"वैशेषिक दर्शन": अवतरणों में अंतर

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'आत्मदर्शन' के लिए विश्व की सभी छोटी-बड़ी, तात्विक तथा तुच्छ वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करना सामान रूप से आवश्यक है। इन तत्वों के ज्ञान के लिए प्रमाणों की अपेक्षा होती है। न्यायशास्त्र में प्रमाण पर विशेष विचार किया गया है, किंतु वैशेषिक दर्शन में मुख्य रूप से 'प्रमेय' के विचार पर बल दिया गया है।
 
यहाँ स्मरण कराना आवश्यक है कि न्याय की तरह वैशेषिक भी, लौकिक दृष्टि ही से विश्व के 'वास्तविक' तत्वों पर दार्शनिक विचार करता है। लौकिक जगत् की वास्तविक परिस्थितियों की उपेक्षा वह कभी नहीं करता, तथापि जहाँ किसी तत्व का विचार बिना सूक्ष्म दृष्टि का हो नहीं सकता, वहाँ किसी प्रकार अतीन्द्रिय, अदृष्ट, सूक्ष्म, योगज आदि हेतुओं के आधार पर अपने सिद्धांत को स्थापित करना इस धारा के दार्शनिकों का स्वभाव है, अन्यथा उनकी वैचारिक भित्तियां अंतर्विरोधी होतीं ; फलतः परमाणु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा, मन आदि सत्ताओं का स्वीकार इस दर्शन में बराबर उपस्थित है।
 
वैशेषिकों के स्वरूप, वेष तथा आचार आदि 'नैयायिकों' की तरह होते हैं; जैसे, ये लोग शैव हैं, इन्हें शैव-दीक्षा दी जाती थी। इनके चार प्रमुख भेद हैं - शैव, पाशुपत, महाव्रतधर, तथा कालमुख एवं भरट, भक्तर, आदि गौण भेद भी मिलते हैं। वैशेषिक विशेष रूप से "पाशुपत्" कहे जाते हैं। (षड्दर्शनसमुच्चय, गुणरस्त की टीका न्याय-वैशेषिक मत। इस ग्रंथ से अन्य 'आचारों' के संबंध में संज्ञान हो सकता है)।
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=== भाव ===
'''द्रव्य'''
जिसमें "द्रव्यत्व जाति" हो वही द्रव्य है। कार्य के समवायिकरण को द्रव्य कहते हैं।द्रव्यहैं। द्रव्य गुणों का आश्रय है। पृथ्वी, जल, तेजस, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मनस् ये नौ "द्रव्य" कहलाते हैं। इनमें से प्रथम चार द्रव्यों के नित्य और अनित्य, दो भेद हैं। नित्यरूप को "परमाणु" तथा अनित्य रूप को कार्य कहते हैं। चारों भूतों के उस हिस्से को "परमाणु" कहते हैं जिसका पुन: भाग न किया जा सके, अतएव यह नित्य है। पृथ्वीपरमाणु के अतिरिक्त अन्य परमाणुओं के गुण भी नित्य है।
 
जिससे गंध हो वह "पृथ्वी", जिसमें शीत स्पर्श हो वह "जल" जिसमें उष्ण स्पर्श हो वह "तेजस्", जिनमें रूप न हो तथा अग्नि के संयोग से उत्पन्न न होने वाला, अनुष्ण और अशीत स्पर्श हो, वह "वायु", तथा शब्द जिसका गुण हो अर्थात् शब्द का जो समवायीकरण हो, वह "आकाश" है। ये ही 'पंचभूत' भी कहलाते हैं।