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[[भारतीय संस्कृति]] में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। [[वेद व्यास|महाभारतकार]] ने यहाँ तक कहा है कि '''ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किञ्चित् सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन्''' (शांति पर्व 301। 109)। वस्तुत: [[महाभारत]] में दार्शनिक विचारों की जो पृष्ठभूमि है, उसमें सांख्यशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। शांति पर्व के कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के विचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढंग से उल्लेख किया गया है। सांख्य दर्शन का प्रभाव [[गीता]] में प्रतिपादित दार्शनिक पृष्ठभूमि पर पर्याप्त रूप से विद्यमान है।
 
इसकी लोकप्रियता का कारण एक यह अवश्य रहा है कि इस दर्शन ने जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। सांख्याचार्यों के इस प्रकृति-कारण-वाद का महान्महान गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले [[सत्]], [[रजस्]] तथा [[तमस्]] तत्वों के आधार पर जगत् की विषमता का किया गया समाधान बड़ा बुद्धिगम्य प्रतीत होता है। किसी लौकिक समस्या को ईश्वर का नियम न मानकर इन प्रकृतियों के तालमेल बिगड़ने और जीवों के पुरुषार्थ न करने को कारण बताया गया है। यानि, सांख्य दर्शन की सबसे बड़ी महानता यह है कि इसमें [[सृष्टि]] की उत्पत्ति ''भगवान'' के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक अनेक अवस्थाओं (phases) से होकर गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। कपिलाचार्य को कई अनीश्वरवादी मानते हैं पर भग्वदगीता और [[सत्यार्थप्रकाश]] जैसे ग्रंथों में इस धारणा का निषेध किया गया है।
 
== सांख्य के प्रमुख सिद्धांत ==
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सांख्य दर्शन प्राचीनकाल में अत्यंत लोकप्रिय तथा प्रथित हुआ था। भारतीय संस्कृति में किसी समय सांख्य दर्शन का अत्यंत ऊँचा स्थान था। देश के उदात्त मस्तिष्क सांख्य की विचार पद्धति से सोचते थे। महाभारतकार ने यहाँ तक कहा है कि ''ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किञ्चित् सांख्यागतं तच्च महन्महात्मन्'' (शांति पर्व 301। 109)। वस्तुत: महाभारत में दार्शनिक विचारों की जो पृष्ठभूमि है, उसमें सांख्यशास्त्र का महत्वपूर्ण स्थान है। शांति पर्व के कई स्थलों पर सांख्य दर्शन के विचारों का बड़े काव्यमय और रोचक ढंग से उल्लेख किया गया है। सांख्य दर्शन का प्रभाव गीता में प्रतिपादित दार्शनिक पृष्ठभूमि पर पर्याप्त रूप से विद्यमान है। वस्तुत: सांख्य दर्शन किसी समय अत्यंत लोकप्रिय हो गया था।
 
इसकी लोकप्रियता के और चाहे जो भी कारण हों पर एक तो यह अवश्य रहा प्रतीत होता है कि इस दर्शन ने जीवन में दिखाई पड़ने वाले वैषम्य का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। सांख्याचार्यों के इस प्रकृति-कारण-वाद का महान्महान गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले सत्वों, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् के वैषम्य का किया गया समाधान बड़ा न्याययुक्त तथा बुद्धिगम्य प्रतीत होता है।
 
== सांख्य नाम की मीमांसा ==
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उपर्युक्त विवेचन से ऐसा निश्चय होता है कि सांख्य दर्शन का "सांख्य" नाम दोनों ही प्रकारों से उसके बुद्धिवादी तर्कप्रधान होने का सूचक है। सांख्यों का अचित् प्रकृति तथा चित् पुरुष, दोनों ही मूलभूत तत्वों को आगम या श्रुति प्रमाण से सिद्ध मानते हुए भी मुख्यत: अनुमान प्रमाण के आधार पर सिद्ध करना भी इसी बात का परिचायक है। आज कल उपलब्ध सांख्य प्रवचन सूत्र एवं सांख्यकारिक, इन दोनों ही मौलिक सांख्य ग्रंथों को देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि इनमें सांख्य के दोनों ही मौलिक तत्वों- प्रकृति एवं पुरुष की सत्ता हेतुओं के आधार पर अनुमान द्वारा ही सिद्ध की गई है<ref> (सां. सू. 1।130-137, 140-144, एवं सांख्यकारिका 15 तथा 17)</ref>। पुरुष की अनेकता में भी युक्तियाँ ही दी गई हैं<ref> (सां. सू. 1।149; तथा सांख्यकारिका 18) </ref>। सत्कार्यवाद की स्थापना भी तर्कों के ही आधार पर की गई है। (सां. सू. 1।114-121, 6।53; तथा सांख्यकारिका 9)। इस प्रकार सांख्या शास्त्र का श्रवण, जो विवेक ज्ञान का मूलाधार है, तर्क प्रधान है। मनन, अनुकाल तर्कों द्वारा शास्त्रोक्त तथ्यों तथा सिद्धांतों का चिंतन है ही। इस प्रकार जिस संख्या या विवेक ज्ञान के कारण सांख्य दर्शन का "सांख्य" नाम पड़ा, उसका विशेष संबंध तर्क और बुद्धिवादिता से है। इस बुद्धिवाद के कारण अवांतर काल में सांख्य दर्शन के कुछ सिद्धांत वैदिक संप्रदाय से बहुत कुछ स्वतंत्र रूप से विकसित हुए जिसके कारण बादरायण व्यास तथा शंकराचार्य आदि आचार्यों ने इसका खंडन करते हुए अवैदिक संप्रदाय, तक कह डाला। यह संप्रदाय अपने मूल में तो अवैदिक नहीं प्रतीत होता और अपने परवर्ती रूप में भी सर्वथा अवैदिक नहीं है।
 
प्रसिद्ध भाष्यकार [[विज्ञानभिक्षु]] ने भी सांख्य को आगम या श्रुति का सत् तर्कों द्वारा किया जाने वाला मनन ही माना है। उन्होंने अपने सांख्य प्रवचन-सूत्र-भाष्य की अवतरणिका में यही बात इस प्रकार कही है- जो "एकोऽद्वितीय:" इत्यादि पुरुष विषयक वेद वचन जीव का सारा अभियान दूर करके उसे मुक्त कराने के लिए उस पुरुष को सर्व प्रकार के वैषम्र्य- रूपभेद से रहित बताते हैं उन्हीं वेद वचनों के अर्थ के मनन के लिए अपेक्षित सद् युक्तियों का उपदेश करने के लिए सांख्यकर्ता नारायणावतार भगवान्भगवान कपिल आविर्भूत हुए थे।
 
== सांख्य दर्शन की वेदमूलकता ==