"कंपनी": अवतरणों में अंतर

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11) देश की आर्थिक तथा सामाजिक उन्नति में कम्पनियों का सहयोग प्राप्त करना।
 
==कम्पनी की विशेषताएँ==
==प्रकृति एवं क्षेत्र==
*'''(1) विधान द्वारा कृत्रिम व्यक्तिः''' कम्पनी विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम, अदृश्य, काल्पनिक एवं अमूर्त व्यक्ति है। कम्पनी को विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति इसलिए कहा जाता है कि एक ओर तो इसका जन्म अप्राकृतिक तरीके से होता है तथा दूसरी ओर प्राकृतिक व्यक्ति की तरह इसके अधिकार एवं दायित्व होते हैं।
 
किसी व्यापार आदि कार्यों में जितने अधिकारों का प्रयोग वास्तविक व्यक्ति कर सकता है और जितने उत्तरदायित्व एक वास्तविक व्यक्ति के होते हैं, उतने ही कम्पनी के भी होते हैं।
 
*'''(2) पृथक अस्तित्वः''' कम्पनी की दूसरी विशेषता यह भी है कि इसका अपने सदस्यों से पृथक अस्तित्व होता है। जिस प्रकार साझेदारी में साझेदारी फर्म एवं साझेदारों का अस्तित्व एक ही माना जाता है, उसी प्रकार कम्पनी का अस्तित्व उसके सदस्यों से पृथक होता है। इसका कारण यह है कि कम्पनी स्वयं विधान द्वारा निर्मित कृत्रिम व्यक्ति होने की वजह से कम्पनी द्वारा किये गये कार्यों के लिए कम्पनी स्वयं ही उत्तरदायी होती है और सदस्यों द्वारा किये गये कार्यों के लिए नहीं होती है।
 
*'''(3) शाश्वत (अविच्छिन्न) उत्तराधिकारः''' ”समामेलन की तिथि से ही कम्पनी शाश्वत उत्तराधिकार वाली हो जाती है।“ कम्पनी के अंश हस्तान्तरणीय होने के कारण, चाहे उसके सभी सदस्य अंशधारी भले ही क्यों न बदल जायें, कम्पनी का अस्तित्व यथावत बना रहता है। कम्पनी के सदस्यों की मृत्यु, पागलपन अथवा अंश-हस्तान्तरण जैसी घटनाएँ भी कम्पनी के अस्तित्व एवं उसके जीवन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकती। अपितु उसका मूल अस्तित्व यथावत बना रहता है।
 
*'''(4) सार्वमुद्राः''' सार्वमुद्रा मजबूत धातु पर इस प्रकार खुदी हुई मुद्रा है जिसमें कम्पनी का नाम लिखा होता है। जहां भी कम्पनी को हस्ताक्षर करने होते हैं, वहाँ कम्पनी के संचालक सार्वमुद्रा का प्रयोग करते हैं। सार्वमुद्रा ;बवउउवद ेमंसद्धका प्रयोग किये बिना कम्पनी को किसी कार्य के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है। अतः हर कम्पनी के पास अपनी एक सार्वमुद्रा का होना अनिवार्य है।
 
*'''(5) लाभ के लिए ऐच्छिक पंजीकृत संघः''' कम्पनी व्यक्तियों का एक ऐच्छिक संघ है, जिसका मूल प्रयोजन लाभार्जन होता है। व्यक्ति स्वेच्छा से कम्पनी की सदस्यता स्वीकार करता है, किसी के दबाब में आकर नहीं। लाभ के लिए बनाये गये ऐसे ऐच्छिक संघ का पंजीयन भी आवश्यक होता है। पंजीयन कंपनी विधान के अधीन करवाया जाता है।
 
*'''(6) लोकतांत्रिक प्रबन्धः''' कम्पनी स्वयं एक कृत्रिम व्यक्ति है, जो स्वयं अपना प्रबन्ध नहीं कर सकती है। ऐसी स्थिति में सामूहिक उद्देश्यों की प्राप्ति लोकतांत्रिक प्रबन्ध व्यवस्था द्वारा की जाती है। कम्पनी के सदस्य एवं अंशधारी स्वयं कम्पनी का प्रबंध नहीं कर सकते, क्योंकि वे बिखरे हुए होते हैं, उनके अंश क्रय का मुख्य प्रयोजन लाभांश अर्जित करना होता है, न कि कम्पनी को चलाना। इसे प्रतिनिधि प्रबंध के नाम से भी पुकारा जाता है।
 
*'''(7) सीमित दायित्वः''' व्यावसायिक स्वामित्व के विभिन्न प्रारूपों में कम्पनी के रूप में जो प्रारूप हैं, वहीं उसके सदस्यों का दायित्व अपने हिस्से (अंश) की सीमा तक सीमित हो सकता है। यदि किसी कम्पनी के सदस्यों ने अपने द्वारा किये गये अंशों की पूरी राशि कम्पनी को चुका दी है तो वे अतिरिक्त धनराशि के लिए बाध्य नहीं किये जा सकते, चाहे कम्पनी को अपने दायित्व चुकाने के लिए कितने ही धन की आवश्यकता क्यों ना हो।
 
*'''(8) कार्यक्षेत्र की सीमाएँः''' प्रत्येक संयुक्त पूँजीवाली कम्पनी अपने कार्य में कम्पनी अधिनियम, अपने पार्षद सीमा-नियम तथा पार्षद अंतर्नियम से पूर्णतया बंधी हुई है। इनमें वर्णित व्यवस्थाओं के बाहर जाकर वह कोई भी कार्य नहीं कर सकती है।
 
*'''(9) हस्तान्तरणीय अंशः''' किसी भी कम्पनी का कोई भी अंशधारी किसी अन्य व्यक्ति को एक स्वतंत्र अधिकार के रूप में अंशों का हस्तान्तरण कर सकता है और इस प्रकार वह स्वयं कम्पनी की सदस्यता से मुक्त हो सकता है।
 
*'''(10) अभियोग चलाने का अधिकारः''' कम्पनी अन्य पक्षकारों पर तथा अन्य पक्षकार कम्पनी पर वाद भी चला सकती है। इतना ही नहीं कम्पनी अपने सदस्यों पर तथा सदस्य अपनी कम्पनी पर भी वाद प्रस्तुत करने का अधिकार रखती है।
 
*'''(11) सदस्य संख्याः''' सार्वजनिक कम्पनियों में कम से कम 7 सदस्य होना अनिवार्य है। इसमें अधिकतम सदस्यों की कोई सीमा नहीं होती है। जबकि निजी कम्पनी में कम से कम 2 तथा अधिकतम 50 व्यक्तियों तक सदस्य हो सकते हैं।
 
*'''(12) व्यावसायिक सम्पत्तियाँः''' ”कम्पनी की सम्पत्ति अंशधारियों की सम्पत्ति नहीं है, यह कम्पनी की सम्पत्ति है।“ अंशधारी न तो व्यक्तिगत रूप से और न ही संयुक्त रूप में कम्पनी की सम्पत्तियों के स्वामी हो सकते हैं। कम्पनी एक विधान संगत व्यक्ति होने के कारण उसे व्यावसायिक सम्पत्तियों को अपने नाम में रखने, बेचने तथा खरीदने का पूर्णतया अधिकार है।
 
*'''(13) कम्पनी का सामाजिक स्वरूपः''' कम्पनी का उस समाज के प्रति भी उत्तरदायित्व है जिसके लिए निर्माण हुआ है तथा जिसमें वह विकास करती है समाजवादी व्यवस्थाओं में किसी भी संयुक्त पूंजी संगठन को मात्र लाभार्जन का संकुचित उद्देश्य लेकर नहीं चलने दिया जा सकता है।
 
*'''(14) कम्पनी का सामाजिक चरित्रः''' कम्पनी से सम्बन्धित आधुनिक विचारधारा के अनुसार समाज के प्रति भी उत्तरदायित्व माना जाने लगा है।
 
*'''(15) उधार लेनाः''' समामेलन के पश्चात् कम्पनी एक वैधानिक व्यक्ति हो जाती है। अतः अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ऋण ले सकती है और इसके लिए यदि आवश्कता हो तो वह अपनी चल व अचल सम्पत्ति को बंधक रख सकती है।
 
*'''(16) कम्पनी का समापनः''' कम्पनी का जन्म राज नियम के द्वारा होता है और जीवन पर्यन्त राज नियम के अनुरूप ही कार्य करती है। कम्पनी का समापन भी राज नियम के द्वारा ही होता है अतः कहा जाता है कि किसी भी कम्पनी का समापन राज नियम के बिना नहीं हो सकता है।
 
*'''(17) निकाय वित्त व्यवस्था :''' अतिरिक्त कार्य विस्तार की दशा में अधिक धनराशि की आवश्यकता होने पर कम्पनी, पार्षद सीमा नियम के अनुसार अंशों एवं ऋण पत्रों का भी निर्गमन कर सकती है इस प्रकार अंशों एवं ऋण पत्रों के रूप में निकाय वित्त प्राप्त करने की सुविधा केवल कम्पनी रूपी प्रारूप में ही उपलब्ध है, अन्य प्रारूपों में नहीं।
 
*'''(18) कम्पनी एक नागरिक नहीं :''' कम्पनी के सभी सदस्य भारत के नागरिक हों तो भी कम्पनी, भारत की नागरिक नहीं बन सकती है। ठीक उसी प्रकार की जिस तरह से कम्पनी के सभी सदस्यों का विवाह हो जाने से, कम्पनी का विवाह नहीं हो जाता है।
 
किसी कम्पनी को सामान्य नागरिक के मूल अधिकार प्राप्त नहीं हैं फिर भी कम्पनियाँ अपने अधिकारों के संरक्षण के लिए न्यायालय की शरण ले सकती है।
 
*'''(19) राष्ट्रीयता एवं निवास स्थान :''' यद्यपि कम्पनी देश की नागरिक नहीं होती है किन्तु उसकी राष्ट्रीयता अवश्य होती है। कम्पनी की राष्ट्रीयता उस देश की मानी जाती है जिसमें उसका समामेलन होता है। कम्पनी का निवास स्थान वह होता है जहाँ से कम्पनी के व्यवसाय का प्रबन्ध एवं नियन्त्रण किया जाता है। कम्पनी के साथ पत्राचार करने कोई अन्य सन्देश देने-लेने की दृष्टि से कम्पनी के पंजीकृत कार्यालय को ही कम्पनी का निवास स्थान माना जाता है।
 
*'''(20) कम्पनी का चरित्रः''' कम्पनी एक कृत्रिम व्यक्ति है जिसका अपना दिल, दिमाग, आत्मा आदि नहीं होता है। यह किसी के प्रति निष्ठावान तो किसी अन्य के प्रति निष्ठाहीन भी नहीं हो सकती है। यह न किसी की मित्र होती है और न शत्रु। वास्तव में कम्पनी का अपना कोई चरित्र नहीं होता है। किन्तु कभी-कभी कोई कम्पनी शत्रु का चरित्र धारण कर सकती है।
 
*'''(21) स्थायी अस्तित्वः''' कम्पनी का अस्तित्व स्थायी होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि कम्पनी के अंश हस्तान्तरणीय होते हैं तथा कम्पनी का अपने सदस्यों से पृथक् अस्तित्व होता है। परिणामस्वरूप कम्पनी में कोई नया सदस्य बनता है या सदस्यता छोड़ता है अथवा सदस्य मर जाता है अथवा दिवालिया या पागल हो जाता है तो भी कम्पनी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। वास्तव में कम्पनी का जन्म विधान प्रावधानों के अनुसार होता है। अतः कम्पनी का समापन भी विधान में वर्णित प्रक्रिया का पालन करने के बाद ही हो सकता है। कम्पनी तो तब भी चलती रहती है चाहे कम्पनी के निर्माण करने वाले समस्त सदस्यों की ही मृत्यु क्यों न हो जाय।
 
==इन्हें भी देखें==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/कंपनी" से प्राप्त