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अपभ्रंश साहित्य की प्राप्त रचनाओं का अधिकांश जैन काव्य है अर्थात् रचनाकार [[जैन]] थे और प्रबंध तथा मुक्तक सभी काव्यों की वस्तु जैन दर्शन तथा पुराणों से प्रेरित है। सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ कवि स्वयंभू (नवीं शती) हैं जिन्होंने राम की कथा को लेकर 'पउम-चरिउ' तथा 'महाभारत' की रचना की है। दूसरे महाकवि पुष्पदंत (दसवीं शती) हैं जिन्होंने जैन परंपरा के त्रिषष्ठि शलाकापुरुषों का चरित 'महापुराण' नामक विशाल काव्य में चित्रित किया है। इसमें राम और कृष्ण की भी कथा सम्मिलित है। इसके अतिरिक्त पुष्पदंत ने 'णायकुमारचरिउ' और 'जसहरचरिउ' जैसे छोटे-छोटे दो चरितकाव्यों की भी रचना की है। तीसरे लोकप्रिय कवि धनपाल (दसवीं शती) हैं जिनकी 'भविस्सयत्त कहा' श्रुतपंचमी के अवसर पर कही जानेवाली लोकप्रचलित प्राचीन कथा है। कनकामर मुनि (११वीं शती) का 'करकंडुचरिउ' भी उल्लेखनीय चरितकाव्य है।
 
अपभ्रंश का अपना दुलारा छंद [[दोहा]] है। जिस प्रकार प्राकृत को 'गाथा' के कारण 'गाहाबंध' कहा जाता है, उसी प्रकार अपभ्रंश को 'दोहाबंध'। फुटकल दोहों में अनेक ललित अपभ्रंश रचनाएँ हुई हैं, जो इंदु (आठवीं शती) का 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार', रामसिंह (दसवीं शती) का 'पाहुड दोहा', देवसेन (दसवीं शती) का 'सावयधम्म दोहा' आदि जैन मुनियों की ज्ञानोपदेशपरक रचनाएँ अधिकाशंतः दोहा में हैं। प्रबंधचिंतामणि तथा हेमचंद्ररचित व्याकरण के अपभ्रंश दोहों से पता चलता है कि श्रृंगारशृंगार और शौर्य के ऐहिक मुक्तक भी काफी संख्या में लिखे गए हैं। कुछ रासक काव्य भी लिखे गए हैं जिनमें कुछ तो 'उपदेश रसायन रास' की तरह नितांत धार्मिक हैं, परंतु अद्दहमाण (१३वीं शती) के संदेशरासक की तरह श्रृंगारशृंगार के सरस रोमांस काव्य भी लिखे गए हैं।
 
जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें सरहपा, कन्हपा आदि के दोहाकोश महत्वपूर्णमहत्त्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं। गद्य के टुकड़े उद्योतन सूरि (सातवीं शती) की 'कुवलयमाल कहा' में यत्रतत्र बिखरे हुए हैं।
नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। डेढ़ सौ के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं।