"अपभ्रंश": अवतरणों में अंतर
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== विशेषताएँ ==
अपभ्रंश भाषा का ढाँचा लगभग वही है जिसका विवरण [[हेमचंद्र]] के '''सिद्धहेमशबदानुशासनम्''' के आठवें अध्याय के चतुर्थ पाद में मिलता है। ध्वनिपरिर्वान की जिन प्रवृत्त्त्तियो के द्वारा संस्कृत शब्दों के तद्भव रूप प्राकृत में प्रचलित थे, वही प्रवृतियाँ अधिकांशतः अपभ्रंश शब्दसमूह में भी दिखाई पड़ती है, जैसे अनादि और असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, य और व का लोप तथा इनके स्थान पर उद्वृत स्वर अ अथवा य श्रुति का प्रयोग। इसी प्रकार प्राकृत की तरह ('क्त', 'क्व', 'द्व') आदि संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर अपभ्रंश में भी 'क्त', 'क्क', 'द्द' आदि द्वित्तव्यंजन होते थे। परंतु अपभ्रंश में क्रमशः समीतवर्ती उद्वृत स्वरों को मिलाकर एक स्वर करने और द्वित्तव्यंजन को सरल करके एक व्यंजन सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति बढ़ती गई। इसी प्रकार अपभ्रंश में प्राकृत से कुछ और विशिष्ट ध्वनिपरिवर्तन हुए। अपभ्रंश कारकरचना में विभक्तियाँ प्राकृत की अपेक्षा अधिक घिसी हुई मिलती हैं, जैसे तृतीया एकवचन में 'एण' की जगह 'एं' और षष्ठी एकवचन में 'स्स' के स्थान पर 'ह'। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश निर्विभक्तिक संज्ञा रूपों से भी कारकरचना की गई। सहुं, केहिं, तेहिं, देसि, तणेण, केरअ, मज्झि आदि परसर्ग भी प्रयुक्त हुए। कृदंतज क्रियाओं के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ी और संयुक्त क्रियाओं के निर्माण का आरंभ हुआ। संक्षेप में ''अपभ्रंश ने नए सुबंतों और तिङंतों की सृष्टि की''।
== अपभ्रंश साहित्य ==
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== अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाएँ ==
'''अपभ्रंश''' '''आधुनिक आर्य भाषा तथा उपभाषा'''
*शौरसेनी-पश्चिमी हिन्दी (ब्रजभाषा, खड़ी बोली, बांगरु, कन्नौजी, बुंदेली), राजस्थानी (मेवाती, मारवाड़ी, मालवी, जयपुरी), गुजराती
*अर्धमागधी-पूर्वी हिन्दी (अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी)
*मागधी-बिहारी (भोजपुरी, मैथिली, मगही), बंगला, उड़िया, असमिया
*खस-पहाड़ी हिन्दी
*पैशाची-लहंदा, पंजाबी
*ब्राचड़-सिन्धी
*महाराष्ट्री-मराठी
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि हिन्दी भाषा का उद्भव, अपभ्रंश के शौरसेनी, अर्धमागधी और मागधी रूपों से हुआ है।
== सन्दर्भ ग्रन्थ ==
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