"बृहतत्रयी (संस्कृत महाकाव्य)": अवतरणों में अंतर

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== नैषधीय चरित ==
अलंकृत काव्यरचना शैली की प्रधानतावाले माघोत्तरयुगी कवियों द्वारा निर्मित काव्यों में अलंकरण प्रधानता, प्रौढ़ोक्ति कल्पना से प्रेरित वर्णन प्रंसगों की स्फीतता तथा पांडित्यलब्ध ज्ञानगरिष्ठाता अतिसंयोजन आदि की प्रवृत्ति बढ़ी। उस रुचि का पूर्ण उत्कर्ष [[श्रीहर्ष]] के नैषधीय चरित (या जिसे केवल "नैषध" भी कहते हैं) में देखा जा सकता है। बृहत्त्रयी के इस बृहत्तम महाकाव्य का महाकवि, न्याय, मीमांसा, योगशास्त्र आदि का उद्भट विद्वान् था और था तार्किक पद्धति का महान्महान अद्वैत वेदांती। नैषध में शास्त्रीय वैदुष्य और कल्पना की अत्युच्च उड़ान, आद्यंत देखने को मिलती हैं।
 
इस महाकाव्य का मूल आधार है "[[महाभारत]]" का "[[नलोपाख्यान]]"। मूल कथा के मूल रूप में यथावश्यक परिवर्तन भी यत्र-तत्र किया गया है। ऐसा मालूम पड़ता है कि इस पुराणकथा की लोकप्रियता ने बड़े प्राचीन काल से ही इसे लोककथा बना दिया है। इस कारण कवि ने वहाँ से भी कुछ तत्व लिए। यह महाकाव्य आद्यंत शृंगारी है। पूर्वराग, विरह, हंस का दूतकर्म, स्वयंबर, नल-दमयंती-विवाह, दंपति का प्रथम समागम और अष्टयामचर्या तथा संयोगविलास की खंडकाव्यीय कथावस्तु को कवि के वर्णनचरित्रों और कल्पनाजन्य वैदुष्यविलास ने अत्यत वृहदाकार बना दिया है। शृंगारपरिकर के वर्ण्यचित्रों ने भी उस विस्तारण में योग दिया है। अपनी कल्पना की उड़ान के बल से पंडित कवि द्वारा एक ही चित्र को नई नई अप्रस्तुत योजनाओं द्वारा अनेक रूपों में विस्तार के साथ रखा गया है। लगता है, एक प्रस्तुत को एक के बाद एक इतर अप्रस्तुतों द्वारा आंकलित करने में कवि की प्रज्ञा थकती ही नहीं। प्रकृतिजगत् के स्वभावेक्तिपथ रूपचित्रांकन, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा अतिशयोक्ति, व्यतिरेक, श्लेष आदि अर्थालंकारों की समर्थयोजना, अनुप्रासयमक, शब्दश्लेष, शब्दचित्रादि चमत्कारों का साधिकार प्रयोग और शब्दकोश के विनियोग प्रयोग की अद्भुत क्षमता, शास्त्रीय पक्षों का मार्मिक, प्रौढ़ और समीचीन नियोजन, कल्पनाओं और भावचित्रों का समुचित निवेशन, प्रथम-समागम-कालीन मुग्धनववधू की मन:स्थिति, लज्जा और उत्कंठा का सजीव अंकन, अलंकरण और चमत्कार की अलंकृत काव्यशैली का अनायास उद्भावन और अपने पदलालित्य आदि के कारण इस काव्य का संस्कृत की पंडितमंडली में आज तक निरंतर अभूतपूर्व समादर होता चला आ रहा है।