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हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि तथा विचारक [[सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन]] की मान्यता है कि "भाषा कल्पवृक्ष है। जो उससे आस्थापूर्वक माँगा जाता है, भाषा वह देती है। उससे कुछ माँगा ही न जाए क्योंकि वह पेड़ से लटका हुआ नहीं दीख रहा है, तो कल्पवृक्ष भी कुछ नहीं देता।"
 
बीसवीं शताब्दी के लब्धप्रतिष्ठ भाषाविद्, [[ब्लूमफ़ील्ड]] के अनुसार "भाषा की शक्ति अथवा सम्पत्ति रूपिमों और व्याकरणिमों में है (वाक्य प्रतिरूपों, संरचनाओं और स्थानापत्तियों में) है। रूपिमों और व्याकरणिमों की संख्या भाषाविशेष में हज़ारों में पहुँचती है। यह साधारणतया माना जाता है कि भाषा सम्पत्ति विभिन्न प्रयुक्त शब्दों पर निर्भर है किन्तु यह संख्या अनिश्चित है क्योंकि रूपीय संरचनाओं के सादृश्य पर शब्द मनचाहे ढंग से बनते रहते हैं।" (भाषा, पृ।३३२पृ। ३३२)
 
वस्तुत: भाषा मूलत: अभिव्यक्ति की संरचना तथा शब्दावली का संयुक्त रूप है जो परस्पर संगुम्फित है। शब्दावली आती-जाती, नई बनती रहती है, पुराने शब्दों में नवीन अर्थ भरते जाते हैं, जैसे आज अधिक्रम, अधिवक्ता, अभिलेख, अभ्यर्थी, आख्यापन से सर्वथा नवीन अर्थों की अभिव्यंजना होती है। हिन्दी की आक्षरिक संरचना भी बड़ी सम्पन्न है। आक्षरिक साँचों में पर्याप्त रिक्त स्थान होने के कारण विकास की अभूतपूर्व क्षमता स्पष्ट होती है। 'व्यंजन स्वर-व्यंजन दीर्घ स्वर' साँचे में यदि मात्र 'क्' तथा 'ल्' व्यंजन क्रमश: लिए जाएँ तो २१ संभव शब्द बन सकते हैं, जिनमें से १९ स्थान रिक्त पड़े हुए थे। इन रिक्त स्थानों में से चार स्थानों पर क़िला, क़िले, कुली, किलो शब्द बड़ी आसानी से खप गये।