"पालि भाषा का साहित्य": अवतरणों में अंतर

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== पालि साहित्य की विकासयात्रा ==
यद्यपि [[त्रिपिटक]] में ही कुछ ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनसे बुद्ध के जीवनकाल में ही [[धर्म]] के कुछ प्रकरणों के व्यवस्थित पाठ किए जाने का पता चलता है। उदाहरणार्थ, उदान में वर्णन है कि एक बार सीण नामक भिक्षु से स्वयं भगवान्भगवान ने पूछा कि तुमने धर्म को कैसे समझा? इसके उत्तर में उस भिक्षु ने 16 अष्टक वर्गों को पूरे स्वर के साथ गाकर सुना दिया। इसकी भगवान्भगवान ने प्रशंसा भी की। विनयपिटक आदि ग्रंथों में बहुश्रुत, धर्मधर, विनयधर, मातृकाधर तथा पंचनेकायिक, भाणक, सुत्तंतिक जैसे विशेषणों का प्रयोग मिलता है, जिनसे स्पष्ट है कि बुद्ध के उपदेशों के धारण, पारण की परंपरा उनके जीवनकाल से ही चल पड़ी थी। इस परंपरा के आधार पर बुद्ध के उपदेशों को सुव्यवस्थित साहित्यिक रूप देने के लिए तीन बार संगीतियाँ की जाने के उल्लेख चुल्लवग्ग, दीपवंश, महावंश आदि ग्रंथों में मिलते हैं। प्रथम संगीति बुद्धनिर्वाण के चार मास पश्चात् ही राजगृह में हुई जिनमें 500 भिक्षुओं ने भाग लिया, जिसके करण वह पंचशतिका नाम से भी प्रसिद्ध है। इसकी अध्यक्षता महाकाश्यप ने की और उन्होंने बुद्ध के साक्षात् शिष्य भिक्षु उपालि से विनय संबंधी तथा स्थविर आनंद से सुत्त संबंधी प्रश्न पूछ-पूछकर अन्य भिक्षुओं के अनुमोदन से उक्त विषयों का संग्रह किया। इसी प्रकार की दूसरी संगीति बुद्ध निर्वाण के 100 वर्ष पश्चात् वैशाली में हुई जिसमें 700 भिक्षु सम्मिलित हुए और इसीलिए वह सप्तशतिका के नाम से विख्यात हुई। इसमें वैशाली के भिक्षुओं के आचरण में अनेक दोष दिखाकर उन्हें विनय के विरुद्ध ठहराया गया और अनुमानत: विनयपिटक में विशेष व्यवस्था लाई गई। बुद्धघोष के मतानुसार तो इसी संगीति द्वारा बुद्ध वचनों का त्रिपिटक, पाँच निकाय, नौ अंग तथा चौरासी हजार धर्मस्कंधों में वर्गीकरण किया गया। तीसरी संगीति बुद्धनिर्वाण के 226 वर्ष पश्चात् [[सम्राट् अशोक]] के राज्यकाल में पाटलिपुत्र में हुई। इसकी अध्यक्षता मोग्गलिपुत्त तिस्स ने की। यह सम्मेलन नौ मास तक चला और उसमें बुद्धवचनों को अंतिम स्वरूप दिया गया। इसी बीच मोग्गलिपुत्त तिस्स ने कथावत्यु की रचना की जिसमें 18 मिथ्यादृष्टि बौद्ध संश्दायों की मान्यताओं का निराकरण किया। इस रचना को भी अभिधम्मपिटक में सम्मिलित कर लिया गया। इस संगीति का उल्लेख चुल्लवग्ग में नहीं है और न तिब्बती या चीनी महायान संप्रदाय के सहित्य में। अशोक के भाब्रू के लेख, जिसमें सात प्रकरणों के नाम भी उद्धृत हैं, उसमें, अथवा अन्य धर्मलिपियों में ऐसी किसी संगीति का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया। इस कारण इसकी ऐतिहासिकता में कीथ, वैलेसर आदि विद्वानों को संदेह है। किंतु रीज़डेविड्स, विंटरनित्ज़ तथा गाइगर आदि विद्वानों ने इसकी ऐतिहासिकता स्वीकार की है। जिस संगीति की ऐतिहासिकता के विषय में प्राचीन उल्लेख एवं आधुनि विद्वान् एकमत है, वह है वैशाली की द्वितीय संगीति। इन संगीतियों तथा अन्य प्रयत्नों के फलस्वरूप पालि त्रिपिटक का जो स्वरूप प्राप्त हुआ एवं जिस रूप में वह हमें आज उपलब्ध है, वह निम्न प्रकार है :
 
== वर्गीकरण ==
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मूल पालि साहित्य तीन भागों में विभक्त है, जिन्हें '''पिटक''' कहा गया है - "विनयपिटक", "सुत्तपिटक" और "अभिधम्मपिटक"। इनमें से प्रत्येक पिटक के भीतर अपने अपने विषय से संबंध रखनेवाली अनेक छोटी बड़ी रचनाओं का समावेश है।
 
पालि के इन तीन पिटकों में ई. पूर्व छठी शती में हुए भगवान्भगवान बुद्ध के विचारों और उपदेशों का एक विशेष शैली में संकलन किया गया है। तीनों पिटकों में परस्पर तारतम्य है। विषय का मूलाधार सुत्तपिटक है जिसमें भगवान्भगवान के उपदेशों को श्रोताओं को हृदयंगम कराने के लिए सरल से सरल, रोचक कथात्मक शैली का आलंबन लिया गया है। यहाँ वस्तु को संक्षेप में कहने का प्रयत्न नहीं किया गया। उद्देश्य है नई-नई बातों को सामान्य श्रोताओं के ग्रहण योग्य बनाना और इसीलिए यहाँ उपदेश के मुख्य भाग की बार-बार पुनरावृत्ति की गई है। प्रसंगवश इन सुत्तों में तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों का चित्रण भी आ गया है जो प्राचीन इतिहास की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ, दीघ निकाय के समञ्ञफल सुत्त, ब्रह्मजाल सुत्त एवं महापरिनिब्बान सुत्त में बुद्ध के समसामयिक धर्मप्रवर्तकों जैसे मंखलिगोसाल, पकुधकच्चायन, अजित केस कंबलि, संजय बलट्ठिपुत्त निगंठनातपुत्त, आदि के आचार-विचारों तथा उनके द्वारा प्रवर्तित धर्म संप्रदायों की बौद्ध दृष्टि से आलोचना पाई जाती है और साथ ही उन-उन विषयों पर बौद्ध मान्यता का प्रतिपादन भी पाया जाता है। सामाजिक चित्रण सुत्तपिटक में बिखरा पड़ा है, तथापि खुद्दक निकाय के अंतर्गत [[जातक|जातकों]] में इसकी प्रचुर सामग्री उपलब्ध है। सुत्तों में स्थान-स्थान पर बुद्धकालीन [[मगध]], [[विदेह]], [[कोशल]], [[काशी]] आदि 16 जनपदों के राजाओं उनके परस्पर संबंधों एवं लड़ाई-झगड़ों और दाँव-पेंचों के उल्लेख भरे पड़े हैं। सुत्तों के उपदेशों में जिस बौद्ध आचार के संकेत पाए जाते हैं, उन्हीं की भिक्षुओं के योग्य सदाचार के नियमों के रूप में विधि-निषेध-प्रणाली से व्यवस्था विनय पिटक में भी की गई है। इसी प्रकार सुत्तों में जिस तत्वचिंतन के [[बीज]] सन्निहित हैं, उनका दार्शनिक शब्दावली में सैद्धांतिक रूप से प्रतिपादन और विवेचन अभिधम्म पिटक में किया गया है। इस परस्पर आनुषंगिकता के कारण बौद्धधर्म का पूरा सांगोपांग एवं सुव्यवस्थित परिज्ञान बिना त्रिपिटक के अवलोकन के नहीं हो सकता। यह पालि त्रिपिटक विषय की दृष्टि से स्वयं बुद्ध भगवान्भगवान के उपदेशों पर आधारित है। उपलब्ध ग्रंथ रचना की दृष्टि से ई. पूर्व तृतीय शताब्दी से पश्चात् का सिद्ध नहीं होता। बौद्ध परंपरानुसार [[सम्राट अशोक|अशोक सम्राट्]] के काल में ही उनके पुत्र महेंद्र स्वयं बौद्ध भिक्षु बनकर इस साहित्य को लंका ले गए और वहाँ प्रथम शती ई. में राजा बट्टगामणी के राज्यकाल में उसे वह लिखित रूप प्राप्त हुआ जिसमें वह आज हमें मिलता है। तथापि उसमें ऐसी कोई बात हमें नहीं मिलती जो बीच की दो तीन शताब्दियों के काल में लंका की परिस्थितियों के प्रभाव के कारण उसमें आई कहीं जा सके।
 
==== विनयपिटक ====
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==== सुत्तपिटक ====
सुत्तपिटक अपने विषय, विस्तार तथा रचना की दृष्टि से त्रिपिटक का सबसे महत्वपूर्ण भाग है। इसमें ऐसे सुत्तों का संग्रह किया गया है जो परंपरानुसार या तो स्वयं भगवान्भगवान बुद्ध के कहे हुए हैं या उनके साक्षात् शिष्य द्वारा उपदिष्ट हैं और जिनका अनुमोदन स्वयं भगवान्भगवान बुद्ध ने किया है। सुत्त का [[संस्कृत]] रूपांतर [[सूत्र]] किया जाता है। किंतु प्रस्तुत सुत्तों में सूत्र के वे लक्षण दृष्टिगोचर नहीं होते जो संस्कृत की प्राचीन सूत्ररचनाओं, जैसे [[वैदिक साहित्य]] के श्रौत सूत्र, गृह्म एवं धर्मसूत्र आदि में पाए जाते हैं। सूत्र का विशेष लक्षण है अति संक्षेप में कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ व्यक्त करना। उसमें पुनरुक्ति का सर्वथा अभाव अविद्यमान है। किन्तु यहाँ संक्षिप्त शैली के विपरीत सुविस्तृत व्याख्यान तथा मुख्य बातों की बार-बार पुनरावृत्ति की शैली अपनाई गई है। इस कारण सुत्त का सूत्र रूपांतर उचित प्रतीत नहीं होता। विचार करने से अनुमान होता है कि '''सुत्त''' का अभिप्राय मूलत: '''सूक्त''' से रहा है। वेदों के एक एक प्रकरण को भी सूक्त ही कहा गया है। किसी एक बात के प्रतिपादन को सूक्त कहना सर्वथा उचित प्रतीत होता है।
 
सुत्तपिटक के पाँच भाग हैं जिन्हें निकाय कहा गया हैं - दीघनिकाय, मज्झिमनिकाय, संयुक्तनिकाय, अंगुत्तरनिकाय और खुद्दकनिकाय। दीर्घनिकाय तीन वर्गों में विभाजित है। प्रथम सीलक्खंधवग्ग में 13 सुत्त हैं, दूसरे महावग्ग में 10 तथा तीसरे पाटिकवग्ग में 11। इस प्रकार दीर्घनिकाय में 34 सुत्त हैं। ये सुत्त अन्य निकायों में संगृहीत सुत्तों की अपेक्षा विस्तार में अधिक लंबे है और यही इस निकाय के नाम की सार्थकता है।
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: (1) सगाथ (2) निदान (3) खंध (4) षडायतन और (5) महावग्ग।
 
अंगुत्तर निकाय की अपनी एक विशेषता है। इसमें सुत्तों का संग्रह एक व्यवस्था के अनुसार किया गया है। आदि में ऐसे सुत्त हैं जिनमें बुद्ध भगवान्भगवान के एक संख्यात्मक पदार्थो विषयक उपदेशों का संग्रह है, तत्पश्चात् दो पदार्थों विषयक सुत्तों का और फिर तीन, चार आदि। इसी क्रम से इस निकाय के भीतर एककनिपात, दुकनिपात एवं तिक, चतुवक, पंचक, छक्क, सत्तक, अट्ठक, नवक, दसक और एकादसक इन नामों के ग्यारह निपातों का संकलन है। ये निपात पुन: वर्गों में विभाजित हैं, जिनकी संख्या निपात क्रम से 21, 16, 16, 26, 12, 9, 9, 9, 22 और 3 है। इस प्रकार 11 निपातों में कुल वर्गों की संख्या 169 है। प्रत्येक वर्ग के भीतर अनेक सुत्त हैं जिनकी संख्या एक वर्ग में कम से कम 7 और अधिक से अधिक 262 है। इस प्रकार अंगुत्तर निकाय से सुत्तों की संख्या 2308 है।
 
खुद्दक निकाय में विषय तथा रचना की दृष्टि से प्राय: सर्वथा स्वतंत्र 15 रचनाओं का समावेश है, जिनके नाम हैं -
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==== अभिधम्मपिटक ====
पालि त्रिपिटक के तीसरे भाग अभिधम्मपिटक में भगवान्भगवान बुद्ध के दर्शनात्मक विचारों का विश्लेषण और वर्गीकरण किया गया है तथा तात्विक दृष्टि से उनकी सूचियाँ और परिभाषाएँ उपस्थित की गई हैं। इस पिटक में निम्न सात ग्रंथों का समावेश है-
:(1) धम्म्संगणि (2) विभंग (3) कथावत्थु (4) पुग्गलपञ्ञत्ति (5) धातुकथा (6) यमक और (7) पठ्ठान।
 
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==== महावंश ====
दीपवंश की रचना से कुछ काल पश्चात् महानाम के द्वारा '''[[महावंश]]''' की रचना हुई। इसका मूलाधार भी वे ही सिंहल की अट्ठकथाएँ तथा दीपवंश है। यहाँ विषय का प्रतिपादन दीपवंश की अपेक्षा अधिक विशद और व्यवस्थित है। भाषा भी अपेक्षाकृत अधिक परिमार्जित और शैली तो कहीं कहीं महाकाव्यों की पद्धति का स्मरण कराती है। महावंश का मूल भाग 37 परिच्छेदों का है और वह दीपवंश के समान महासेन के शासनकाल पर समाप्त होता है। प्रारंभ के परिच्छेदों में जो लंका में बौद्धधर्म के आगमन से पूर्व देश की धार्मिक परिस्थितियों के उल्लेख आए हैं, वे ऐतिहासिक दृष्टि से बड़े महत्वपूर्ण हैं। उदाहरणार्थ, पांड्डकामय नरेश का राज्यकाल महेंद्र द्वारा लंका में बौद्धधर्म के प्रवेश से 60 वर्ष पूर्व तक रहा कहा गया है। इस राजा ने 70 वर्ष राज्य किया तथा राज्य के 10वें वर्ष में ही [[अनुराधपुर]] नगर की स्थापना की। इससे आगे इस रचना में समय-समय पर परिवर्धन किया गया है। 37वें परिच्छेद की 50वीं गाथा से आगे 79वें परिच्छेद तक की रचना स्थविर [[धर्मकीर्ति]] कृत है और उसमें महासेन के काल से लेकर [[पराक्रमबाहु प्रथम]] (ई. 1240-75) तक 78 राजाओं की वंशपरंपरा दी गई है। महावंश का यह तथा इससे आगे के परिच्छेद चूलवंश कहलाता है। चूलवंश 80 से 90 तक के 11 परिच्छेदों के रचयिता [[बुद्धरक्षित]] भिक्षु ने आगामी 23 राजाओं का वर्णन किया जो पराक्रमबाहु चतुर्थ तक आया। 91 से 100 तक के 10 परिच्छेद सुमंगल थेर द्वारा रचे गए और उनमें भुवनेकबाहु तृतीय से लेकर कीर्तिश्री राजसिंह के काल (लग. ई. 1785) तक के 24 राजाओं का वर्णन किया। यहाँ लंका में [[ईसाई धर्म]] के प्रचार की भी सूचना मिलती है। अगला 101वाँ परिच्छेद सुमंगलाचार्य तथा देवरक्षित द्वारा रचा गया। तत्पश्चात् वहाँ का राज्य अंग्रेजों के हाथ में चले जाने की भी सूचना है। महावंश का अंतिम परिवधर्न भिक्षु प्रज्ञानंद नायक द्वारा 1936 में प्रकाशित हुआ और इसमें 1815 से 1935 ई. तक का लंका का इतिहास समाविष्ट किया गया है। इस प्रकार महावंश की रचना में छह ग्रंथकारों का हाथ है जिनके द्वारा इसमें भगवान्भगवान बुद्ध से लेकर लगभग ढाई हजार वर्षों का लंका का इतिहास अविच्छिन्न रूप से अंकित किया गया है। यह ग्रंथ इस बात का भी प्रतीक है कि उक्त दीर्घ काल तक लंका में पालि भाषा को किस प्रकार जीवित रखा गया और उसमें साहित्यिक रचना की धारा को कभी सूखने नहीं दिया गया।
 
==== अ न्य वंश ग्रन्थ ====
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(2) 13वीं शती में भिक्षु सारिपुत्त के शिष्य वाचिस्सर ने गद्य में '''थूपवंस''' की रचना की, जिसमें बुद्ध की धातुओं पर निर्मित स्तूपों का इतिहास दिया गया है। ग्रंथकार के मतानुसार तथागत, प्रत्येक बुद्ध, तथागत के शिष्य एवं चक्रवर्ती राजाओं के अवशेष जिन चैत्यों में रखे जाते हैं, वे स्तूप कहलाते हैं। बुद्ध के अवशेष आदि राजगृह, वैशाली आदि आठ स्थानों में रखे गए। किंतु मगधराज अजातशत्रु ने उन सबको एकत्र कर राजगृह के महास्तूप में ही रखा। अशोक ने इनका पुन: विभाजन कर भिन्न-भिन्न स्थानों पर 84 हजार स्तूप बनवाए। लंका में देवानापिय तिस्स के बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने तथा उनकी भतीजी अनुलादेवी की प्रव्रज्या संघमित्रा के हाथों संपन्न हो जाने पर संपूर्ण लंका द्वीप में एक एक योजन के अंतर पर स्तूप बनवाए गए, इत्यादि।
 
(3) '''दाठावंस''' 13वीं शती में सारिपुत्त के शिष्य महास्थविर धर्मकीर्ति द्वारा पद्य में रचा गया। यह रचना पांडित्यपूर्ण है। इसमें विषय का विस्तार प्राय: थूपवंश के ही समान है, केवल यहाँ बौद्ध धर्म का इतिहास भगवान्भगवान बुद्ध के दाँत के साथ गूँथा गया है।
 
(4) '''हत्थवनगल्ल विहारवंस''' भी 13वीं शती की गद्यपद्यात्मक रचना है, जिसके 11 अध्यायों में से प्रथम आठ में लंका नरेश श्री संबोधि का वर्णन है एवं अंतिम तीन अध्यायों में उनके द्वारा निर्मापित विहारों का जिनमें से एक अति सुप्रसिद्ध अत्तनगलु विहार या हत्थवनगलु विहार भी था।
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(5) 14वीं शती में महामंगल भिक्षु द्वारा '''बुद्धधोसुप्पत्ति''' के नाम से बुद्धघोष का जीवनचरित् लिखा गया। इसका तथ्यात्मक अंश उतना ही है जितना महावंश आदि में पाया जाता है। बुद्धघोष के जन्म, बाल्यकाल, शिक्षा, दीक्षा आदि विषयक वर्णन प्राय: कल्पित हैं।
 
(6) 14वीं शती की एक अन्य रचना '''सद्धम्मसंगह''' है, जिसके कर्ता महास्वामी धर्मकीर्ति हैं। इसमें आदि से लेकर 13वीं शती तक के बौद्धधर्म एवं भिक्षुसंघ का इतिहास देने का प्रयत्न किया गया है। कर्ता ने त्रिपिटक के ग्रंथों के उल्लेख भी दिए हैं। कब, किन देश प्रदेश में धर्मप्रचार के लिए भिक्षु भेजे गए इसका यहाँ विस्तृत वर्णन पाया जाता है। ग्रंथ में कुल 40 गद्यपद्यात्मक अध्याय हैं। नौवें अध्याय में बहुत से ग्रंथों और ग्रंथकारों के भी उल्लेख आए हैं। 14वीं शती के पश्चात् लंका में इस प्रकार की कोई विशेष ग्रंथरचना नहीं पाई जाती। किंतु इस प्रणाली के तीन ग्रंथ 19वीं शती में ब्रह्मदेश में लिखे गए मिलते हैं। किसी एक भिक्षु ने गद्य-पद्य-मिश्रित सरल शैली में भगवान्भगवान बुद्ध के छह केशों के ऊपर निर्माण कराए गए स्तूपों का वर्णन छकेस धातुवंस नामक ग्रंथ में किया है। इस शती की विशेष महत्वपूर्ण रचना है
 
(7) '''गंधवंस''' (ग्रंथवंश), जिसमें महाकच्चान से लेकर नागिताचार्य तक के 56 ग्रंथकारों तथा उनकी रचनाओं का परिचय दिया गया है। इनके अतिरिक्त कोई 30 ग्रंथ ऐसे भी उल्लखित हैं जिनके कर्ताओं के नाम नहीं दिए गए। यह ग्रंथ बड़ी सावधानी से लिखा गया प्रतीत होता है। 19वीं शती की एक और रचना है