"अहिंसा": अवतरणों में अंतर

छोNo edit summary
Reverted 1 edit by ABHI TOM (talk): बिना कारण सामग्री हटाई . (TW)
पंक्ति 1:
 
'''अहिंसा''' का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन मे किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वार भी नुकसान न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी कि हिंसा न करना, यह अहिंसा है| हिन्दू धर्म में हिंसा का बहुत महत्त्व है। अहिंसा परमो धर्म: (अहिंसा परम (सबसे बड़ा) धर्म कहा गया है।यहहै। प्रगतिशीलआधुनिक दशाकाल है।यहमें शुद्धमहात्मा प्रेमगांधी है।जोने इसकेभारत मार्गकी परआजादी चलतेके है,वेलिये मनुष्यजो कहलानेआन्दोलन केचलाया सच्चेवह अधिकारीकाफी है।सीमा तक अहिंसात्मक था।
 
== हिन्दू शास्त्रों में अहिंसा ==
पंक्ति 16:
सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। इसलिए निर्ग्रंथ प्राणिवध का वर्जन करते हैं। सभी प्राणियों को अपनी आयु प्रिय है, सुख अनुकूल है, दु:ख प्रतिकूल है। जो व्यक्ति हरी वनस्पति का छेदन करता है वह अपनी आत्मा को दंड देनेवाला है। वह दूसरे प्राणियों का हनन करके परमार्थत: अपनी आत्मा का ही हनन करता है।
 
आत्मा की अशुद्ध परिणति मात्र हिंसा है; इसका समर्थन करते हुए आचार्य अमृतचंद्र ने लिखा है : असत्य आदि सभी विकार आत्मपरिणति को बिगाड़नेवाले हैं, इसलिए वे सब भी हिंसा हैं। असत्य आदि जो दोष बतलाए गए हैं वे केवल "शिष्याबोधाय" हैं। संक्षेप में रागद्वेष का अप्रादुर्भाव अहिंसा और उनका प्रादुर्भाव हिंसा है। रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से अशक्य कोटि का प्राणवध हो जाए तो भी नैश्चयिक हिंसा नहीं होती, रागद्वेषरहित प्रवृत्ति से, प्राणवध न होने पर भी, वह होती है। जो रागद्वेष की प्रवृत्ति करता है वह अपनी आत्मा का ही घात करता है, फिर चाहे दूसरे जीवों का घात करे या न करे। हिंसा से विरत न होना भी हिंसा है और हिंसा में परिणत होना भी हिंसा है। इसलिए जहाँ रागद्वेष की प्रवृत्ति है वहाँ निरंतर प्राणवध होता है।
 
== अहिंसा की भूमिकाएँ ==
हिंसा मात्र से पाप कर्म का बंधन हाता है। इस दृष्टि से हिंसा का कोई प्रकार नहीं होता। किंतु हिंसा के कारण अनेक होते हैं, इसलिए कारण की दृष्टि से उसके प्रकार भी अनेक हो जाते हैं। कोई जानबूझकर हिंसा करता है, तो कोई अनजान में भी हिंसा कर डालता है। कोई प्रयोगजनवश करता है, तो काई बिना प्रयोजन भी।
 
सूत्रकृतांग में हिंसा के पाँच समाधान बतलाए गए हैं : (1) अर्थदंड, (2) अनर्थदंड, (3) हिंसादंड, (4) अकस्माद्दंड, (5) दृष्टिविपर्यासदंड। अहिंसा आत्मा की पूर्ण विशुद्ध दशा है। वह एक ओर अखंड है, किंतु मोह के द्वारा वह ढकी रहती है। मोह का जितना ही नाश होता है उतना ही उसका विकास। इस मोहविलय के तारतम्य पर उसके दो रूप निश्चित किए गए हैं : (1) अहिंसा महाव्रत, (2) अहिंसा अणुव्रत। इनमें स्वरूपभेद नहीं, मात्रा (परिमाण) का भेद है।
 
मुनि की अहिंसा पूर्ण है, इस दशा में श्रावक की अहिंसा अपूर्ण। मुनि की तरह श्रावक सब प्रकार की हिंसा से मुक्त नहीं रह सकता। मुनि की अपेक्षा श्रावक की अहिंसा का परिमाण बहुत कम है। उदाहरणत: मुनि की अहिंसा 20 बिस्वा है तो श्रावक की अहिंसा सवा बिस्वा है। (पूर्ण अहिंसा के अंध बीस हैं, उनमें से श्रावक की अहिंसा का सवा अंश है।) इसका कारण यह है कि श्रावक 19 जीवों की हिंसा को छोड़ सकता है, वादर स्थावर जीवों की हिंसा को नहीं। इससे उसकी अहिंसा का परिमाण आधा रह जाता है-दस बिस्वा रह जाता है। इसमें भी श्रावक उन्नीस जीवों की हिंसा का संकल्पपूर्वक त्याग करता है, आरंभजा हिंसा का नहीं। अत: उसका परिमाण उसमें भी आधा अर्थात् पाँच बिस्वा रह जाता है। संकल्पपूर्वक हिंसा भी उन्हीं उन्नीस जीवों की त्यागी जाती है जो निरपराध हैं। सापराध न्नस जीवों की हिंसा से श्रावक मुक्त नहीं हो सकता। इससे वह अहिंसा ढाई बिस्वा रह जाती है। निरपराध उन्नीस जीवों की भी निरपेक्ष हिंसा को श्रावक त्यागता है। सापेक्ष हिंसा तो उससे हो जाती है। इस प्रकार श्रावक (धर्मोपासक या व्रती गृहस्थ) की अंहिसा का परिमाण सवा बिस्वा रह जाता है। इस प्राचीन गाथा में इसे संक्षेप में इस प्रकार कहा है :
 
जीवा सुहुमाथूला, संकप्पा, आरम्भाभवे दुविहा।
 
सावराह निरवराहा, सविक्खा चैव निरविक्खा।।
 
(1) सूक्ष्म जीवहिंसा, (2) स्थूल जीवहिंसा, (3) संकल्प हिंसा, (4) आरंभ हिंसा, (5) सापराध हिंसा, (6) निरपराध हिंसा, (7) सापेक्ष हिंसा, (8) निरपेक्ष हिंसा। हिंसा के ये आठ प्रकार हैं। श्रावक इनमें से चार प्रकार की, (2, 3, 6, 8) हिंसा का त्याग करता है। अत: श्रावक की अहिंसा अपूर्ण है।
 
== बौद्ध एवं ईसाई धर्म ==
इसी प्रकार [[बौद्ध धर्म|बौद्ध]] और [[ईसाई धर्म|ईसाई धर्मों]] में भी अहिंसा की बड़ी महिमा है। वैदिक हिंसात्मक यज्ञों का उपनिषत्कालीन मनीषियों ने विरोध कर जिस परंपरा का आरंभ किया था उसी परंपरा की पराकाष्ठा जैन और बौद्ध धर्मों ने की। जैन अहिंसा सैद्धांतिक दृष्टि से सारे धर्मों की अपेक्षा असाधारण थी। बौद्ध अहिंसा नि:संदेह आस्था में जैन धर्म के समान महत्व की न थी, पर उसका प्रभाव भी संसार पर प्रभूत पड़ा। उसी का यह परिणाम था कि रक्त और लूट के नाम पर दौड़ पड़नेवाली मध्य एशिया की विकराल जातियाँ प्रेम और दया की मूर्ति बन गईं। बौद्ध धर्म के प्रभाव से ही ईसाई भी अहिंसा के प्रति विशेष आकृष्ट हुए; ईसा ने जो आत्मोत्सर्ग किया वह प्रेम और अहिंसा का ही उदाहरण था। उन्होंने अपने हत्यारों तक की सद्गति के लिए भगवान से प्रार्थना की और अपने अनुयायियों से स्पष्ट कहा है कि यदि कोई गाल पर प्रहार करे तो दूसरे को भी प्रहार स्वीकार करने के लिए आगे कर दो। यह हिंसा का प्रतिशोध की भावना नष्ट करने के लिए ही था। तोल्स्तोइ (टॉल्स्टॉय) और गांधी ईसा के इस अहिंसात्मक आचरण से बहुत प्रभावित हुए। गांधी ने तो जिस अहिंसा का प्रचार किया वह अत्यंत महत्वपूर्ण थी। उन्होंने कहा कि उनका विरोध असत् से है, बुराई से नहीं। उनसे आवृत व्यक्ति सदा प्रेम का अधिकारी है, हिंसा का कभी नहीं। अपने आँदोलन के प्राय: चोटी पर होते भी चौराचौरी के हत्याकांड से विरक्त होकर उन्होंने आँदोलन बंद कर दिया था।
=== अहिंसा के बारे में बुद्ध के उपदेश ====
भगवान गौतम बुद्ध प्राणी हिंसा के सख्त विरोधी थे। उन्होंने 'उच्चाशयन, महाशयन' का निषेध किया है, यह सोचकर उस समय षड्वर्गीय भिक्षु सिंहचर्म, व्याघ्रचर्म, चीते का चर्म- इन तीन महाचर्मों को धारण करते थे और चारपाई के हिसाब से भी काटकर रखते थे। चारपाई के भीतर भी बिछाते थे और बाहर भी। लोग देखकर हैरान हुए। भगवान से यह बात कही।
 
भगवान्‌ बोले- 'भिक्षुओं! महाचर्मों को, सिंह, बाघ और चीते के चर्म को नहीं धारण करना चाहिए। जो धारण करे, उसे दुक्कट (दुष्कृत) का दोष होता है।'
 
बुद्ध भगवान ने अनेक प्रकार से प्राणी हिंसा की निंदा और उसके त्याग की प्रशंसा की है। उन्होंने कहा है कि कोई भी चर्म नहीं धारण करना चाहिए। जो धारण करे, उसे दुक्कट का दोष होता है।
 
अहिंसा के बारे में बुद्ध के उपदेश इस प्रकार हैं :-
 
* जैसे मैं हूँ, वैसे ही वे हैं और 'जैसे वे हैं, वैसा ही मैं हूं। इस प्रकार सबको अपने जैसा समझकर न किसी को मारें, न मारने को प्रेरित करें।
 
* जहां मन हिंसा से मुड़ता है, वहां दुःख अवश्य ही शांत हो जाता है।
 
* अपनी प्राण-रक्षा के लिए भी जान-बूझकर किसी प्राणी का वध न करें।
 
* मनुष्य यह विचार किया करता है कि मुझे जीने की इच्छा है मरने की नहीं, सुख की इच्छा है दुख की नहीं। यदि मैं अपनी ही तरह सुख की इच्छा करने वाले प्राणी को मार डालूं तो क्या यह बात उसे अच्छी लगेगी? इसलिए मनुष्य को प्राणीघात से स्वयं तो विरत हो ही जाना चाहिए। उसे दूसरों को भी हिंसा से विरत कराने का प्रयत्न करना चाहिए।
 
* वैरियों के प्रति वैररहित होकर, अहा! हम कैसा आनंदमय जीवन बिता रहे हैं, वैरी मनुष्यों के बीच अवैरी होकर विहार कर रहे हैं!
 
* पहले तीन ही रोग थे- इच्छा, क्षुधा और बुढ़ापा। पशु हिंसा के बढ़ते-बढ़ते वे अठ्‍ठान्यवे हो गए। ये याजक, ये पुरोहित, निर्दोष पशुओं का वध कराते हैं, धर्म का ध्वंस करते हैं। यज्ञ के नाम पर की गई यह पशु-हिंसा निश्चय ही निंदित और नीच कर्म है। प्राचीन पंडितों ने ऐसे याजकों की निंदा की है।
 
== बाहरी कड़ियाँ ==
* [http://www.hindi.mkgandhi.org/ahimsa_main.htm अहिंसा पर गांधीजी] ने समय-समय पर अपने विचार कहे या लिखे।
* [http://uditbhargavajaipur.blogspot.com/2010/03/blog-post_2611.html अहिंसा - विभिन्न धर्म दृष्टियां]
 
[[श्रेणी:भारतीय दर्शन|अहिंसा]]