"शिवमहिमा": अवतरणों में अंतर

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=== शिवमहिमा===
एक ही तत्व की तीन परम मूर्तियों (ब्रह्मा,विष्णु,शिव) में अन्तिम मूर्ति का नाम ही शिव है,ब्रह्मा का कार्य सृष्टि,विष्णु का स्थिति (पालन) और शिव का कार्य संहार करना है,परन्तु साम्प्रदायक शैवों के अनुसार शिव परम तत्व है,और उनके कार्यों मे संहार के अतिरिक्त सृष्टि और पालन के कार्य भी सम्मिलित है,शिव परम कारुणिक भी है,और उनमे अनुग्रह अथवा प्रसाद तथा तिरो भाव( (गोपन और लोपन) की क्रिया भी पायी जाती है,इस प्रकार उनके कार्य पांच प्रकार के हैं,शिव की विभिन्न अभिव्यक्तियां इन्ही कार्यों मे से किसी न किसी से सम्बन्धित हैं,इनका उद्देश्य भक्तों का कल्याण करना है,शिव विभिन्न कलाओं और सिद्धियों के प्रवर्तक भी माने गये हैं,संगीत,नृत्य,योग,व्याकरण,व्याख्यान,भैषज्य,आदि के मूल प्रवर्तक शिव ही हैं,इनकी कल्पना सब जीवधारियों के स्वामी के रूप मे की गयी है,इसी लिये यह पशुपति,भूतपति,और भूतनाथ कहे गये है,शिव सभी देवताओं मे श्रेष्ठ कहे गये है,इसी लिये महेश्वर और महादेव इनके विरुद पाये जाते है,इनमे माया की अनन्त शक्ति है,इसी लिये शिव मायापति भी है,उमा के पति होने से शिव का एक पर्याय उमापति भी है,इनके अनेक विरुद और पर्याय है,(महाभारत १३,१७) में इनकी एक लम्बी सहस्त्रनाम सूची है,शिव की कल्पना की उतपत्ति और विकास का क्रम वैदिक साहित्य से ही मिलना शुरु हो जाता है,ऋग्वेद मे रुद्र की कल्पना में ही शिव की अनेक विशेषताओं और तत्सम्बन्धी पौराणिक गाथाओं के मूल का समावेश है,इसी प्रकार शुक्ल (यजुर्वेद) की वाजसनेयी संहिता (अ.६) में जो शतरुद्रिय पाठ है,उसमे शिव का मूल रूप प्रतिबिम्बित है,उसमे शिव को गिरीश (पर्वत पर रहने वाला),पशुचर्म धारण करने वाला (कृत्तिवास) तथा जटा जूट रकहेन वाला (कपर्दी) कहा गया है,(अथर्ववेद) में रुद्र की बडी महिमा बतायी गयी है,और उनके लिये भव,शर्व,रुद्र और पशुपति,उग्र,महादेव,और ईशान विरुदों का प्रयोग किया गया है,(सिन्धुघाटी) के उत्खनन से जो धार्मिक वस्तुयें मिली है,उनमे योगी शिव की भी एक प्रतिकृति है,परन्तु अभी तक संज्ञा के रूप में शिव का नाम न मिलकर विशेषण के रूप में ही मिला है,(उत्तरवैदिक साहित्य) शिव रुद्र के पर्याय के रूप में मिलते हैं,(श्वेताश्वतर उपनिषद) रुद्र के अनेक नामों में शिव भी एक नाम है,(शांखायन) और (कौषीतकि) आदि ब्राह्मणों में शिव रुद्र महादेव, ईशान,आदि रुद्र के नाम मिलते है,(शतपथ) और (कौषीतकि) ब्राह्मण में रुद्र का एक विरुद अशनि भी पाया जाता है,इन आथ विरुदों में रुद्र,शर्व,उग्र,तथा अशनि शिव के घोर (भयंकर) रूप का प्रतिधिनित्व करते हैं,इसी प्रकार भव,पशुपति,महादेव,और ईशान उनके सौम्य (सुन्दर) रूप का वर्णन करते है,(यजुर्वेद) में उनके मान्गलिक विरुद शम्भु और शंकर का भी उल्लेख है,शिवकी पूजा का क्रमश: विकास कब हुआ यह बतलाना कठिन है,किन्तु इतना निश्चित है कि ईशा पूर्व मे ही शैव सम्प्रदाय का उदय हो चुका था,(पाणिनि ने अष्टाध्यायी ४.१.११५) में शिव उपासकों का उल्लेख किया है,(पतंजलि) ने महाभाष्य में यह भी कहा है कि शिवभागवत अय:शूल (त्रिशूल) और दण्डाजनि धारण करते थे,पुराणो में जिनमे शैव पुराणो में शिव का विस्तृत वर्णन और शिवत्व का विवेचन पाया जाता है,संस्कृत के शुद्ध साहित्य और अभिलेखों में शिव की स्तुतियां भरी पडी है,पुराणो और परवर्ती साहित्य में शिव की कल्पना योगिराज के रूप में की गयी है,उनका निवास स्थान कैलाश पर्वत है,व्याघ्र चर्म (बाघम्बर) पर वे बैठते है,और ध्यान में मग्न रहते हैं,वे अपने ध्यान और तपोबल से जगत को धारण करते हैं,उनके शिर पर जताजूट है जिसमे द्वितीया का चन्द्रमा नवचन्द्र जटित है,इसी जटा से जगत्पावनी गंगा प्रवाहित होती है,उनके दाहिने भाग में कमण्डल,त्रिशूल और त्रिशूल के उपरत्व भाग में डमरू स्थापित है,सर्पों की माला उनके गले में है,दाहिना हाथ वरमुद्रा में और बायां हाथ माला को लेकर जाप मुद्रा मे है,दोनो आंखों के बीच मे शिव का तीसरा नेत्र है,जो उनके कुपित होने पर ही खुलता है,और उसके खुलने पर पृथ्वी के पापियों का नाश होजाता है,यही नेत्र अन्तर्द्रष्टि और ज्ञान का प्रतीक भी है,इसी से शिव ने काम दहन किया था,शिवजी का कण्ठ नीला है,समुद्र मन्थन से जो विष निकला था,जगत कल्याण के लिये उसका पान करके विश्व को बचा लिया था,उनके कण्ठ और भुजाओं में सर्प लिपटे है,सम्पूर्ण शरीर पर भस्म लगी हुई है,ऐसा उनका रूप माना जाता है,उनके बाम भाग में माता पार्वती विराजमान है,उनके सामने उनका वाहन नन्दी है,वे अपने गणों से घिरे रहते है,योगिराज के अतिरिक्त नटराज के रूप में भी शिव की कल्पना हुई है,वे नाट्य और संगीत के भी अधिष्ठाता है,१०८ प्रकार के नाट्यों की उत्पत्ति शिव से मानी जाती है,जिनमे लास्य और ताण्डव दोनो सम्मिलित हैं,दक्षिणामूर्ति के रूप में शिव की कल्पना हुई है,यह शिव के जगतगुरु का रूप है,इस रूप में वे व्याख्यान अथवा तर्क की मुद्रा में अंकित किये जाते हैं,मूर्त रूप के अतिरिक्त अमूर्त अथवा प्रतीक रूप में भी शिव की भावना होती है,इनके प्रतीक को लिंग कहते है,जो उनके निश्चल ज्ञान और तेज का प्रतिधिनित्व करता है,पुराणों मे शिव के अनेक अवतारों का वर्णन किया है,लगता है विष्णु के अवतारों की पद्धति पर यह कल्पना की गयी है,प्राय: दुष्टों के विनाश तथा भक्तों की परीक्षा आदि के लिये शिव अवतार धारण करते है,शिव-पार्वती के विवाह की कथा संस्कृत साहित्य और लोक साहित्य में भी बहुत प्रचलित है,शिव के भयंकर रूप की कल्पना भी पायी जाती है,जिसका सम्बन्ध उनके विध्वंशक रूप से है,वे शमशान,रणक्षेत्र,चौराहों,(दुर्घटनास्थल) में निवास करते है,मुण्डमाला धारण करते हैं,भूतप्रेत और गणों से घिरे रहते हैं,वे स्वयं महाकाल (मृत्यु तथा उसके भी काल) हैं,जिसके द्वारा महाप्रलय घटित होती है,इनका एक अर्धनारीश्वर रूप है,जिसमे शिव और शक्ति के युग्म आकार की कल्पना है,इसी प्रकार हरि-हर रूप में शिव और विष्णु के समन्वित रूप का अंकन है।
* गणों के ईश श्री गणेश को इनका पुत्र कहा गया है,और इनके ही रूप में श्री गणेश की पूजा भी की जाती है,भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को शिवचतुर्थी कहा जाता है,उस दिन स्नान दान उपवास तथा जप किया जाता है,और इस व्रत के शिव के नाम से जानकर श्रीगणेश की पूजा अर्चना की जाती है।
* शिवपुराण भी उन्तीस उपपुराणों में एक है,यह भगवान शिव की महिमा का वर्णन करता है।इसमे चौबीस हजार श्लोक है।