"राम प्रसाद 'बिस्मिल'": अवतरणों में अंतर
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== काकोरी-काण्ड ==
[[चित्र:Accused of Cacori Conspiracy1271.gif|thumb|right|200px||<big>काकोरी-काण्ड के क्रान्तिकारी</big><br /> <small>सबसे ऊपर [[राम प्रसाद 'बिस्मिल']]
'''दि रिवोल्यूशनरी''' नाम से प्रकाशित इस ४ पृष्ठीय [[घोषणापत्र]] को देखते ही ब्रिटिश सरकार इसके लेखक को [[बंगाल]] में खोजने लगी। संयोग से शचीन्द्र नाथ सान्याल बाँकुरा में उस समय गिरफ्तार कर लिये गये जब वे यह पैम्फलेट अपने किसी साथी को पोस्ट करने जा रहे थे। इसी प्रकार योगेशचन्द्र चटर्जी [[कानपुर]] से पार्टी की मीटिंग करके जैसे ही [[हावड़ा]] स्टेशन पर ट्रेन से उतरे कि एच॰ आर॰ ए॰ के [[संविधान]] की ढेर सारी प्रतियों के साथ पकड़ लिये गये। उन्हें [[हजारीबाग]] जेल में बन्द कर दिया गया। दोनों प्रमुख नेताओं के गिरफ्तार हो जाने से राम प्रसाद बिस्मिल के कन्धों पर [[उत्तर प्रदेश]] के साथ-साथ बंगाल के क्रान्तिकारी सदस्यों का उत्तरदायित्व भी आ गया। बिस्मिल का स्वभाव था कि वे या तो किसी काम को हाथ में लेते न थे और यदि एक बार काम हाथ में ले लिया तो उसे पूरा किये बगैर छोड़ते न थे। पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता पहले भी थी किन्तु अब तो और भी अधिक बढ़ गयी थी। कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने ७ मार्च १९२५ को [[बिचपुरी]] तथा २४ मई १९२५ को द्वारकापुर में दो राजनीतिक डकैतियाँ डालीं। परन्तु उनमें कुछ विशेष धन उन्हें प्राप्त न हो सका।
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फाँसी की सजा पाये तीनों अभियुक्तों - भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर दिया। अन्य सजायाफ्ता अभियुक्तों में से सिर्फ़ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फरवरी १९३१ को [[लन्दन]] की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आजाद ने इनकी सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे [[सीतापुर]] जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी से परामर्श कर वे [[इलाहाबाद]] गये और [[जवाहरलाल नेहरू]] से उनके निवास-स्थान [[आनन्द भवन]] में भेंट की और उनसे यह आग्रह किया कि वे गान्धी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की [[फाँसी]] को उम्र - कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें। नेहरू जी ने जब आजाद की बात नहीं मानी तो आजाद ने उनसे काफी देर तक बहस की। इस पर नेहरू ने क्रोधित होकर आजाद को तत्काल वहाँ से चले जाने को कहा। आज़ाद अपने तकियाकलाम "स्साला" के साथ भुनभुनाते हुए नेहरू के ड्राइँग रूम से बाहर निकले और अपनी साइकिल पर बैठकर अल्फ्रेड पार्क की ओर चले गये। अल्फ्रेड पार्क में अपने एक मित्र सुखदेवराज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी॰ आई॰ डी॰ का एस॰ एस॰ पी॰ नॉट बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद को वीरगति प्राप्त हुई। यह २७ फरवरी १९३१ की घटना है। २३ मार्च १९३१ को निर्धारित समय से १३ घण्टे पूर्व भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर की सेण्ट्रल जेल में शाम को ७ बजे फाँसी दे दी गयी। यह जेल मैनुअल के नियमों का खुला उल्लंघन था, पर कौन सुनने वाला था? इन तीनों की फाँसी का समाचार मिलते ही पूरे देश में मारकाट मच गयी। [[कानपुर]] में हिन्दू-मुस्लिम दंगा भड़क उठा जिसे शान्त करवाने की कोशिश में क्रान्तिकारियों के शुभचिन्तक गणेशशंकर विद्यार्थी भी शहीद हो गये। इस प्रकार दिसम्बर १९२७ से मार्च १९३१ तक एक-एक कर देश के ११ नरसिंह आजादी की भेंट चढ़ गये।
[[उत्तर भारत]] की क्रान्तिकारी गतिविधियों के अलावा [[बंगाल]] की घटनाओं का लेखा-जोखा भी [[इतिहास]] में दर्ज़ है। [[हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन]] में बंगाल के भी कई क्रान्तिकारी शामिल थे जिनमें से एक [[राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी]] को निर्धारित तिथि से २ दिन पूर्व १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी दिये जाने का कारण केवल यह था कि बंगाल के क्रान्तिकारियों ने फाँसी की निश्चित तिथि से एक दिन पूर्व अर्थात् १८ दिसम्बर १९२७ को ही उन्हें [[गोण्डा]] [[जेल]] से छुड़ा लेने की योजना बना ली थी। इसकी सूचना सी॰ आई॰ डी॰ ने ब्रिटिश सरकार को दे दी थी। १३ जनवरी १९२८ को मणीन्द्रनाथ बनर्जी ने चन्द्रशेखर आजाद के उकसाने पर अपने सगे चाचा को, जिन्हें काकोरी काण्ड में अहम भूमिका निभाने के पुरस्कारस्वरूप डी॰ एस॰ पी॰ के पद पर प्रोन्नत किया गया था, उन्हीं की सर्विस रिवॉल्वर से मौत के घाट उतार दिया। दिसम्बर १९२९ में मछुआ बाजार गली स्थित निरंजन सेनगुप्ता के घर छापा पड़ा, जिसमें २७ क्रान्तिकारियों को गिरफ्तार कर केस कायम हुआ और ५ को कालेपानी की सजा दी गयी। १८ अप्रैल १९३० को मास्टर [[सूर्य सेन]] के नेतृत्व में [[चटगाँव]] शस्त्रागार लूटने का प्रयास हुआ जिसमें सूर्य सेन व तारकेश्वर दस्तीगार को [[फाँसी]]
[[चित्र:L.B.Shastri1286.gif|thumb|right|200px|'''"मरो नहीं, मारो!"''' का नारा १९४२ में [[लालबहादुर शास्त्री]] ने दिया जिसने क्रान्ति की [[दावानल]] को प्रचण्ड किया।]]
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