"ऐतरेय उपनिषद": अवतरणों में अंतर

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उसे देखकर सभी देवताओं ने एक स्वर में उनका अनुमोदन किया और वे सब परमात्मा की आज्ञा से उसके भिन्न-भिन्न अवयवों में वाक्, प्राण, चक्षु आदि रूपसे स्थति हो गये। फिर उनके लिये अन्नकी रचना की गयी। अन्न देखकर भागने लगा। देवताओं ने उसे वाणी प्राण चक्षु एवं श्रोत्रादि भिन्न-भिन्न कारणों से ग्रहण करना चाहा; परन्तु वे इसमें सफल न हुए। अन्त में उन्होंने उसे अपानद्वार ग्रहण कर लिया। इस प्रकार यह सारी सृष्टि हो जानेपर परमात्मा ने विचार किया कि अब मुझे भी इसमें प्रवेश करना चाहिये; क्योंकि मेरे बिना यह सारा प्रपञ्च अकिञ्चित्कर ही है। अतः वह उस पुरुष की मूर्द्धसीमाको विदीर्णकर उसके द्वारा उसमें प्रवेश किया कर गया। इस प्रकार जीवभावको प्राप्त होनेपर उसका भूतोंके साथ तादात्म्य हो जाता हैं। पीछे जब गुरुकृपासे बोध होनेपर उसे अपने सर्वव्यापक शुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार होता है तो उसे ‘इदम’- इस तरह अपरोक्षरूप से देखने के कारण उसकी ‘इन्द्र’ संज्ञा हो जाती है।
 
इस प्रकार ईक्षण से लेकर परमात्मा के प्रवेशपर्यन्त जो सृष्टिक्रम बतलाया गया है, इसे ही विद्यारण्यस्वामी ने ईश्वर सृष्टि कहा है। ‘ईक्षणादिप्रवेशान्तः संसार ईशकल्पितः। इस आख्यायिकामें बहुत-सी विचित्र बातें देखी जाती हैं। यों तो माया में कोई भी बात कुतूहलजनक नहीं हुआ करती; तथापि आचार्यका तो कथन है कि यह केवल अर्थवाद है। इसका अभिप्राय आत्मबोध कराने में है। यह केवल आत्माके अद्वितीयत्वका बोध कराने के लिये ही कही गयी है; क्योकि समस्त संसार आत्माका ही संकल्प होनेके कारण आत्मस्वरूप ही है। द्वितीय अध्यात्म के आरम्भ में इसी प्रकार उपक्रम कर भगवान्भगवान भाष्याकारने आत्मतत्वका बड़ा सुन्दर और युक्तियुक्त विवेचन किया है।
 
इस अध्याय में आत्मज्ञानके हेतुभूत वैराग्य की सिद्धिके लिये जीवकी तीन अवस्थाओंका-जिन्हें प्रथम अध्यायमें ‘आवसथ’’ नामसे कहा है- वर्णन किया गया है। जीवके तीन जन्म माने गये हैं- (1) वीर्यरूपसे माताकी कुक्षिमें प्रवेश करना, (2) बालकरूप से उत्पन्न होना और (3) पिताका मृत्युको प्राप्त होकर पुनः जन्म ग्रहण करना। ‘आत्मा वै पुत्रनामासि’ (कौषी) ० 2। 11) इस श्रुति के अनुसार पिता और पुत्रका अभेद है; इसीलिये पिता के पुनर्जन्म को भी पुत्रका तृतीय जन्म बतलाया गया है। वामदेव ऋषि ने गर्भ में रहते हुए ही अपने बहुत-से जन्मोंका अनुभव बतलाया था और यह कहा जाता था कि मैं लोहमय दुर्गों के समान सैकड़ों शरीर में बंदी रह चुका हूँ; किन्तु अब आत्माज्ञान हो जाने से मैं श्येन पक्षी के समान उनका भेदन कर बाहर निकल आया हूँ। ऐसा ज्ञान होने के काऱण ही वामदेव ऋषि देहपातके अनन्तर अमर पद को प्राप्त हो गये थे। अतः आत्मा को भूत एवं इन्द्रिय आदि अनात्मप्रपञ्चसे सर्वथा असङ्ग अनुभव करना ही अमरत्व-प्राप्तिका एकमात्र साधन है।