"जगन्नाथदास रत्नाकर": अवतरणों में अंतर
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रत्नाकर जी ने अपनी आजीविका के हेतु 30-32 वर्ष की अवस्था में जरदेजी का काम आरंभ किया था। उसके उपरांत ये आवागढ़ रियासत में कोषाध्यक्ष के पद पर नियुक्त हुए। भारतेंदु जी के संपर्क और काशी की कविगोष्ठियों के प्रभाव से इन्होंने 1889 ई. में ब्रजभाषा में रचना करना आरंभ किया। रत्नाकर जी की सर्वप्रथम काव्यकृति 'हिंडोला' सन् 1894 ई. में प्रकाशित हुई। सन् 1893 में 'साहित्य सुधा निधि' नामक मासिक पत्र का संपादन प्रारंभ किया तथा अनेक ग्रंथों का संपादन भी किया जिनमें दूलह कवि कृत कंठाभरण, कृपारामकृत 'हिततरंगिणी' चंद्रशेखरकृत 'नखशिख' हैं। [[नागरीप्रचारिणी सभा]] के कार्यों में रत्नाकर जी का पूरा सहयोग रहता था। सन् 1897 में रत्नाकर जी ने घनाक्षरी नियम रत्नाकर प्रकाशित कराया और 1898 में 'समालोचनादर्श' ([[अलेक्ज़ंडर पोप|पोप]] के 'एस्से ऑन क्रिटिसिज्म' का अनुवाद) प्रकाशित हुआ।
सन् 1902 के उपरांत ये [[अयोध्या]]नरेश राजा प्रतापनारायण सिह के यहाँ प्राइवेट सेक्रेटरी (निजी सचिव) के रूप में काम करते रहे और अंतिम समय तक इनका संबंध अयोध्या दरबार से रहा। इस बीच इन्होंने 'बिहारी रत्नाकर' नाम से बिहारी सतसई का संपादन किया। 14 मई
रत्नाकर जी केवल कवि ही नहीं थे, वरन् वे अनेक भाषाओं (संस्कृत, प्राकृत, फारसी, उर्दू, अंग्रेजी) के ज्ञाता तथा विद्वान् भी थे। उनकी कविप्रतिभा जैसी आश्चर्यकारी थी, वैसी ही किसी छंद की व्याख्या करने की क्षमता भी विलक्षण थी। अनेक विद्वानों ने रत्नाकर जी की टीकाओं की प्रशंसा की है।
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