"सांख्य दर्शन": अवतरणों में अंतर

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* '''सांख्य दर्शन के २५ तत्व '''
:आत्मा (पुरुष)
:(अंत:करण 4 ) मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार
:(ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका, जिह्वा, नेत्र, त्वचा, कर्ण
:(कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद, हस्त, उपस्थ, पायु, वाक्
:(तन्मात्रायें 5) गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द
:( महाभूत 5) पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश
 
== सांख्य दर्शन की लोकप्रियता एवं प्रभाव ==
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गणनार्थक "संख्या" शब्द से भी "सांख्य" शब्द की निष्पत्ति मानी जाती है। महाभारत में सांख्य के विषय में आए हुए एक श्लोक में ये दोनों ही प्रकार के भाव प्रकट किए गए हैं। वह इस प्रकार है- ''संख्यां प्रकुर्वते चैव प्रकृतिं च प्रचक्षते। तत्त्वानि च चतुविंशद् तेन सांख्या: प्रकीर्तिता:''<ref> महाभा. 12। 311। 42 </ref>। इसका शब्दार्थ यह है कि जो संख्या अर्थात् प्रकृति और पुरुष के विवेक ज्ञान का उपदेश करते हैं, जो प्रकृति का प्रभाव प्रतिपादन करते हैं तथा जो तत्वों की संख्या चौबीस निर्धारित करते हैं, वे सांख्य कहे जाते हैं। कुछ लोगों की ऐसी धारणा है कि ज्ञानार्थक "संख्या" शब्द से की जाने वाली गौण सांख्य में प्रकृति एवं पुरुष के विवेक ज्ञान से ही जीवन के परम लक्ष्य [[कैवल्य]] या मोक्ष की सिद्धि मानी गई है, अत: उस ज्ञान की प्राप्ति ही मुख्य है और इस कारण से उसी पर सांख्य का सारा बल है। सांख्य (पुरुष के अतिरिक्त) चौबीस तत्व मानता है, यह तो एक सामान्य तथ्य का कथन मात्र है, अत: गौण है।
 
[[उदयवीर शास्त्री]] ने अपने "सांख्य दर्शन का इतिहास" नामक ग्रंथ में<ref> ( सांख्य दर्शन का इतिहास, पृष्ठ 6) </ref> सांख्य शास्त्र के कपिल द्वारा प्रणीत होने में भागवत 3-25-1 पर श्रीधर स्वामी की व्याख्या को उद्धृत करते हुए इस प्रकार लिखा है- अंतिम श्लोक की व्याख्या करते हुए व्याख्याकार ने स्पष्ट लिखा है- तत्वानां संख्याता गणक: सांख्य-प्रवर्तक इत्यर्थ:। इससे निश्चित हो जाता है कि यही [[कपिल]] सांख्य का प्रर्वतक या प्रणेता है। श्रीधर स्वामी के गणक: शब्द पर शास्त्री जी ने नीचे दिए गए फुटनोट में इस प्रकार लिखा है- मध्य काल के कुछ व्याख्याकारों ने "सांख्य" पद में "संख्य" शब्द को गणनापरक समझकर इस प्रकार के व्याख्यान किए हैं। वस्तुत: इसका अर्थ तत्व ज्ञान है। परंतु गहराई से विचार करने पर यह बात उतनी सामान्य या गौण नहीं है जितनी आपातत: प्रतीत होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि बहुत प्राचीन काल में दार्शनिक विकास की प्रारंभिक अवस्था में जब तत्वों की संख्या निश्चित नहीं हो पाई थी, तब सांख्य ने सर्वप्रथम इस दृश्यमान भौतिक जगत् की सूक्ष्म मीमांसा का प्रयास किया था जिसके फलस्वरूप उसके मूल में वर्तमान तत्वों की संख्या सामान्यत: चौबीस निर्धारित की थी। इनमें भी प्रथम तत्व जिसे उन्होंने "प्रकृति" या "प्रधान" नाम दिया, शेष तेईस का मूल सिद्ध किया गया। चित् पुरुष के सान्निध्य से इसी एक तत्व "प्रकृति" को क्रमश: तेईस अवांतर तत्वों में परिणत होकर समस्त जड़ जगत् को उत्पन्न करती हुई माना था। इस प्रकार तत्व संख्या के निर्धारण के पीछे सांख्यों की बहुत बड़ी बौद्धिक साधना छिपी हुई प्रतीत होती है। आखिर सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा दीर्घ काल तक बिना चिंतन और विश्लेषण किए तत्वों की संख्या का निर्धारण कैसे संभव हुआ होगा?
 
उपर्युक्त विवेचन से ऐसा निश्चय होता है कि सांख्य दर्शन का "सांख्य" नाम दोनों ही प्रकारों से उसके बुद्धिवादी तर्कप्रधान होने का सूचक है। सांख्यों का अचित् प्रकृति तथा चित् पुरुष, दोनों ही मूलभूत तत्वों को आगम या श्रुति प्रमाण से सिद्ध मानते हुए भी मुख्यत: अनुमान प्रमाण के आधार पर सिद्ध करना भी इसी बात का परिचायक है। आज कल उपलब्ध सांख्य प्रवचन सूत्र एवं सांख्यकारिक, इन दोनों ही मौलिक सांख्य ग्रंथों को देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि इनमें सांख्य के दोनों ही मौलिक तत्वों- प्रकृति एवं पुरुष की सत्ता हेतुओं के आधार पर अनुमान द्वारा ही सिद्ध की गई है<ref> (सां. सू. 1।130-137, 140-144, एवं सांख्यकारिका 15 तथा 17)</ref>। पुरुष की अनेकता में भी युक्तियाँ ही दी गई हैं<ref> (सां. सू. 1।149; तथा सांख्यकारिका 18) </ref>। सत्कार्यवाद की स्थापना भी तर्कों के ही आधार पर की गई है। (सां. सू. 1।114-121, 6।53; तथा सांख्यकारिका 9)। इस प्रकार सांख्या शास्त्र का श्रवण, जो विवेक ज्ञान का मूलाधार है, तर्क प्रधान है। मनन, अनुकाल तर्कों द्वारा शास्त्रोक्त तथ्यों तथा सिद्धांतों का चिंतन है ही। इस प्रकार जिस संख्या या विवेक ज्ञान के कारण सांख्य दर्शन का "सांख्य" नाम पड़ा, उसका विशेष संबंध तर्क और बुद्धिवादिता से है। इस बुद्धिवाद के कारण अवांतर काल में सांख्य दर्शन के कुछ सिद्धांत वैदिक संप्रदाय से बहुत कुछ स्वतंत्र रूप से विकसित हुए जिसके कारण बादरायण व्यास तथा शंकराचार्य आदि आचार्यों ने इसका खंडन करते हुए अवैदिक संप्रदाय, तक कह डाला। यह संप्रदाय अपने मूल में तो अवैदिक नहीं प्रतीत होता और अपने परवर्ती रूप में भी सर्वथा अवैदिक नहीं है।