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राजशेखर की '''काव्यमीमांसा''' रीति-रस-अलंकार आदि किसी एक विषय को लेकर लिखी रचना नहीं है, किंतु अपनी नवीन प्रतिभाजन्य शैली द्वारा काव्य एवं कवि के समग्र प्रयोजनीय विषयों का एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी संकलन है। इस ग्रंथ का प्रथम अधिकरण ही उपलब्ध है जिसमें १८ अध्याय हैं। इसका नाम 'कवि रहस्य' है जो वस्तुत: कवि के रहस्य को प्रकट करता है। इसमें कवियों का श्रेणीनिर्धारण; कवियों के बैठने का क्रम, वेशभूषा आदि कर वर्णन है अत: इसमें प्रधान विषय कविशिक्षा का ही है। एक रोचक कथा को आधार बनाकर प्रवृत्ति, वृत्ति और रीति के संबंध में राजशेखर का कथन है कि काव्यपुरुष के अन्वेषण के समय उनकी प्रिया साहित्यवधू देश के विभिन्न अंचलों में विलक्षण वेशभूषा, विचित्र विलास और नवीन नवीन वचनविन्यास को धारण करती जाती थी। इस प्रकार प्रवृत्ति अर्थात् वेशविन्यासक्रम; वृत्ति अर्थात् विलासविन्यासक्रम और रीति अर्थात् वचनविन्यासक्रम के आधार को लेकर भारत के विभिन्न अंचलों की साहित्यिक संपदा एवं काव्यगत सौंदर्य की समीक्षा के विवेक पर राजशेखर ने विभिन्न प्रदेशों के नाम से विभिन्न काव्यशैलियों का तथ्यमूलक नामाकरण किया है।
राजशेखर ने अपने को कविराज कहा है और कवियों की दस श्रेणियों में महाकवि के ऊपर उसको स्थान दिया है। राजशेखर ने अपने को [[वाल्मीकि]], [[भर्तृमेष्ट]] और [[भवभूति]] की परंपरा का व्यक्त किया है। प्रदेश विशेष के आधार पपर चार प्रवृत्तियाँ मानते हुए भी राजशेखर ने वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली, ये तीन ही रीतियाँ मानी हैं। काव्यमीमांसा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि राजशेखर के विचार में सूक्ष्मतापूर्वक प्रकृतिनिरीक्षण न करना कवि का
'बालभारत' या 'प्रचंडपांडव' और 'बालरामायण' क्रमश: [[रामायण]] और [[महाभारत]] की कथा के आधार पर निर्मित [[नाटक]] हैं। ये नाटक संभवत: 'बालानां सुखबोधाय' न होकर राजेश्वर की प्रारंभिक कृतियाँ रही हैं। 'कर्पूरमंजरी' सट्टक में प्रेमकथा निबद्ध है। 'विद्धशालभंजिका' भी एक प्रेमाख्यान है। कर्पूरमंजरी और काव्यमीमांसा प्रौढ़ काल की रचनाएँ हैं।
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