रूप में दिखायी देता है। जब तक स्मृति है तब तक देहस्थ मैं का बोध है और जब स्मृति निरति में विलीन हो जाती है तब स्वरूप स्थिति का बोध होता है जो यथार्थ मैं है। यह ही ब्रह्म बोध है यहाँ वह जानता है ‘अहम् ब्रह्मास्मि’.
सन्दर्भ - बसंत प्रभात जोशी के आलेख से
 
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