"नमाज़": अवतरणों में अंतर
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पंक्ति 20:
''ऐ ईमान वालों सब्र और नमाजों से काम लो''
साफ जाहिर है नमाज़ खालिस बन्दे की आसानी के लिए अल्लाह की नेमत है। 5 नमाजों की मिसाल ऐसी है, मानो आपके द्वार पर 5 पवित्र नहरे॥ दिन मे 5 बार आप उनमे स्नान कर के क्या अपवित्र रह सकते हैं? वैसे ही आप अपने मन को इन नहरों मे स्नान करवा दुनिया द्वारा दी गई कलिख और मैल को धो डालते हैं। अल्लाह का डर और उसकी मदद आप को कामयाब इन्सान बनाने में मदद देतें हैं।
== लुगवी मानी ==
पंक्ति 47:
रसूल ख़ुदा सिल्ली अल्लाह अलैहि आला वसल्लम ने भी इसी बात की तरफ़ इशारा फ़रमाया है:
{{Quotation|नमाज़ और हज-ओ-तवाफ़ को इस लिए वाजिब क़रार दिया गया है ताकि ज़िक्र ख़ुदा (याद ख़ुदा) मुहक़्क़िक़ हो सके}}
शहीद महिराब,
{{Quotation|ख़ुदावंद आलम ने नमाज़ को इस लिए वाजिब क़रार दिया है ताकि इंसान तकब्बुर से पाक-ओ-पाकीज़ा हो जाएनमाज़ के ज़रीये ख़ुदा से क़रीब हो जाओ। नमाज़ गुनाहों को इंसान से इस तरह गिरा देती है जैसे दरख़्त से सूखे पत्ते गिरते हैं, नमाज़ इंसान को (गुनाहों से) इस तरह आज़ाद कर देती हैजैसे जानवरों की गर्दन से रस्सी खोल कर उन्हें आज़ाद किया जाता है हज़रत अली रज़ी अल्लाह अन्ना}}
हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलाम अल्लाह अलैहा मस्जिद नबवी में अपने तारीख़ी ख़ुतबा में इस्लामी दस्तो रात के फ़लसफ़ा को ब्यान फ़रमाते हुए नमाज़ के बारे में इशारा फ़रमाती पैं:
{{Quotation|ख़ुदावंद आलम ने नमाज़ को वाजिब क़रार दिया ताकि इंसान को किबर-ओ-तकब्बुर और ख़ुद बीनी से पाक-ओ-पाकीज़ा कर दे}}
पंक्ति 54:
{{Quotation|नमाज़ के बहुत से फ़लसफ़े हैं उन्हें में से एक ये भी है कि पहले लोग आज़ाद थे और ख़ुदा-ओ-रसूल की याद से ग़ाफ़िल थे और उन के दरमयान सिर्फ क़ुरआन था उम्मत मुस्लिमा भी गुज़शता उम्मतों की तरह थी क्योंकि उन्हों ने सिर्फ दीन को इख़तियार कर रखा था और किताब और अनबया-ए-को छोड़ रखा था और उन को क़तल तक कर देते थे। नतीजा में इन का दीन पुराना (बैरवा) हो गया और उन लोगों को जहां जाना चाहिए था चले गए। ख़ुदावंद आलम ने इरादा किया कि ये उम्मत दीन को फ़रामोश ना करे लिहाज़ा इस उम्मत मुस्लिमा के ऊपर नमाज़ को वाजिब क़रार दिया ताकि हर रोज़ पाँच बार आँहज़रत को याद करें और उन का इस्म गिरामी ज़बान पर যक़ब लाएंगे और इस नमाज़ के ज़रीया ख़ुदा को याद करें ताकि इस से ग़ाफ़िल ना हो सकें और इस ख़ुदा को तर्क ना कर दिया जाय}}
इमाम रज़ा अलैहि अस्सलाम फ़लसफ़ा-ए-नमाज़ के सिलसिला में यूं फ़रमाते हैं:
{{Quotation|नमाज़ के वाजिब होने का सबब, ख़ुदावंद आलम की ख़ुदाई और उसकी रबूबियत का इक़रार, शिर्क की नफ़ी और इंसान का ख़ुदावंद आलम की बारगाह में ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू के साथ खड़ा होना है। नमाज़ गुनाहों का एतराफ़ और गुज़शता गुनाहों से तलब अफ़व और तौबा है। सजदा, ख़ुदावंद आलम की ताज़ीम-ओ-तकरीम के लिए ख़ाक पर चेहरा रखना है}}
नमाज़ सबब बनती है कि इंसान हमेशा ख़ुदा की याद में रहे और उसे भूले नहीं, नाफ़रमानी और सरकशी ना करे। ख़ुशू-ओ-ख़ुज़ू और रग़बत-ओ-शौक़ के साथ अपने दुनियावी और उखरवी हिस्सा में इज़ाफ़ा का तलबगार हो। इस के इलावा इंसान नमाज़ के ज़रीया हमेशा और हरवक़त ख़ुदा की बारगाह में हाज़िर रहे और उसकी याद से सरशार रहे। नमाज़ गुनाहों से रोकती और मुख़्तलिफ़ बुराईयों से मना करती है सजदा का फ़लसफ़ा ग़रूर-ओ-तकब्बुर, ख़ुद ख़्वाही और सरकशी को ख़ुद से दूर करना और ख़ुदाए वहिदा ला शरीक की याद में रहना और गुनाहों से दूर रहना है
=== नमाज़ अक़ल और वजदान के आईना में ===
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