"चीनी दर्शन": अवतरणों में अंतर

छो बॉट: कोष्टक () की स्थिति सुधारी।
छो हलान्त शब्द की पारम्परिक वर्तनी को आधुनिक वर्तनी से बदला।
पंक्ति 13:
परंपरा के अनुसार आठो ट्रिग्रामों की रचना प्रथम प्राचीन सम्राट् [[फू-सी]] (2852-2738 ई.पू.) द्वारा मानी जाती है। आठो ट्रिग्रामों की 64 षड्रेखाकृतियों में गुणनफल की क्रिया का कार्य या फूसी ने स्वयं किया था या उसके उत्तराधिकारी ने किया था जिसका नाम द्वितीय प्राचीन सम्राट् [[शेङ-नुङ]] (2737-2698 ई.पू.?) था।
 
64 षड्रेखाकृतियों की रेखाएँ, जिनकी संख्या 384 है, "या ओ" के नाम स प्रचलित हैं। षड्रेखाकृतियों के साथ साथ उन्हें सांकेतिक रूप से प्रथम "त अई ची" कहते हैं जिनका अर्थ आद्य महान्, एक एवं परमसत्य है। दूसरा लि अङ-यी या दो सिंद्धांत, यथा, "यांग" (-), जिसका अर्थ विधायक एवं पुरुषोचित शक्ति है और "यिन" (- -), का अर्थ निषेधक एवं स्त्रियोचित शक्ति है, तीसना "जू-सिआङ" जिसका अर्थ चार प्रतीक, यथा (1) प्राचीन यङ (=), (2) युवा यङ (= =), (3) प्राचीन यिन (= =), (4) युवा यिन (= =); और अंतिम, संपूर्ण विश्व के प्राकृतिक दृश्यों एवं सभी मानवीय उपकरणों के विकास की अभिव्यक्ति। दूसरे शब्दों में, आद्य महान्महान ने दो सिद्धांतों की सृष्टि की : दो सिद्धांत, चार प्रतीक, चार प्रतीक, संपूर्ण विश्व। यह "ताओ" की गति या सृष्टि के विकास का ढंग या मार्ग प्रकट करता है।
 
चौसठ षड्रेखाकृतियों के तुरंत बाद साहित्यिक पुस्तकों, की जिन्हें "कुआ-जय" कहते हैं अथवा षड्रेखाकृतियों के चिन्हसमूह और "याओ-जू" या रेखाओं के चिह्नसमूह कहते हैं, रचना का क्रम आता है। पहला, सभी षड्रेखाकृतियं के नामों और परिभाषाओं का वर्णन करता है। दूसरा, सभी षड्रेखकृतियें की प्रत्येक व्यक्तिगत रेखा के अभिप्रायों के नाम एवं संकेतां का विवरण उनके स्थानों एवं परिस्थितियों के अनुसार देता है। ये दोनों मूलपाठ [[वेद|वेदों]] की संहिताओं और ब्राह्मणों के समान है।
पंक्ति 38:
 
=== कनफ्यूशिअस की विधिज्ञ शाखा ===
कनफ्यूशिअस शाखा का नाम [[कनफ्यूशिअस]] (511-479 ई.पू.) के नाम के पश्चात् पड़ा जो विद्या एवं गुण दोनों में पूर्णताप्राप्त प्रथम एवं सबसे महान्महान गुरु माना जाता था और जिसने सबसे पहले साधारण जनता को विद्या और सद्गुण सिखलाया, जिसका एकाधिकार पहले आभिजात्य शासक वर्ग के हाथ में था। अतएव कनफ्यूशिअस के अनुयायी अन्य वस्तुआं की अपेक्षा ज्ञान एवं सद्गुण का आदर करते थे।
 
"लुन-यु" या कनफ्यूशिअस की साहित्यिक झाँकियों के संग्रह नामक पुस्तक में कनफ्यूशिअस ने सबसे प्रथम शब्द "ह्सुयेह" का उल्लेख किया है जिसका अर्थ सीखना है। गुरु ने कहा था : "निरंतर उद्योग एवं प्रयोग से सीखना, क्या यह एक मनोहर वस्तु नहीं है?" (पुस्तक 1, अध्याय 1)। तत्पश्चात् अनेक अवसरों पर, कनफ्यूशिअस ने अपने अनुयाइयों के साथ ज्ञान की चर्चा की या उसके संबध में विवाद किया। "गुरु ने कहा, 15 वर्ष की अवस्था में मैंने ज्ञान प्राप्त करने का संकल्प किया। 30 वर्ष की अवस्था में मैं दृढ़ था। 40 की अवस्था में मुझे कोई संदेह नहीं था। 50 की अवस्था में मुझे ईश्वर के आदेशों का भान हुआ। 60 की अवस्था में मेरा कान सत्यग्रहण करने का आज्ञाकारी बना। 70 वर्ष की अवस्था में उसे समझने लगा जिसकी इच्छा मेरा हृदय करता था और ऐसा करने में सत् का अतिक्रमण नहीं किया, (पुस्तक 2, अध्याय 4)। पुन: गुरु ने कहा, "दस कुटुंबो के छोटे ग्राम में मेरे समान प्रतिष्ठित और सच्चा व्यक्ति तो मिल सकता था किंतु ज्ञान का इतना प्रेमी नहीं मिल सकता था। (पुस्तक 5, अध्याय 27)।
पंक्ति 46:
कनफ्यूशिअस की भावनाएँ एवं विचार निजी तौर पर नैतिक, नीतिशास्त्रीय, सामाजिक एवं मानवीय हैं। कनफ्यूशिअस ने जानबूझकर कुछ दुर्गम समस्याओं की उपेक्षा की है। कनफ्यूशिअस की साहित्यिक झाँकियों के सग्रह में यह बतलाया गया था कि जिन विषयों पर गुरु ने बातें की वे ये थीं : (1) विचित्र वस्तुएँ, (2) अतिप्राकृतिक शक्ति, (3) वस्तुएँ जो उचित क्रम में न हें और, (4) प्रेत एवं देवता (पुस्तक 7, अध्याय 20)। एक बार उसके अनुयायी चि-लु ने प्रेंतों और देवताओं की सेवा करने के संबंध में पूछा। गुरु ने कहा : "जब तुम मनुष्यों की सेवा करने योग्य नहीं हो, तब किस प्रकार तु प्रेतों और देवताओं की सेवा कर सकते हो?" चि-लु ने कहा : "मैं मृत्यु के संबंध में पूछने का साहस करता हूँ।" उसे पुन: उत्तर दिया गया, "जब तुम जीवन के विषय में नहीं जानते, तो किस प्रकार तुम मृत्यु के सबंध में जान सकते हो?" (पुस्तक 11, अध्याय 2)। कनफ्यूशिअस ने स्वय एक बार अपने अनुयायी जु-कुङ स कहा : "मैं न बोलना अधिक पसंद करूंगा।" जु-कुङ ने पूछा : "अगर तुम गुरु नहीं बोलते हो, तुम्हारे अनुयायी, हम लोगों को क्या लिखता है?" गुरु ने कहा : "क्या ईश्वर बोलता है? चारों ऋतुएँ अपने अपने मार्ग का अनुसरण करती हैं और वस्तुएँ लगातार उत्पन्न की जाती हैं, किंतु क्या ईश्वर कुछ कहता है?" (पुस्तक 17, अध्याय 19)।
 
कनफ्यूशिअस के पश्चात् इस शाखा के दो अन्य महान्महान व्यक्ति मेन-जु या मेनसिअस (371-289 ई.पू.) और सुन-जु (जगभग 289-238 ई.पू.) हुए। दोनों ने कनफ्यूशिअस का सबसे महान्महान गुरु के रूप में आदर किया और प्रकट रूप से उसी शिक्षाओं का अनुसरण किया : किंतु उन्होंने कनफ्यूशिअस की व्याख्या भिन्न भिन्न ढंगों से की और उनके दृष्टिकोण भी भिन्न भिन्न रहे। उनके मध्य सबसे प्रधान अंतर मानव स्वभाव के सिद्धांतों से संबध रखता था। मेनसिअस ने मानव स्वभाव को मौलिक रूप से अच्छा माना। मेंङ-जु : पुस्तक 2 अ, अध्याय 6। किंतु सुन जु ने कहा : "मानव स्वभाव बुरा है; शिक्षण द्वारा इसकी अच्छाई प्राप्त होती है।" (सुन-जु : अध्याय 23)। किंतु कनफ्यूशिअस ने स्वयं एक ही बार कहा था : "स्वभाव से मनुष्य लगभग एक समान होते हैं; अभ्यास से वे एक दूसरे से बहुत अलग हो जाते हैं।" (साहित्यिक झाँकियों के संग्रह : पुस्तक 17, अध्याय 2)। यह चीनी दर्शन में एक अत्यंत विवादास्पद समस्याओं में से है। दर्शन की विधिज्ञ शाखा, सही अर्थो में, राजनीतिक सिद्धांतों की एक पद्धति है जिसमें स्वतंत्र रूप से कनफ्यूशिअस, ताओ और मोहिस्ट अनुयायिओं के विचारों ओर आदर्शो का विलयन है। किंतु इसका अधिक संबंध बाद के दोनों की अपेक्षा पहले से अधिक है। अत: इसका अधिक लगाव कनफ्यूशिअस शाखा से है।
 
=== ताओ की विश्व-विज्ञान-संबंधी शाखा ===
चीन भाषा और साहित्य में "ताओ" अत्यधिक महत्वपूर्ण, व्यापक एवं रहस्यमय है। कभी कभी इसका अर्थ निरपेक्ष वास्तविकता या सतत सत्य होता है। कभी कभी इसका अर्थ मौलिक लक्ष्य या प्रकृति की सर्वोच्च शक्ति से लिया जाता है। कभी कभी इसका अर्थ सृष्टि की अभिव्यक्ति या सृष्टि के विकास की प्रक्रिया या मार्ग होता है। कभी कभी इसका अर्थ सिद्धांत और सद्गुण भी होता है। यह संस्कृत के तीन शब्द, ब्रह्म, धर्म और मार्ग के समानार्थक है। इसका विवरण लगभग समस्त चीनी धार्मिक, साहित्य विशेषकर धर्मगृहीत एवं दार्शनिक कृतियों में मिलता है और समस्त भिन्न भिन्न पक्षों में प्रयुक्त किया गया है जो भिन्न भिन्न ढंगो से भिन्न भिन्न वस्तुओं के लिये व्यवहृत हुआ है। ताओ शाखा विशेष रूप से ताओ के नाम की अधिकारी है क्येंकि इसने माओ को अधिक विशेषता से, अधिक उचित रूप से और अधिक गहराई से अन्य शाखाओं की अपेक्षा स्पष्ट है।
 
ताओ शाखा का महानतम एवं बहुत ही प्रसिद्ध गुरु वास्तव में लाओ-त्जू था जो वास्तविक रूप से ताओ दर्शन का जन्मदाता माना जाता ळै। लाओ-त्जू के बाद दूसरा महान्महान गुरु चुआङ-जु (369-286 ई.पू.) हुआ है।
 
लाओ-त्जू "ताओ" को सृष्टि का उच्चतम आत्मा, स्वयंभू, निरपेक्ष और शाश्वत मानता है जिसस सभी वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं और पुन: उसी में विलीन हो जाती हैं। "ताओ-त्जू" नामक पुस्तक में जो उसके नाम की है या "ताओ ती चिङ्ग" - ताओ और ती की धार्मिक व्यवस्था, उसने कहा था : "ताओ एक पैदा करता है, एक दो पैदा करता है, दो तीन पैदा करता है, तीन सभी वस्तुएँ पैदा करता है।" (अध्याय 42)। उसी पुस्तक के दूसरे लेखांश में, ताओ-त्जू ने कहा था : संसार में सभी वस्तुएँ "यू" या धन से पैदा हुई हैं; और "यू" या धन की उत्पत्ति "वू" या निर्धनता से हुई है। (अध्याय 40)। यहाँ "यू" या धन का अर्थ ताओ से है। ताओ को क्यों "वू" या निर्धनता कहते हैं? क्योंकि ताओ कुछ है जिसे नाम या शब्द द्वारा अगोचर एवं अकथनीय समझा जाता है। इसलिये लाओ-त्जू ने पुस्तक के बिल्कुल आरंभ में ही कहा था : "वह ताओ" जो व्यक्त हो वास्तव में शाश्वत नाम नहीं है। अकथ्य स्वर्ग एवं पृथ्वी का प्रारंभ है कथ्य सभी वस्तुओं की जननी है। (अध्याय 1)
पंक्ति 57:
लाओ-त्जू के अनुसार "ताओ" प्रत्येक वस्तु के लिये प्रत्येक वस्तु का निर्माणकर्ता भी है। फिर भी ऐसा जान पड़ता है कि यह किसी भी वस्तु का निर्माण नहीं करता है। प्रत्येक वस्तु के लिये प्रत्येक वस्तु का कर्ता है। फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि यह कुछ भी नहीं करता। इस प्रकार उसने कहा था : "ताओ" कभी कुछ नहीं करता, फिर भी इसी के द्वारा सभी वस्तुएँ होती हैं। (अध्याय 37) पुन: "ऐसा ही सर्वव्यापी शक्ति का क्षेत्र है कि यह अकेले "ताओ" द्वारा कार्य कर सकता है। क्योंकि "ताओ" अनुभवातीत एवं अपरिमेय वस्तु है। अपरिमेय, अनुभवातीत; फिर भी इसमें आकार अंतर्हित है। अनुभवातीत एवं अपरिमेय; फिर भी इसमें आकार अंतर्हित है। अनुभवातीत एवं अपरिमेय; फिर भी इनके अंतर्गत सत्ताएँ हैं। यह छायात्मक और मंद है, फिर भी इसके अंदर एक निरपेक्ष सत्ता है। यह निरपेक्ष सत्ता अत्यंत विशुद्ध है किंतु फिर भी प्रभावोत्पादक है।" (अध्याय 21)। इसलिये पुरुषों को "ताओ" के पथ का अनुसरण करना चाहिए और किसी भी मूल्य पर इसके विरुद्ध कार्य नहीं करना चाहिए।
 
ताओ का द्वितीय महानतम अनुयायी गुरु चुआङ चाऊ या चुआङ जू हुआ है। इसने ताओ जू की अपेक्षा भी अधिक गहन रूप से एवं व्यापक दृष्टिकोण से "ताओ" के सिद्धातों का प्रतिपादन किया। वह चीन का सबसे महान्महान रहस्यवादी भी समझा जाता है। उसका मौलिक विचार निरपेक्ष समानता एवं प्रत्येक जीव से मुक्ति प्राप्त करना है। साथ ही साथ पूर्ण एकता और सभी जीवों के साथ अभिन्नता स्थापित करना है। किसी प्रकार का कोई भेद विभेद नहीं होना चाहिए जैसे "अच्छा या बुरा", "सत् या असत्", "बड़ा या छोटा", "लंबा या नाटा", "ऊँच या नीच", "धनी या दरिद्र", "कुलीन या सामान्य", "बुद्ध या नौजवान", "प्रारंभ या अंत", जीवन या मृत्यु इत्यादि। क्योंकि ये सभी मनुष्यकृत सापेक्ष पद हैं। वास्तव में य सभी एक और अभिन्न हैं क्योंकि सभी जीव उसी "ताओ" से उत्पन्न हुए हैं और उसी "ताओ" में विलीन हो जाएँगे। कठिनाई इस बात की है कि जब ये सभी वस्तुएँ एक बार बनाई गईं तब मनुष्यों न केवल अलगाव और भेद ही देखा किंतु मौलिक एकता और अभिन्नता का कुछ भी ध्यान नहीं रखा। यही समस्त पक्षपातों एवं अज्ञानता का कारण रहा। साथ ही साथ इसी कारण संघर्ष एवं कलह, घृणा और शत्रुता, हिंसा और निर्दयता, कारावास एवं दासता और अनेक अन्य बुरी बातें समय समय पर हर प्रकार का कष्ट ओर दु:ख देती रही हैं। जब तक हम लोग इन समस्त वस्तुओं को समाप्त नहीं कर लेंगे विश्व में वास्तविक स्वतंत्रता एवं सुख नहीं दिखलाई देगा।
 
केवल उन्हीं व्यक्तियों को निरपेक्ष स्वतंत्रता एवं पूर्ण सुख प्राप्त होगा जो अपने को सभी प्रकार के भेदों एवं विभेदों से मुक्त रखेंगे। ऐसे व्यक्तियों को चुआङ-जू ने "चेन जन" अर्थात् सच्चे पुरुष की संज्ञा दी है। उन्हें "चिह-जेन" अर्थात् पूर्ण पुरुष, या "शेन-जेन" आध्यात्मिक पुरुष, या "शेङ-जेन" अर्थात् ऋषि या संत की भी संज्ञा दी है।
पंक्ति 68:
मोहिस्ट शाखा का नाम [[मो-ति]] या [[मोजु]] (463-376 ई.पू.) के नाम पर पड़ा जो इस शाखा का साधारणत: जन्मदाता माना जाता है। प्राचीन चीनी इतिहास में मो-जु एक महत्वपूर्ण व्यक्ति माना जाता है।
 
अनेक दृष्टिकोणों से मो-जु की तुलना प्राचीन भारतीय [[महावीर जैन]] और आधुनिक भारतीय [[महात्मा गांधी]] से की जाती है। उनके जीवन एंव सिद्धांत बहुत ही समान है। मो-जु के अत्यंत महत्वपूर्ण सिद्धांत विश्वप्रेम एवं अहिंसा निरपेक्ष परार्थवाद और यतित्ववाद हैं। महान्महान कनफ्यूशिअस का अनुयायी मेनसिअस ने एक बार कहा था- "मो-जु" सभी मनुष्यों को बिना किसी भेद भाव के प्रेम की दृष्टि से देखते हैं। यदि अपने संपूर्ण शरीर को सिर से एँड़ी तक पसीने से विश्व को लाभ पहुँचा सकें, तो व ऐसा करने को तैयार थे। मो-जु के पूर्व चीनी विचारधाराओं में विश्वप्रेम एवं अहिंसा, परार्थवाद और यतित्ववाद के विचार मिलते थे। किंतु मो-जु का महान्महान कार्य चीनी दर्शन के क्षेत्र में यह था उसने इन सिद्धांतों का स्वय न केवल अभ्यास किया बल्कि उसने तर्कनायुक्त नींव पर स्थिर किया और उनको एक दार्शनिक पद्धति की इकाई में ढाला।
 
मो-जु ने न केवल कनफ्यूशिअस और उनकी शाखा के सिद्धांतों का विरोध किया, बल्कि प्राचीन चीन के परंपरागत अनुष्ठानों एवं संस्थाओं का भी विरोध किया। कनफ्यूशिअस के अनुयायियों ने अत्यंत प्रयत्न किया, "कि वे बिना लाभ के परिणाम को सोचे ही नीतिपरायणता में सहीं रहें; अपने सिद्धांतों में निर्मल रहें बिना यह सोचे कि इसका परिणाम प्रशंसनीय एवं लाभप्रद होगा।" (तुङ.-चुआङ.-शु: च अन च इय फाङ-क्तु)। किंतु मो-जु और मोहिस्ट शाखा के अनुयाइयों ने योग्यता एवं लाभ पर अत्यधिक बल दिया। मो-जु ने कहा : "जो लोग सद्गुणी हैं उनका उद्देश्य विश्व के लिये लाभ प्राप्त करना है और उसकी आपत्तियों का निराकरण करना है।" (मो-जु : अध्याय 16, चियन अई-प इयन) और "पारस्पिरिक प्रेम से पारस्परिक लाभ होता है।" पुन: "निष्पक्ष प्रेम से लाभ होगा।" और दूसरों के साथ प्रेम करने तथा उन्हें लाभ पहुँचाने से सर्वश्रेय पैदा होता है। पुन: "जो दूसरों से प्रेम करता है उससे दूसरे भी प्रेम करते हैं।" (वही)
 
मो-जु का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धांत उसका [[युद्ध]] के विरुद्ध उपदेश देना है। मो-जु के अनुसार सबसे महान्महान अपराध किसी देश पर आक्रमण करना है। ऐसे कार्य के लिये कोई बहाना नहीं होना चाहिए।
 
मो-जु का यह उपदेश उस समय के राज्यों के पारस्परिक संबधों में प्रचलित दृष्टिकोणों की औषधि था। आज भी विश्व को परिस्थिति के अनुसार यह औषधि का काम दे सकती है।