"स्वप्न": अवतरणों में अंतर

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स्वप्न के विषय में सबसे महत्व की खोजें डाक्टर [[सिगमंड फ्रायड]] ने की हैं। इन्होंने अपने अध्ययन से यह निर्धारित किया कि मनुष्य के भीतरी मन को जानने के लिए उसके स्वप्नों को जानना नितांत आवश्यक है। "इंटरप्रिटेशन ऑव ड्रीम्स ऑव ड्रीम्स" नामक अपने ग्रंथ में इन्होंने यह बताने की चेष्टा की है कि जिन स्वप्नों को हम निरर्थक समझते हैं उनके विशेष अर्थ होते हैं। इन्होंने स्वप्नों के संकेतों के अर्थ बताने और उनकी रचना को स्पष्ट करने की चेष्टा की है। इनके कथनानुसार स्वप्न हमारी उन इच्छाओं को सामान्य रूप से अथवा प्रतीक रूप से व्यक्त करता है जिसकी तृप्ति जाग्रत अवस्था में नहीं होती। पिता की डाँट के डर से जब बालक मिठाई और खिलौने खरीदने की अपनी इच्छा को प्रकट नहीं करता तो उसकी दमित इच्छा स्वप्न के द्वारा अपनी तृप्ति पा लेती है। जैसे जैसे मनुष्य की उम्र बढ़ती जात है उसका समाज का भय जटिल होता जाता है। इस भय के कारण वह अपनी अनुचित इच्छाओं को न केवल दूसरों से छिपाने की चेष्टा करता है वरन् वह स्वयं से भी छिपाता है। डाक्टर फ्रायड के अनुसार मनुष्य के मन के तीन भाग हैं। पहला भाग वह है जिसमें सभी इच्छाएँ आकर अपनी तृप्ति पाती हैं। इनकी तृप्ति के लिए मनुष्य को अपनी इच्छाशक्ति से काम लेना पड़ता है। मन का यह भाग चेतन मन कहलाता है। यह भाग बाहरी जगत् से व्यक्ति का समन्वय स्थापित करता है। मनुष्य के मन का दूसरा भाग अचेतन मन कहलाता है। यह भाग उसकी सभी प्रकार की भोगेच्छाओं का आश्रय है। इसी में उसकी सभी दमित इच्छाएँ रहती हैं। उसके मन का तीसरा भाग अवचेतन मन कहलाता है। इस भाग में मनुष्य का नैतिक स्वत्व रहता है। डाक्टर फ्रायड ने नैतिक स्वत्व को राज्य के सेन्सर विभाग की उपमा दी है। जिस प्रकार राज्य का सेन्सर विभाग किसी नए समाचार के प्रकाशित होने के पूर्व उसकी छानबीन कर लेता है। उसी प्रकार मनुष्य के अवचेतन मन में उपस्थित सेन्सर अर्थात् नैतिक स्वत्व किसी भी वासना के स्वप्नचेतना में प्रकाशित होने के पूर्व काँट छाँट कर देता है। अत्यंत अप्रिय अथवा अनैतिक स्वप्न देखने के पश्चात् मनुष्य को आत्मभत्र्सना होती है। स्वप्नद्रष्टा को इस आत्मभत्र्सना से बचाने के लिए उसके मन का सेन्सर विभाग स्वप्नों में अनेक प्रकार की तोड़मरोड़ करके दबी इच्छा को प्रकाशित करता है। फिर जाग्रत होने पर यही सेन्सर हमें स्वप्न के उस भाग को भुलवा देता है। जिससे आत्मभत्र्सना हो। इसी कारण हम पूरे स्वप्नों को ही भूल जाते हैं।
 
डा.डॉ॰ फ्रायड ने स्वप्नों के प्रतीकों के विशेष प्रकार के अर्थ बताएँ हैं। इनमें से अधिक प्रतीक जननेंद्रिय संबंधी हैं। उनके कथनानुसार स्वप्न में होनेवाली बहुत सी निरर्थक क्रियाएँ रतिक्रिया की बोधक होती हैं। उनका कथन है कि मनुष्य की प्रधान वासना, कामवासना है। इसी से उसे अधिक से अधिक शारीरिक सुख मिलता है और इसी का उसके जीवन में सर्वाधिक रूप से दमन भी होता है। स्वप्न में अधिकतर हमारी दमित इच्छाएँ ही छिपकर विभिन्न प्रतीकों द्वारा प्रकाशित होती हैं। सबसे अधिक दयित होनेवाली इच्छा कामेच्छा है। इसलिए हमारे अधिक स्वप्न उसी से संबंध रखते हैं। मानसिक रोगियों के विषय में देखा गया है कि एक ओर उसकी प्रबल कामेच्छा दमित अवस्था में रहती है और दूसरी ओर उसकी उपस्थिति स्वीकार करना उनके लिए कठिन होता है। इसलिए ही मानसिक रोगियों के स्वप्न न केवल जटिल होते हैं वरन् वे भूल भी जाते हैं।
 
==== स्वप्नरचना के प्रकार ====
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* [http://www.achhikhabar.com/2011/11/17/dreams-quotes-in-hindi/ स्वप्न पर महान व्यक्तियों के विचार]
स्वप्न का विज्ञान -
हम रात भर स्वप्न देखते हैं.हैं। दिवा स्वप्न भी अक्सर लोग देखते रहते हैं, दिवा स्वप्न कल्पना कहलाते हैं.हैं। नीद में देखा गया स्वप्न ही स्वप्न होता है.है। कभी कभी कुछ कम अवधि के स्वप्न याद रहते हैं.हैं।
श्रुति में स्वप्न के विषय में जगह जगह चर्चा हुयी है.है।
वृहदारण्यक उपनिषद् में स्वप्न के विषय में प्रसंग है,जिस प्रकार एक राजा अपने सेवक और प्रजा के साथ देश का भ्रमण करता है उसी प्रकार जीव स्वप्नावस्था में प्राण, शब्द, वाणी आदि को लेकर इस शरीर में इच्छानुसार विचरता है.है। वृहदारण्यक उपनिषद् में वर्णन है स्वप्नावस्था में जीव लोक–परलोक दोनों देखता है और दुःख सुख दोनों का अनुभव करता है.है। इस स्थूल शरीर को अचेत करके जीव वासनामय शरीर की रचना करता है फिर लोक परलोक देखता है.है।
इस अवस्था में देश-विदेश,नदी, तालाब, सागर, पर्वत मैदान. वृक्ष, मल, मूत्र, स्त्री, पुरुष, सेक्स, क्रोध, भय आदि नाना प्रकार के संसार की रचना कर लेता है.है।
जीव द्वारा स्वप्न में भी सृष्टि-सांसारिक पदार्थों की रचना होती है.है। यह रचना अत्यंत रहस्यमय और अति विचित्र होती है.है।
मांडूक्योपनिषद् में गूढ़ रूप से स्वप्न को स्पष्ट किया है.है।
 
स्वप्न भांति सम व्याप्त जग
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तैजस दूसर पाद.
 
विशेष – सात अंग सात लोक हैं.हैं। मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा, सहत्रधार चक्र. उन्नीस मुख पांच कर्मेन्द्रियाँ,पांच ज्ञानेन्द्रियाँ.पांच प्राण- प्राण, अपान, समान,’व्यान, उदान तथा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार.
 
उकार मात्रा दूसरी
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तैजस दूसर पाद
 
स्वप्न में जीवात्मा अपनी सभी उपाधियों के समूह साथ एक होता है,इस समय अन्तःकरण तेजोमय होने के कारण इस अवस्था में आत्मा को तैजस कहा है.है। तैजस ब्रह्म की ऊपर से नीचे तीसरी अवस्था है.है। स्वप्नावस्था में दोनों जीवात्मा और आत्मा का तैजस स्वरूप मनोवृत्ति से शब्द स्पर्श रूप रस गंध का अनुभव करते हैं.हैं। तैजस सूक्ष्म विषयों का भोक्ता है.है। जीवात्मा और आत्मा का तैजस स्वरूप दोनों अभेद हैं जैसे जल की बूंद में और जलाशय मैं पडने वाला आकाश का प्रतिविम्ब.
कठोपनिषद कहता है- ‘य एष सुप्तेषु जागर्ति कामं कामं पुरुषो निर्मिमाणः’ यह पुरुष जो नाना भोगों की रचना करता है सबके सो जाने पर स्वयं जागता है.है। यहाँ पुरुष को कामनाओं का निर्माता बतलाया है.है। अतः सिद्ध है स्वप्न में भी सृष्टि होती है,
क्या स्वप्न में हुई सृष्टि वास्तविक है.है।-तात्कालिक रूप से स्वप्न में हुई सृष्टि का कोई अस्तित्व नहीं दिखायी देता परन्तु इस विषय में मेरा निश्चित विचार है कि स्वप्न में जो भी देखा सुना जाता है उसे सृष्टि में किसी न किसी जगह किसी न किसी जीव अथवा पदार्थ के रूप में होना निश्चित है.है। स्वप्न और सृष्टि के विकास का गहरा सम्बन्ध है स्वप्न है तो सृष्टि है और सृष्टि है तो स्वप्न हैं.हैं।
 
स्वप्न के शुभ–अशुभ परिणाम-
श्रुति का इस विषय में निश्चत मत है कि स्वप्न भविष्य में होने वाले शुभ–अशुभ परिणाम के सूचक हैं.हैं।
एतरेय आरण्यक के अनुसार स्वप्न में दांत वाले पुरुष को देखना मृत्यु का सूचक है.है।
 
छान्दग्योपनिषद में कहा है जब कामना की पूर्ति के लिए स्वप्न में स्त्री को देखना समृद्धि का सूचक है.आदिहै।आदि
 
सुसुप्ति का रहस्य-
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तमोऽभिभूतः सुखरूपमेति – केवल्य
 
प्रत्येक प्राणी के लिए नीद आवश्यक है नीद की दो अवस्थाएँ है.स्वप्नावास्थाहै।स्वप्नावास्था और सुषुप्ति. सुषुप्ति वह अवस्था है जब कोई स्वप्न भी नहीं रहता. प्रश्नोपनिषद बताता है जब उदान वायु द्वारा CNS (स्नायुतंत्र पर) पूर्ण रूप से अधिकार कर लिया जाता है तब सुषुप्ति अवस्था होती है.है।
वेदान्त बताता है सुषुप्ति काल में इन्द्रियों और उनके विषय नहीं रहते. इस अवस्था में कोई आसक्ति न होने से यहाँ जीव आनन्द का अनुभव करता है.है।
सुषुप्ति काल में स्थूल और सूक्ष्म दोनों विलीन हो जाते हैं.व्यावहारिकसत्ताहैं।व्यावहारिकसत्ता और स्वप्न प्रपंच अपने कारण अज्ञान में लीन हो जाते हैं.हैं। केवल शुद्ध चेतन्य अंश उपस्थित रहता है.है। इस अवस्था में ईश्वर और जीव आनन्द का अनभव करते हैं परन्तु इस समय वृत्ति अज्ञानमय होती है
मांडूक्योपनिषद् सुषुप्ति को स्पष्ट करता है.है।
 
नहीं स्वप्न नहिं दृश्य
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सब लय होत स्वभाव.
 
चैतन्य से दीप्त अज्ञान वृत्ति से मुक्त होकर आनन्द को भोगता है.है। इसी कारण सोकर उठा हुआ मनुष्य कहता है मैं सुख पूर्वक सोया, बढ़े चैन से सोया, इन शब्दों से सुषुप्ति में आनन्द के अस्तित्व का पता चलता है.है। मुझे कुछ याद नहीं है,इससे अज्ञान के अस्तित्व का भी पता चलता है.है।