"आस्तिकता": अवतरणों में अंतर
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(1) '''ईश्वर का स्वरूप''' - मानवानुरूप व्यक्तित्वयुक्त ईश्वर (परसनल गाड)। इस संसार का उत्पादक (स्रष्टा), संचालक और नियामक, मनुष्य के समान शरीरधारी, मनोवृत्तियों से युक्त परमशक्तिशाली परमात्मा है। वह किसी एक स्थान (धाम) पर रहता है और वहीं से सब संसार की देखभाल करता है, लोगों को पाप पुण्य का फल देता है एवं भक्ति और प्रार्थना करने पर लोगों के दु:ख और विपत्ति में सहायता करता है। अपने धाम से वह इस संसार में सच्चा धार्मिक मार्ग सिखाने के लिए अपने बेटे पैगंबरों, ऋषिमुनियों को समय-समय पर भेजता है और कभी स्वयं ही किसी न किसी रूप में अवतार लेता है। दुष्टों का दमन और सज्जनों का उद्धार करता है। इस मत को पाश्चात्य दर्शन में थीज्म कहते हैं।
(2) '''सृष्टिकर्ता मात्र ईश्वरवाद''' - (डीज्म) कुछ दार्शनिक यह मानते हैं कि ईश्वर तो सृष्टिकर्ता मात्र है और उसने सृष्टि रच दी है कि वह स्वयं अपने नियमों से चल रही है। उसको अब इससे कोइ मतलब नहीं। जैसे घड़ी बनानेवाले को अपनी बनाई हुई घड़ी से, बनने के पश्चात्, कोई संबंध नहीं रहता। वह चलती रहती है। इस मत की कुछ झलक वैष्णवों की इस कल्पना में मिलती है कि
(3) '''सर्व खलु इदं ब्रह्म''' - यह समस्त संसार ब्रह्म ही है (पैथीज्म), इस सिद्धांत के अनुसार संसार और
(4) ब्रह्म जगत् से परे भी है। इस मतवाले, जिनको पाश्चात्य देशों में "पैन ऐनथीस्ट" कहते हैं, यह मानते हैं कि जगत् में
(5) '''अजातवाद, अजातिवाद अथवा जगद्रहित शुद्ध ब्रह्मवाद'''-(अकास्मिज्म) इस मत के अनुसर ईश्वर के अतिरिक्त और कोई सत्ता ही नहीं है। सर्वत्र ब्रहा ही ब्रह्म है। जगत् नाम की वस्तु न कभी उत्पन्न हुई, न है और न होगी। जिसको हम जगत् के रूप में देखते हैं वह कल्पना मात्र, मिथ्या भ्रम मात्र है जिसका ज्ञान द्वारा लोप हो जाता है। वास्तविक सत्ता केवल विकाररहित शुद्ध सच्चिदानंद ब्रह्म की ही है जिसमें सृष्टि न कभी हुई, न होगी।
== ईश्वर एक है या अनेक? ==
आस्तिकता के अंतर्गत एक यह प्रश्न भी उठता है कि ईश्वर एक है अथवा अनेक। कुछ लोग अनेक देवी देवताओं को मानते हैं। उनको [[बहुदेववादी]] (पोलीथीस्ट) कहते हैं। वे एक देव को नहीं जानते। कुछ लोग जगत् के नियामक दो देवों को मानते हैं - एक
== आस्तिकता के पक्ष में युक्तियाँ ==
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(2) संसारगत कार्य-कारण-नियम को जगत् पर लागू करके यह कहा जाता है कि जैसे यहां प्रत्येक कार्य के उपादान और निमित्त कारण होते हैं, उसी प्रकार समस्त जगत् का उपादान और निमित्त कारण भी होना चाहिए और वह ईश्वर है (कास्मोलॉजिकल, अर्थात् सृष्टिकारण युक्ति)।
(3) संसार की सभी क्रियाओं का कोई न कोई प्रयोजन या उद्देश्य होता है और इसकी सब क्रियाएं नियमपूर्वक और संगठित रीति से चल रही हैं। अतएव इसका नियामक, योजक और प्रबंधक कोई मंगलकारी
(4) जिस प्रकार मानव समाज में सब लोगों को नियंत्रण में रखने के लिए और अपराधों का दंड एवं उपकारों और सेवाओं का पुरस्कार देने के लिए राजा अथवा राजव्यवस्था होती है उसी प्रकार समस्त सृष्टि को नियम पर चलाने और पाप पुण्य का फल देनेवाला कोई सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और न्यायकारी परमात्मा अवश्य है। इसको मॉरल या नैतिक युक्ति कहते हैं।
(5) योगी और भक्त लोग अपने ध्यान और भजन में निमग्न होकर
(6) संसार के सभी धर्मग्रंथों में ईश्वर के अस्तित्व का उपदेश मिलता है, अतएव सर्व-जन-साधारण का और धार्मिक लोगों का ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास है। इस युक्ति को शब्दप्रमाण कहते हैं।
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