"प्राचीन भारत की आर्थिक संस्थाएं": अवतरणों में अंतर

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प्राचीन ग्रंथों में इस तथ्य का भी अनेक स्थानों उल्लेख हुआ है कि उन दिनों व्यक्तिगत स्वामित्व वाली निजी और पारिवारिक व्यवसायों के अतिरिक्त तत्कालीन भारत में कई प्रकार के औद्योगिक एवं व्यावसायिक संगठन चालू अवस्था में थे, जिनका व्यापार दूरदराज के अनेक देशों तक विस्तृत था। उनके काफिले समुद्री एवं मैदानी रास्तों से होकर [[अरब]] और [[यूनान]] के अनेक देशों से निरंतर संपर्क बनाए रहते थे। उनके पास अपने अपने कानून होते थे। संकट से निपटने के लिए उन्हें अपनी सेनाएं रखने का भी अधिकार था। सम्राट के दरबार में उनका सम्मान था। महत्त्वपूर्ण अवसरों पर सम्राट श्रेणि-प्रमुख से परामर्श लिया करता था। उन संगठनों को उनके व्यापार-क्षेत्र एवं कार्यशैली के आधार पर अनेक नामों से पुकारा जाता था। गण, पूग, पाणि, व्रात्य, संघ, निगम अथवा नैगम, श्रेणि जैसे कई नाम थे, जिनमें श्रेणि सर्वाधिक प्रचलित संज्ञा थी। ये सभी परस्पर सहयोगाधारित संगठन थे, जिन्हें उनकी कार्यशैली एवं व्यापार के आधार पर अलग-अलग नामों से पुकारा जाता था।
 
भारतीय धर्मशास्त्रों में प्राचीन समाज की आर्थिकी का भी विश्लेषण किया गया है। उनमें उल्लिखित है कि हाथ से काम करने वाले शिल्पकार, व्यवसाय चलाने वाली जातियां व्यवस्थित थीं। सामूहिक हितों के लिए संगठित व्यापार को अपनाकर उन्होंने अपनी सूझबूझ का परिचय दिया था। इसी कारण वे आर्थिक एवं सामाजिक रूप से काफी समृद्ध भी थीं। आचार्य पांडुरंग वामन काणे ने उस समय के विभिन्न व्यावसायिक संगठनों की विशेषताओं का अलग-अलग वर्णन किया है। [[कात्यायन]] ने श्रेणि, पूग, गण, व्रात, निगम तथा संघ आदि को वर्ग अथवा समूह माना है।1है। 1 लेकिन आचार्य काणे उनकी इस व्याख्या से सहमत नहीं थे। उनके अनुसार ये सभी शब्द पुराने हैं। यहां तक कि वैदिक साहित्य में भी ये प्रयुक्त हुए हैं। यद्यपि वहां उनका सामान्य अर्थ दल अथवा वर्ग ही है।2है। 2 इसी प्रकार कौषीतकिब्राह्मण उपनिषद् में पूग को रुद्र की उपमा दी गई है।3है। 3 आपस्तंब धर्मसूत्र में संघ को पारिभाषित करते हुए उसकी कार्यविधि और भविष्य को देखने हुए, अन्य संगठनों के संदर्भ में उसके अंतर को समझा जा सकता है।4है। 4
 
[[पाणिनि]]काल तक संघ, व्रात, गण, पूग, निगम आदि नामों के विशिष्ट अर्थ ध्वनित होने लगे थे। उन्होंने श्रेणि के पर्यायवाची अथवा विभिन्न रूप माने जाने वाले उपर्युक्त नामों की व्युत्पत्ति आदि की विस्तृत चर्चा की है। इस तथ्य का उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं कि श्रेणियों की पहुंच केवल आर्थिक कार्यकलापों तक ही सीमित नहीं थीं, बल्कि उनकी व्याप्ति धार्मिक, राजनीति और सामाजिक सभी क्षेत्रों में थी। इसलिए कार्यक्षेत्र को देखते हुए उन्हें विभिन्न संबोधनों से पुकारा जाना भी स्वाभाविक ही था। दूसरी ओर यह भी सच है कि पूग, व्रात्य, निगम, श्रेणि इत्यादि विभिन्न नामों से पुकारे जाने के बावजूद सहयोगाधारित संगठनों के बीच उनके कार्यकलापों अथवा श्रेणिधर्म के आधार पर कोई स्पष्ट सीमारेखा नहीं थी। दूसरे शब्दों में ये नाम विशिष्ट परिस्थितियों में कार्यशैली एवं कार्यक्षेत्र के अनुसार अपनाए तो जाते थे, परंतु उनके बीच स्पष्ट कार्य-विभाजन का अभाव था। संगठन के विभिन्न नामों के कारण उनके बीच अनौपचारिक-से भेद एवं उनसे ध्वनित होने प्रचलित अर्थ को आगे के अनुच्छेदों में स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है-
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नैगम अथवा निगम शब्द का अंग्रेजी पर्याय Corporation है, जिसका आशय एक ऐसे जिम्मेदार संगठन से है, जिसका गठन विशिष्ट सेवाओं की देखभाल तथा उन्हें सुचारू बनाए रखने के लिए किया जाता है। नागरिक सेवाओं में सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक आदि सभी सेवाएं सम्मिलित हैं। श्रेणि तथा पूग की भांति नैगम भी व्यावसायिक संगठन होते थे। नैगम को परिभाषित करने का कार्य कात्यायन द्वारा किया गया। उनके अनुसार नैगम का आशय एक ही नगर के नागरिकों के समूह से है। वैदिक साहित्य में श्रेणि, पूग अथवा नैगम जैसे शब्द अनेक स्थानों पर आए हैं, जहां उनका सामान्य अर्थ दल अथवा संगठन से ही है। हालांकि किरन कुमार थपल्याल की राय इससे कुछ भिन्न है। उनके अनुसार निगम अथवा नैगम का कार्यक्षेत्र विस्तृत होता था, यहां तक कि नगरीय सीमाओं से परे भी. नैगम के सापेक्ष श्रेणि एक छोटी इकाई थी और एक नैगम कई श्रेणियों पर अनुशासन कर सकता था। नैगम को हम आंग्ल शब्द फेडरेशन का पर्याय भी मान सकते हैं। उनके अनुसार—
‘निगम को प्रायः गिल्ड अथवा नगर के समतुल्य माना जाता है। यह श्रेणि की अपेक्षा बड़े होते थे। गुप्तकाल के आसपास निगम का किसी एक परिक्षेत्र में कार्यरत श्रेणियों पर नियंत्रण होता था।’9
मित्र मिश्र ने ‘वीरमित्रोदय’ में नैगम को परिभाषित करते हुए कहा है कि, पौर वणिकों को नैगम कहते हैं।10हैं। 10 वैधानिक दृष्टि से नैगम आधुनिक जायंट स्टा॓क कंपनी के अनुरूप होते थे। डा॓. सत्यकेतु विद्यालंकार के विचार भी दृष्टव्य हैं—
‘जायंट स्टा॓क कंपनी के ढंग से संगठित होकर व्यापारी लोग अपने जो समूह बनाते थे, उनकी संज्ञा ‘संभ्भूय समुत्थान’ थी। पर शिल्पियों की श्रेणियों के समान व्यापारियों के समूह भी विद्यमान थे, जिन्हें ‘निगम’ कहा जाता था।...जिस प्रकार शिल्पी लोग श्रेणि में संगठित होकर अपने साथ संबंध रखने वाले विषयों पर कानून बनाते थे और शिल्प को नियंत्रित करते थे, उसी प्रकार निगम में संगठित व्यापारी अपने व्यापार के संबंध में व्यवस्था करते थे। क्योंकि पुरों में प्रधानतया व्यापारियों का ही निवास होता है और वहां वे प्रमुख स्थान रखते थे, अतः स्वाभाविक रूप से पौर संस्था का विकास निगम को आधर बनाकर ही हुआ।11हुआ। 11
बौद्ध साहित्य में जनपद एवं नैगम को परस्पर पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त किया गया है।12है। 12 निगम के प्रधान या मुखिया को ‘श्रेष्ठी’ कहा जाता था। ‘महाबग्ग’ के अनुसार एक बार राजगृह के श्रेष्ठी के महारोग से व्यथित व्यापारियों ने जब उसका उपचार राजवैद्य से कराने का विचार किया तो वे उसकी अनुमति के लिए सम्राट बिंबसार के दरबार में पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने प्रार्थना की कि—
‘हे देव! इस श्रेष्ठी ने आपके और निगम के प्रति बहुत उपकार किया है।’13
स्पष्ट है कि निगम के रूप में संगठित वणिकों को ही ‘नैगम’ कहा जाता था। ये व्यापारिक संगठन अधिकार-संपन्न होते थे, जो क्षेत्रीय श्रेणियों पर अनुशासन बनाए रखकर विकास के लिए बहुआयामी स्तर पर काम करते थे। प्रायः एक ही परिक्षेत्र में रहने वाले व्यापारी, शिल्पकार, श्रेणि-प्रमुख अपने परिक्षेत्र से बाहर व्यापार के प्रसार के लिए संगठित होते थे। छोटी-छोटी श्रेणियां भी, अपने आर्थिक हितों की सुरक्षा एवं व्यावसायिक स्पर्धा में बने रहने के लिए, निगम के रूप में एकजुट हो जाती थीं। विक्रमादित्य खन्ना के हवाले से निगम को और गहराई से समझा जा सकता है—
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भारत में सहयोगाधारित व्यापारिक आर्थिक संगठनों के लिए श्रेणि शब्द का उपयोग ईसा से भी आठ सौ वर्ष पहले से होता आ रहा है परस्पर सहयोगाधारित संगठनों के लिए यह शब्द इतना प्रचलित रहा है कि उन्हें व्यवस्थित करने और वैधानिकता का दर्जा दिलानेवाले नियमों को भी श्रेणि-धर्म कहा जाता था- संगठित व्यापार एवं उत्पादन के क्षेत्र में कार्य करने वाले संगठनों के लिए यह संबोधन 1000 ईस्वी; अर्थात मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना तक लोगों की जुबान पर चढ़ा रहा. इन संगठनों के लिए यद्यपि पूग, नैगम, व्रात्य, पाणि, गण आदि संज्ञाएं भी प्राचीनकाल से चली आ रही थीं, विद्वानों ने उनके बीच के सैद्धांतिक अंतर स्पष्ट करने का प्रयास भी किया है, तथापि ऐसे संगठनों के श्रेणि शब्द का प्रचलन ही सर्वाधिक रहा. आज भी इसे गिल्ड के पर्याय के रूप में जाना जाता है। ध्यातव्य है कि गिल्ड श्रेणि के समानधर्मा यूरोपीय संगठन हैं। तथापि भारतीय प्रायद्वीप में श्रेणि शब्द का उपयोग व्यापक संदर्भ लिए हुए था। लगभग सभी प्रकार के व्यापारिक, उद्यमी और राजनीतिक संगठनों, नागरिक सेवा प्रदान करने वाले निकायों को श्रेणि के नाम से पहचाना जाता था।
जहां तक प्राचीन संदर्भों की बात है, विष्णुधर्मसूत्र में श्रेणि का उल्लेख संगठित समाज के लिए किया गया है, जबकि मिताक्षरा ने श्रेणि को पान के पत्तों के व्यापारियों का समुदाय माना गया है।17है। 17 याज्ञवल्क्य ने श्रेणि को विभिन्न जातियों के लोगों का संगठन माना है, जो किसी समान आर्थिक-व्यापारिक उद्देश्य के लिए संगठित होते हैं। जो भी हो इतना सत्य है कि श्रेणि व्यापारियों के संगठित समूह थे, जिनकी अपनी पहचान थी। विद्वानों द्वारा उसके बारे में अलग-अलग व्याख्या, उनके अनुभव और भौगोलिक परिस्थितियों के कारण भी संभव है।
उल्लेखनीय है कि व्यापारिक संगठनों को अलग-अलग नाम का दिया जाना किंचित मतवैभिन्न्य तथा सुविधा की दृष्टि से था। किसी भी व्यक्ति अथवा समूह को अपने हितों की सुरक्षा के अनुसार किसी भी प्रकार के व्यवसाय को अपनाने की छूट थी। हालांकि कई स्थान पर इस नियम में व्यवधान भी थे। व्यवस्था के लिहाज से श्रेणियों को उनके लिए तय व्यवसाय में काम करने की अनुमति प्राप्त थी। ’याज्ञवल्क्य (2/30) ने ऐसे कुलों जातियों, श्रेणियों एवं गणों को दंडित करने को कहा है, जो अपने आचार-व्यवहार से च्युत होते हैं।’18 नारद स्मृति में भी श्रेणि, नैगम, पूग एवं गण का जिक्र करते हुए उनके परंपरानुरूप कार्यों की व्याख्या की गई है। ‘
इन संगठनों के व्यवसाय के अनुसार उनकी संरचना एवं सामाजिक प्रस्थिति में भी अंतर था। याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि पूगों एवं श्रेणियों को अपने झगड़ों का अन्वेषण करने, उन्हें सुलझाने का पूरा अधिकार है। उन्होंने पूग को श्रेणि से उच्चतम स्थिति में माना है। मिताक्षरा ने भी याज्ञवल्क्य का समर्थन करते हुए श्रेणि और पूग के बीच पूग की उच्चतम स्थिति को ही मान्यता दी है। मिताक्षरा के अनुसार—
‘पूग एक स्थान की विभिन्न जातियों एवं विभिन्न व्यवसाय वाले लोगों का समुदाय है और श्रेणि विभिन्न जातियों के लोगों का समुदाय है—जैसे हेलाबुकों, तांबूलिकों, कुविंदों (जुलाहों) एवं चर्मकारों की श्रेणियां. चाहमान विग्रहराज के प्रस्तरलेख में ‘हेड़ाविकों को प्रत्येक घोड़े के एक द्रम्म देने का वृत्तांत मिलता है। नासिक अभिलेख संख्या 15 में लिखा है कि अभीर राजा ईश्वरसेन के शासनकाल में 1000 कार्षापण कुम्हारों के समुदाय (श्रेणि) में, 500 कार्षापण तेलियों की श्रेणि में, 2000 कार्षापण पानी देनेवालों की श्रेणि (उदक-यंत्र-श्रेणि) में स्थिर संपत्ति के रूप में जमा किए गए, जिससे कि उनके ब्याज से रोगी भिक्षुओं की दवा की जा सके. नासिक के नौवें एवं बारहवें शिलालेखों में जुलाहों की श्रेणि का भी उल्लेख है। हुविष्क के शासनकाल के मथुरा के ब्राह्मशिलावालों एवं कांस्यकारों (ताम्र एवं कांसा बनानेवालों) की श्रेणियों में धन जमा करने की चर्चा हुई है। स्कंदगुप्त के इंदौर ताम्रपत्र में तैलियों की एक श्रेणि का उल्लेख है। इन सब बातों से स्पष्ट है कि ईसा के आसपास की शताब्दियों में कुछ जातियों, यथा लकड़हारों, तेलियों, तमोलियों, जुलाहों आदि के समुदाय इस प्रकार की संगठित एवं व्यवस्थित थे कि लोग उनमें निःसंकोच सहस्रों रुपये इस विचार के साथ जमा करते थे कि उनसे ब्याज-रूप में दान के लिए धन मिलता रहेगा.’19
स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में श्रेणियां न केवल संगठित व्यापार का माध्यम बनी हुई थीं, बल्कि वे आधुनिक वित्तीय संगठनों की तरह व्यवहार भी करती थीं। लोग अपना व्यक्तिगत धन भी मुनाफे या लाभ की इच्छा के साथ उनके पास जमा कर सकते थे। उस समय के शासकों को भी श्रेणियों की वित्तीय क्षमताओं पर पूरा विश्वास था। यहां तक कि राज्य के दायित्वों को पूरा करने के लिए भी श्रेणियों में धन निवेश किया जाता था। मथुरा से प्राप्त दूसरी शताब्दी के एक दस्तावेज में बुनकरों की दो श्रेणियों में से प्रत्येक के पास चांदी के 550 सिक्के जमा करने का उल्लेख मिलता है, ताकि उससे प्राप्त ब्याज से ब्राह्मणों तथा गरीबों को भोजन कराया जा सके. ब्याज की दर बहुत उपयुक्त बहुत कुछ वर्तमान दरों के अनुकूल थी। प्रोफेसर किरण कुमार थपल्याल के अनुसार नासिक अभिलेख में जुलाहों को दो हजार कार्षापण एक रुपया सैकड़ा प्रतिमाह ब्याज की दर से प्रदान किए गए थे, ताकि उस धन से भिक्षुओं के लिए भोजन, वस्त्र आदि का प्रबंध किया जा सकें. इसी प्रकार एक अन्य दस्तावेज में भिक्षुओं को जलपान कराने के लिए एक हजार कार्षापण 0.75 रुपया प्रतिमाह के ब्याज पर जुलाहों की एक और श्रेणि को दिए जाने का भी उल्लेख है। इसी प्रकार गुप्त सम्राट स्कंदगुप्त के एक लेख में इंद्रपुर निवासिनी तेलियों की श्रेणि को कुछ धन उधार के रूप में देने का उल्लेख हुआ है, ताकि उससे मिलने वाले ब्याज से सूर्य मंदिर के दीपों के लिए तेल का खर्च निकलता रहे. इन उद्धरणों से सिद्ध होता है, कि उस समय के बड़े राज्य भी अपनी समाज-कल्याण संबंधी योजनाओं को पूरा करने के लिए भी श्रेणियों की वित्तीय स्थिति और साख का लाभ उठाने का प्रयास करते रहते थे—
‘ये श्रेणियां बैंक का कार्य करती थीं और इनको इतना टिकाऊ एवं चिरस्थायी माना जाता था कि स्वयं राजा या राजपुरुष भी इनके पास अक्षयनिधि (न लौटाया जाने वाला धन) रखा करते थे। धन को जमा करने की बात को निगम-सभा के सम्मुख भी सुनाया जाता था।20था। 20
सामूहिक सहमति और सर्वकल्याण की भावना के आधार पर गठित उन व्यापारिक संगठनों को व्यापक अधिकार प्राप्त थे। किंतु यह आधिकारिता तभी तक मान्य थी, जब तक कि समूह अपने और राज्य के हित में कल्याण के कार्यक्रमों का संपादन करें. उन्हें किसी प्रकार का राष्ट्रविरोधी अथवा जनविरोधी कार्य करने की अनुमति नहीं थी। राजा को ऐसे समूहों पर नियंत्रण करने का शास्त्रोक्त अधिकार प्राप्त था। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में इन अधिकारों की स्पष्ट व्याख्या की है। वैसे भी आर्थिक उपलब्धियों को नीति, मर्यादा एवं सामाजिक शुचिता द्वारा नियंत्रित एवं मर्यादित करने की परंपरा भारतीय समाज में आदिकाल से ही रही है, जिसे प्रायः सभी धर्मग्रंथों में सम्मानित स्थान प्राप्त हुआ है। भारतीय परंपरा में अर्थनीति विषयक एक सिद्धांत है, उसके अनुसार—
‘जिस मनुष्य का आर्थिक जीवन शुद्ध है—वह स्वयं भी शुद्ध है।21है। 21
इसका सीधा-सा आशय है कि नैतिक पवित्रता के लिए व्यक्ति को अपने आर्थिक जीवन की पवित्रता का ध्यान रखना अत्यावश्यक है। बिना आर्थिक जीवन में पवित्रता लाए सामाजिक जीवन में शुद्धता संभव नहीं है। परोक्ष रूप में यह सिद्धांत जहां मानव जीवन में अर्थ की महत्ता को स्वीकार करता है, वहीं उसकी प्राप्ति के मार्ग को भी मर्यादित करता हुआ चलता है।