"गौतम धर्मसूत्र": अवतरणों में अंतर

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== प्रतिपाद्य का विश्लेषण ==
प्रायः सभी धर्मसूत्रों का प्रतिपाद्य मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक आचार एवं कर्त्तव्य हैं। गौतम धर्मसूत्र में भी इनके सम्बन्ध में विशद विवेचन किया गया है। अन्य धर्मसूत्रों के समान गौतम धर्मसूत्र में भी मुख्यतः वर्णों एवं आश्रमों के नियमों तथा वर्णों के दैनिक धर्मकृत्यों का विधान किया गया है। वर्णाश्रम–व्यवस्था को गौतम धर्मसूत्र अत्यंत महत्व प्रदान करता है, यहाँ तक कि इसमें वर्णाश्रम से हीन, अपवित्र तथा पतितों के साथ सम्भाषण का भी निषेध है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वैखानस तथा भिक्षु के रूप में गौतम ने मनुष्य जीवन को चार आश्रमों में विभक्त करके चारों आश्रमवासियों के कर्त्तव्यों के विस्तार से उल्लेख किया है। गौतम गृहस्थाश्रम को महत्व देते हैं, क्योंकि सभी आश्रम इसी के आश्रित हैं। अन्य आश्रमों के अन्ग्रत भिक्षु नाम से सन्यासाश्राम को गौतम महत्वपूर्ण मानते हैं। वानप्रस्थ या वैखानस गृहस्थ तथा सन्यास के बीच की कड़ी है। गौतम ने उन सभी आश्रमों के कर्त्तव्यादि के विषय में विस्तार से विचार किया है।
=== अतिथि–सत्कार ===
=== अ तिथि–सत्कार ===
आश्रम–व्यवस्था के अन्तर्गत गौतम ने अतिथि–सत्कार को बहुत महत्व दिया है। गौतम धर्मसूत्र* के अनुसार सन्यासी को भी अतिथि सेवा करनी चाहिए तथा गृहस्थ को ‘देवपितृमनुष्यर्षिपूजक’ होना चाहिए। दुःखी, रोगी, निर्धन और विद्यार्थी की सहायता करना गृहस्थ का परम धर्म है। उसे अतिथि, बालक, रोगी, स्त्री, वृद्धों, सेवकों को भोजन देकर स्वयं भोजन करना चाहिए। गृहस्थ–धर्म के पालनार्थ गौतम ने पांच महायज्ञों का विधान किया है।* इसके साथ ही इस धर्म की शुद्धता के लिए अनेक नियम भी बनाए हैं। आश्रम–धर्म के प्रसंग में गौतम धर्मसूत्र में दया, क्षमा, परनिन्दाराहित्य आदि मानवीय गुणों पर बल दिया गया है।[3]
=== दान ===