"माया": अवतरणों में अंतर
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माया –माया का शाब्दिक अर्थ भ्रम है। परन्तु माया भ्रम न होकर भ्रम पैदा करने वाला तत्त्व है। एक वस्तु में दूसरे का भ्रम जैसे रस्सी को सांप समझना. रेगिस्तान में पानी की प्रतीति जिसे मृगमरीचिका भी कहते हैं। यह सृष्टि माया ही है अर्थात इसके कारण ब्रह्म जगत के रूप में दिखाई देता है। यह सत् भी है और असत भी है। व्यवहार में यह सत् जैसी दिखायी देती है परन्तु यथार्थ में असत है। इसे ठीक ठीक शब्द नहीं दिया जा सकता इसलिए इसे अनिर्वचनीय कहा है। यह माया व्यक्त भी है और अव्यक्त भी है। इस माया को जड़, अज्ञान, असत, अविद्या भी कहा है।
अज्ञान (माया) को न सत् कह सकते हैं न असत क्योंकि अज्ञान भाव रूप है उसका अस्तित्व है। अज्ञान को सत् भी नहीं कह सकते क्योंकि इसकी सत्ता यथार्थ नहीं
यह अज्ञान (माया) ब्रह्म की शक्ति है। माया (विशुद्ध सत्त्व) में प्रतिविम्बित ब्रह्म, ईश्वर कहलाता है और अज्ञान में प्रतिविम्बित ब्रह्म, जीव कहलाता है। अज्ञान को ब्रह्म (विशुद्ध ज्ञान) प्रकाशित करता है।
महान उपाधि होने के कारण इसे महत् कहा गया है।
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मोह चक्र को पश्य.५-१- श्वेताश्वतरोपनिषद्.
त्रिचक्रमय-सत्व, रज, तम से युक्त. सोलह सर-
अहँकार, बुद्धि, मन, आकाश, वायु, अग्नि, जल. पृथ्वी, प्रत्येक के दो स्वरूप सूक्ष्म और स्थूल. बीस सहायक-पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच प्राण, पांच विषय. छह अष्टक (आठ प्रकार की प्रकृति, आठ धातुएं, आठ ऐश्वर्य, आठ भाव. आठ गुण, आठ अशरीरी योनियाँ, तीन मार्ग-ज्ञानमय (शुक्ल) अज्ञानमय (कृष्ण) और परकायाप्रवेश. दो निमित्त-सकाम कर्मऔर स्वाभविक कर्म.कुलयोग –पचास. इन्हें पचास अर कहा है।
जिन्हें अविद्या व्याप्त है
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अंध अंध दे ज्ञान.५-२-कठ उपनिषद्.
यह अद्भुत तीन गुणों से युक्त अविद्या परमात्मा की शक्ति है जिससे यह सारा जगत उत्पन्न हुआ है। इसके कार्य से ही इसका अनुमान हो पाता है। ब्रह्म से उत्पन्न यह ब्रह्म को आच्छादित किये
माया (अज्ञान) की दो शक्तियां हैं।
१.आवरण
२. विक्षेप
आवरण का अर्थ है पर्दा,
विक्षेप शक्ति - माया की यह शक्ति भ्रम पैदा करती है। यह विज्ञानमय कोश में स्थित रहती है। आत्मा की अति निकटता के कारण यह अति प्रकाशमय है। इससे ही संसार के सरे व्यवहार होते हैं। जीवन की सभी अवस्थाएं, संवेदनाएं इसी विज्ञानमय कोश अथवा विक्षेप शक्ति के कारण
सन्दर्भ - सरल वेदांत -बसंत प्रभात जोशी
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