"थेरगाथा": अवतरणों में अंतर
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'''थेरगाथा''', [[खुद्दक निकाय]] का आठवाँ ग्रंथ है। इसमें 264 थेरों के उदान संगृहीत हैं। ग्रंथ 21 निपातों में है। पहले निपात में 12 वर्ग हैं, दूसरे निपात में 5 वर्ग हैं और शेष निपातों में एक एक वर्ग है। गाथाओं की संख्या 1279 हैं।
थेरगाथा में परमपद को प्राप्त थेरों के उदान अर्थात् उद्गारपूर्ण गाथाएँ हैं। विमुक्तिसुख के परमानंद में उनके मुख से निकली हुई ये गीतात्मक उक्तियाँ हैं। आध्यात्मिक साधना के उच्चतम शिखर पर पहुँचे हुए उन
अधिकांश गाथाओं में सीधे निर्वाण के प्रति संकेत है। कुछ गाथाओं में साधकों की साधना को सफल बनाने में सहायक प्रेरणाओं का उल्लेख है। कुछ गाथाओं में परमपद को प्राप्त थेरों द्वारा ब्रह्मचारियों या जनसाधारण को दिए गए उपदेशों का भी उल्लेख है।
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थेरगाथा में [[भगवान् बुद्ध]] द्वारा स्थापित संघ का एक सुंदर चित्र मिलता है। उसमें एक ओर दीनदुखियों की कुटियों से निकले साधारण कोटि के लोग थे; दूसरी ओर कपिलवस्तु, देवदह, वैशाली, राजगृह, श्रावस्ती आदि राजधानियों के राजमहलों और प्रासादों से निकले उच्च कोटि के लोग थे। तथागत की शरण में आकर वे सब एक हो गए थे। संघ में लौकिक धन, बल तथा पद का मान नहीं था। केवल शील, समाधि तथा प्रज्ञा का मान था। वे संसार की विषमताओं से परे हो आध्यात्मिक समता को प्राप्त हुए थे। इसी कारण एक ही स्वर में उनकी हृदयतंत्रियों से विमुक्तिसुख के मधुर गीत निकलते थे।
थेरगाथा में स्वानुभव के साथ साथ प्राकृतिक सौंदर्य का भी सुंदर वर्णन मिलता है। समाज में मन को विक्षिप्त करनेवाले अनेक साधन हैं। लेकिन प्रकृति के वातावरण में मन शांत और एकाग्र हो जाता है। इसलिये वे
संतसाहित्य में थेरगाथा का विशेष स्थान है। इन गाथाओं में वे
== कुछ थेरों का उदाहरण ==
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