"ज़मींदारी प्रथा": अवतरणों में अंतर
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भारत में अंग्रेजों के आगमनकाल से ही जमींदारी प्रथा का उदय होने लगा। अंग्रेज शासकों का विश्वास था कि वे भूमि के स्वामी हैं और कृषक उनकी प्रजा हैं इसलिये उन्होंने स्थायी तथा अस्थायी बंदोबस्त बड़े कृषकों तथा राजाओं और जमींदारों से किए। यद्यपि राजनीतिक औचित्य से प्रभावित होकर उसने एक एक परगना हर कर वसूल करनेवाले इजारेदार को पाँच वर्ष के लिये पट्टे पर दे दिया। इस प्रकार जमींदारी प्रथा को अंग्रजों ने मान्यता प्रदान की यद्यपि आरंभ में उनका विचार कृषकों को उनके अधिकारों से वंचित करने का नहीं था सन् 1786 ई0 में लार्ड कार्न वालिस, वारेन हेस्टिगज के बाद, गर्वनर जनरल हुआ। लार्ड कार्नवालिस भी जमींदारी प्रथा के पक्ष में था। उसने सन् 1791 ई0 बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में दस वर्षीय बंदोबस्त की आज्ञा दी। दो वर्ष पश्चात् बोर्ड आफ डाइरेक्टर्स ने इस दस वर्षीय योजना को स्थायी बंदोबस्त (permanent settlement) बना देने की अनुमति दे दी।
मद्रास में जमींदारी प्रथा का उदय अंग्रेज शासकों की नीलाम नीति द्वारा हुआ। गाँवों की भूमि का विभाजन कर उन्हें नीलाम कर दिया जाता था और अधिकतम मूल्य देनेवाले को विक्रय कर दिया जाता था। प्रारंभ में अवध में बंदोबस्त कृषक से ही किया गया था परंतु तदनंतर राजनीतिक कारणों से यह बंदोबस्त जमींदारों से किया गया।
इस प्रकार भारतवर्ष के इतिहास में सर्वप्रथम इन बंदोबस्तों द्वारा राज्य और कृषकों के बीच में जमींदारों का वर्ग अंग्रेजों की नीति द्वारा स्थापित हुआ जिसके फल स्वरूप कृषकों के भू-संपत्ति अधिकार, जो अनादि काल से चले आ रहे थे, छिन गए। यह मध्यवर्ती वर्ग दिन प्रति दिन धनी होता गया क्योंकि अंग्रेज शासक अपनी करराशि में से अधिक से अधिक हिस्सा उन्हें प्रलोभन के रूप में देते रहे।
=== जमींदारी प्रथा के अस्त होने की दिशा में कदम ===
इन बंदोबस्तों में कृषकों के हितों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया था जिसके परिणामस्वरूप उनका दु:ख, अपमान एवं दारिद्रय् दिन प्रतिदिन बढ़ता गया। कई बार अंग्रेज शासकों ने भी इस ओर ध्यान दिलाया कि कृषकों की भूधृति की रक्षा की जाय एवं उनका लगान बंदोबस्त के समय तक निर्धारित कर दिया जाय। फिर भी कुछ नहीं किया गया। इसका कारण यह था कि अंग्रेज शासकों की धारणा थी कि जमींदारों के साथ व्यवहार में उदारता दिखाने पर जब वे संपन्न एवं संतुष्ट रहेंगे तो वे अपने आसामियों को नहीं सताएँगे जिसके फलस्वरूप वे भी खुशहाल रहेंगे। परंतु यह उनकी
इस प्रथम चरण में, जो सन् 1859 ई0 से 1929 ई0 तक रहा, जो कानून बने उनसे जमींदारों के लगान बढ़ाने के अधिकारों पर कुछ प्रतिबंध लगाए गए और उच्च श्रेणी के कृषकों को लाभ भी हुए। किंतु इन कानूनों का मुख्य उद्देश्य जमींदारों को लगान वसूल करने में सहूलियत देने का था जिससे वे राज्य को राजस्व ठीक समय पर दे सकें। सन् 1959 ई0 में भूमि संबंधी पहला अधिनियम पास हुआ। यह अधिनियम समस्त ब्रिटिश भारत के लिये एक आदर्श भूमि-अधिनियम था जिसके अनुरूप अधिनियम भारत के सभी भागों में पास हुए और समय समय पर उनमें संशोधन भी किए गए ताकि असंतुष्ट कृषकों को शांत किया जा सके। किंतु जमींदार फिर भी कृषकों को अपने न्यायपूर्ण तथा अन्यायपूर्ण करों को वसूलने के लिये निचोड़ते रहे जिससे किसानों में घोर असंतोष तथा बेचैनी फैलेने लगी।
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