"राप्ती अंचल": अवतरणों में अंतर

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[[नेपाली साहित्य]] में राप्ती अंचल के थारू लोक साहित्य का अपना विशिष्ट स्थान है। खुलेपन की हवा और युग की मांग ने इस थारू लोक साहित्य को भी अपनी लपेट में ले लिया है। यह एक सुखद बात है कि आज राप्ती अंचल में भी समग्र क्रान्ति के मशालवाहक अनेक साहित्यकार हैं, जिनसे भावी अपराजेय और अविन प्रगतिशील नेपाल को बहुत आशाएँ हैं।युगों-युगों की निरक्षरता, अभाव और गरीबी ने थारू लोक जीवन के सत- उसके आनंद और रस को बूंद-बूंद निचोड़ लिया है। राप्ती अंचल के युवा कवि अपनी इस नियति को बदलना चाहते हैं। वे काँटों के बीच ही फिर से फूल की तरह खिलना, मुसकुराना और महक बिखेरना चाहते हैं। एक उदाहरण देखें - "हिला-किंचा में जन्म लेले /कांटा-मूला से लदले-भिले/ जिंदगी भर सुख-दुख को तोर नै हो परवाह /....मूस-मूस मुसकी मूर्ति / हृदय में विकास को कामना/ करती आगे बढ़ाना/ ओहे मधुर-मुस्कान को साथ /....अमिट बनले समाज में / बस-सुवास भालें देवतन में।<ref>फूला, जनार्दन चौधरी का कविता संग्रह, पृष्ठ 28 </ref>
 
यहाँ के प्रमुख समकालीन साहित्यकार हैं गणेश कुमार चौधरी,टेक बहादुर चौधरी, फूलमान चौधरी, रूप मन चौधरी, लक्ष्मण गोचाली और जनार्दन चौधरी आदि।<ref>उर्विजा (अनियतकालिक पत्रिका),1995, वर्ष-3, अंक-5,सीतामढ़ी, संपादक: रवीन्द्र प्रभात, लेख: समकालीन नेपाली साहित्य (राप्ती अंचल), लेखक :डॉ जगदीश नारायण सिंह निर्भीक, पृष्ठ -85 </ref>
 
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