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:'न्याय द्विमुख है, जो एक साथ अलग-अलग चेहरे दिखलाता है। वह वैधिक भी है और नैतिक भी। उसका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है और उसका सरोकार जितना व्यक्तिगत अधिकारों से है उतना ही समाज के अधिकारों से भी है।... वह रूढ़िवादी (अतीत की ओर अभिमुख) है, लेकिन साथ ही सुधारवादी (भविष्य की ओर अभिमुख) भी है।’<ref>डी.डी. रैफेल, प्रॉब्लम्स ऑफ पॉलिटिकल फिलॉसफी, मैकमिलन, नई दिल्ली, 1977, पृ. 165।</ref>
 
न्याय के अर्थ का निर्णय करने का प्रयत्न सबसे पहले यूनानियों और रोमनों ने किया (यानी जहाँ तक पाश्चात्य राजनीतिक चिंतन का संबंध है)। यूनानी दार्शनिक [[अफलातून]] (प्लेटो) ने न्याय की परिभाषा करते हुए उसे सद्गुण कहा, जिसके साथ संयम, बुद्धिमानी और साहस का संयोग होना चाहिए। उनका कहना था कि न्याय अपने कर्त्तव्य पर आरूढ़ रहने, अर्थात् समाज में जिसका जो स्थान है उसका भली-भाँति निर्वाह करने में निहीत है (यहाँ हमें प्राचीन भारत के वर्ण-धर्म का स्मरण हो आता है)। उनका मत था कि न्याय वह सद्गुण है जो अन्य सभी सद्गुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। उनके अनुसार, न्याय वह सद्गुण है जो किसी भी समाज में संतुलन लाता है या उसका परिरक्षण करता है। उनके शिष्य [[अरस्तू]] (एरिस्टोटल) ने न्याय के अर्थ में संशोधन करते हुए कहा कि न्याय का अभिप्राय आवश्यक रूप से एक खास स्तर की समानता है। यह समानता (1) व्यवहार की समानता तथा (2) आनुपातिकता या तुल्यता पर आधारित हो सकती है। उन्होंने आगे कहा कि व्यवहार की समानता से ‘योग्यतानुसारी (कम्यूटेटिव) न्याय’ उत्पन्न होता है और आनुपातिकता से ‘वितरणात्मक न्याय’ प्रतिफलित होता है। इसमें न्यायालयों तथा न्यायाधीशों का काम योग्यतानुसार न्याय का वितरण होता है और विधायिका का काम वितरणात्मक न्याय का वितरण होता है। दो व्यक्तियों के बीच के कानूनी विवादों में दण्ड की व्यवस्था योग्यतानुसारी न्याय के सिद्धांतों के अनुसार होना चाहिए, जिसमें न्यायपालिका को समानता के मध्यवर्ती बिंदु पर पहुँचने का प्रयत्न करना चाहिए और राजनीतिक अधिकारों, सम्मान, संपत्ति तथा वस्तुओं के आवंटन में वितरणात्मक न्याय के सिद्धांतों पर चलना चाहिए।इसकेचाहिए। इसके साथ ही किसी भी समाज में वितरणात्मक और योग्यतानुसारी न्याय के बीच तालमेल बैठाना आवश्यक है। फलतः अरस्तू ने किसी भी समाज में न्याय की अवधारणा को एक परिवर्तनधर्मी संतुलन के रूप में देखा, जो सदा एक ही स्थिति में नहीं रह सकती।
 
रोमनों तथा स्टोइकों (समबुद्धिवादियों) ने न्याय की एक किंचित् भिन्न कल्पना विकसित की। उनका मानना था कि न्याय कानूनों और प्रथाओं से निसृत नहीं होता बल्कि उसे तर्क-बुद्धि से ही प्राप्त किया जा सकता है। न्याय दैवी होगा और सबके लिए समान। समाज के कानूनों को इन कानूनों के अनुरूप होना चाहिए; तभी उनका कोई मतलब होगा, अन्यथा नहीं। मानव-निर्मित कानून वास्तव में कानून हो, इसके लिए यह आवश्यक है कि वह इस कानून और प्राकृतिक न्याय की कल्पना से मेल खाए। इस प्राकृतिक न्याय की कल्पना का विकास सर्वप्रथम स्टोइकों ने किया था और बाद में उसे रोमन कैथोलिक ईसाई पादरियों ने अपना लिया। इस न्याय की दृष्टि में सभी मनुष्य समान थे। अपनी कृति इन्स्टीच्यूट्स में जस्टिनियन तर्क-बुद्धि द्वारा विकसित या प्राप्त कानून तथा आम लोगों के कानून या आम कानून के बीच भेद किया।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/न्याय" से प्राप्त