"अभयचरणारविंद भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद": अवतरणों में अंतर
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[[चित्र:Srila Prabhupada.jpg|right|350px|thumb|श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद]]
'''श्रील भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद''' ((1 सितम्बर, 1896 – 14 नवम्बर, 1977)) बीसवीं सदी के एक प्रसिद्ध गौडीय वैष्णव गुरु तथा धर्मप्रचारक थे। उन्होंने वेदान्त, कृष्ण-भक्ति और इससे संबंधित क्षेत्रों पर अपने विचार रखे और कृष्णभावना को पश्चिमी जगत में पहुँचाने का काम किया।
इनका जन्म का नाम अभय चरण डे था और ये कलक्त्ता में जन्मे थे। सन् १९२२ में कलकत्ता में भक्तिसिद्धांत ठाकुर से मिलने के बाद उन्होने श्रीमदभग्वद्गीता पर एक टिप्पणी लिखी, गौड़ीय मठ के कार्य में सहयोग दिया तथा १९४४ में बिना किसी की सहायता के एक अंर्गेज़ी आरंभ की जिसके संपादन, टंकण और परिशोधन (यानि प्रूफ रीडिंग) का काम स्वयं किया। निःशुल्क प्रतियाँ बेचकर भी इसके प्रकाशन क जारी रखा। सन् १९४७ में गौड़ीय वैष्णव समाज ने इन्हें भक्तिवेदान्त की उपाधि से सम्मानित किया। सन् १९५९ में सन्यास ग्रहण के बाद उन्होंने वृंदावन में श्रीमदभागवतपुराण का अनेक खंडों में अंग्रेजी में अनुवाद किया। आरंभिक तीन खंड प्रकाशितकरने के बाद सन् १९६५ में अपने गुरुदेव के अनुष्ठान क संपन्न करने अमेरिका को निकले जहाँ सन् १९६६ में उन्होंने ''अंतर्राष्ट्रीय कृष्णभावनामृत संघ'' (ISKCON) की स्थापना की। सन् १९६८ में प्रयोग के तौर पर [[वर्जीनिया]] (अमेरिका) की पहाड़ियों में नव-वृन्दावन की स्थापना की।
उनके ग्रंथों की प्रामाणिकता, गहराई और उनसमें झलकता उनका अध्ययन अत्यंत मान्य है। [[कृष्ण]] को सृष्टि का सर्वेसर्वा के रूप में स्थापित करना और अनुयायियों के मुख पर ''हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे, हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे'' का उच्चारण सदैव रखने की प्रथा इनके द्वारा स्थापित हुई है।
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