"कर्णप्रयाग": अवतरणों में अंतर

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{{Infobox Indian Jurisdiction |
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प्रदेश= उत्तराखंड|
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अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों के संगम पर कर्णप्रयाग स्थित है । पिण्डर का एक नाम कर्ण गंगा भी है, जिसके कारण ही इस तीर्थ संगम का नाम कर्ण प्रयाग पडा । यहां पर उमा मंदिर और कर्ण मंदिर दर्शनीय है ।
 
==इतिहास==
[[Image:Karnprayag.jpg|thumb|right|245px|कर्णप्रयाग]]
{{main|कर्णप्रयाग का इतिहास}}
अलकनंदा एवं पिंडर नदी के संगम पर बसा कर्णप्रयाग धार्मिक पंच प्रयागों में तीसरा है जो मूलरूप से एक महत्त्वपूर्ण तार्थ हुआ करता था। बद्रीनाथ मंदिर जाते हुए साधुओं, मुनियों, ऋषियों एवं पैदल तीर्थयात्रियों को इस शहर से गुजरना पड़ता था। यह एक उन्नतिशील बाजार भी था और देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये क्योंकि यहां व्यापार के अवसर उपलब्ध थे। इन गतिविधियों पर वर्ष 1803 की बिरेही बाढ़ के कारण रोक लग गयी क्योंकि शहर प्रवाह में बह गया। उस समय प्राचीन उमा देवी मंदिर का भी नुकसान हुआ। फिर सामान्यता बहाल हुई, शहर का पुनर्निर्माण हुआ तथा यात्रा एवं व्यापारिक गतिविधियां पुन: आरंभ हो गयी।
 
वर्ष 1803 में गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण किया। कर्णप्रयाग भी सामान्यत: शेष गढ़वाल की तरह ही कत्यूरी वंश द्वारा शासित रहा जिसकी राजधानी जोशीमठ के पास थी। बाद में कत्यूरी वंश के लोग स्वयं कुमाऊं चले गये जहां वे चंद वंश द्वारा पराजित हो गये।
 
कत्यूरियों के हटने से कई शक्तियों का उदय हुआ जिनमें सर्वाधिक शक्तिशाली पंवार हुए। इस वंश की नींव कनक पाल ने चांदपुर गढ़ी, कर्णप्रयाग से 14 किलोमीटर दूर, में डाली जिसके 37वें वंशज अजय पाल ने अपनी राजधानी श्रीनगर में बसायी। कनक पाल द्वारा स्थापित वंश पाल वंश कहलाया जो नाम 16वीं सदी के दौरान शाह में परिवर्तित हो गया तथा वर्ष 1803 तक गढ़वाल पर शासन करता रहा।
 
गोरखों का संपर्क वर्ष 1814 में अंग्रेजों के साथ हुआ क्योंकि उनकी सीमाएं एक-दूसरे से मिलती थी। सीमा की कठिनाईयों के कारण अंग्रेजों ने अप्रैल 1815 में गढ़वाल पर आक्रमण किया तथा गोरखों को गढ़वाल से खदेड़कर इसे ब्रिटिश जिले की तरह मिला लिया तथा इसे दो भागों– पूर्वी गढ़वाल एवं पश्चिमी गढ़वाल– में बांट दिया। पूर्वी गढ़वाल को अंग्रेजों ने अपने ही पास रखकर इसे ब्रिटिश गढ़वाल नामित किया। वर्ष 1947 में भारत की आजादी तक कर्णप्रयाग भी ब्रिटिश गढ़वाल का ही एक भाग था।
 
ब्रिटिश काल में कर्णप्रयाग को रेल स्टेशन बनाने का एक प्रस्ताव था, पर शीघ्र ही भारत को आजादी मिल गयी और प्रस्ताव भुला दिया गया। वर्ष 1960 के दशक के बाद ही कर्णप्रयाग विकसित होने लगा जब उत्तराखंड के इस भाग में पक्की सड़कें बनी। यद्यपि उस समय भी यह एक तहसील था। उसके पहले गुड़ एवं नमक जैसी आवश्यक वस्तुओं के लिये भी कर्णप्राग के लोगों को कोट्द्वार तक पैदल जाना होता था।
 
वर्ष 1960 में जब चमोली जिला बना तब कर्णप्रयाग उत्तरप्रदेश में इसका एक भाग रहा और बाद में उत्तराखंड का यह भाग बना जब वर्ष 2000 में इसकी स्थापना हुई।
 
==पौराणिक संदर्भ==
कर्णप्रयाग का नाम कर्ण पर है जो महाभारत का एक केंद्रीय पात्र था। उसका जन्म कुंती के गर्भ से हुआ था और इस प्रकार वह पांडवों का बड़ा भाई था। यह महान योद्धा तथा दुखांत नायक कुरूक्षेत्र के युद्ध में कौरवों के पक्ष से लड़ा। एक किंबदंती के अनुसार आज जहां कर्ण को समर्पित मंदिर है, वह स्थान कभी जल के अंदर था और मात्र कर्णशिला नामक एक पत्थर की नोक जल के बाहर थी। कुरूक्षेत्र युद्ध के बाद भगवान कृष्ण ने कर्ण का दाह संस्कार कर्णशिला पर अपनी हथेली का संतुलन बनाये रखकर किया था। एक दूसरी कहावतानुसार कर्ण यहां अपने पिता सूर्य की आराधना किया करता था। यह भी कहा जाता है कि यहां देवी गंगा तथा भगवान शिव ने कर्ण को साक्षात दर्शन दिया था।
 
पौराणिक रूप से कर्णप्रयाग की संबद्धता उमा देवी (पार्वती) से भी है। उन्हें समर्पित कर्णप्रयाग के मंदिर की स्थापना 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा पहले हो चुकी थी। कहावत है कि उमा का जन्म डिमरी ब्राह्मणों के घर संक्रीसेरा के एक खेत में हुआ था, जो बद्रीनाथ के अधिकृत पुजारी थे और इन्हें ही उसका मायका माना जाता है तथा कपरीपट्टी गांव का शिव मंदिर उनकी ससुराल होती है।
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मंदिर की स्थापना 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा हुई जबकि उमा देवी की मूर्ति इसके बहुत पहले ही स्थापित थी। कहा जाता है कि संक्रसेरा के एक खेत में उमा का जन्म हुआ। एक डिमरी ब्राह्मण को देवी ने स्वप्न में आकर अलकनंदा एवं पिंडर नदियों के संगम पर उनकी प्रतिमा स्थापित करने का आदेश दिया। डिमरियों को उमा देवी का मायके माना जाता है जबकि कापरिपट्टी के शिव मंदिर को उनकी ससुराल समझा जाता है। हर कुछ वर्षों बाद देवी 6 महीने की जोशीमठ तक गांवों के दौरे पर निकलती है। देवी जब इस क्षेत्र से गुजरती है तो प्रत्येक गांव के भक्तों द्वारा पूजा, मडान तथा जाग्गरों का आयोजन किया जाता है जहां से वह गुजरती है। जब वह अपने मंदिर लौटती है तो एक भगवती पूजा कर उन्हें मंदिर में पुनर्स्थापित कर दिया जाता है। इस मंदिर पर नवरात्री समारोह धूम-धाम से मनाया जाता है।
 
यहां पूजित प्रतिमाओं में उमा देवी, पार्वती, गणेश, भगवान शिव तथा भगवान विष्णु शामिल हैं। वास्तव में, उमा देवी की मूर्ति का दर्शन ठीक से नहीं हो पाता क्योंकि इनकी प्रतिमा दाहिने कोने में स्थापित है जो गर्भगृह के प्रवेश द्वार के सामने नहीं पड़ता।पड़ता।वर्ष 1803 की बाढ़ में पुराना मंदिर ध्वस्त हो गया तथा गर्भगृह ही मौलिक है। इसके सामने का निर्माण वर्ष 1972 में किया गया।
 
वर्ष 1803 की बाढ़ में पुराना मंदिर ध्वस्त हो गया तथा गर्भगृह ही मौलिक है। इसके सामने का निर्माण वर्ष 1972 में किया गया।
 
मंदिर के पुजारी, आर पी पुजारी, पुजारियों की चतुर्थ पीढ़ी के हैं जो पीढ़ियों से मंदिर के प्रभारी पुजारी रहे हैं। यहां पुजारियों के दस परिवार हैं जो रोस्टर प्रणाली के अनुसार बारी-बारी से कार्यभार संभालते हैं। ये परिवार ही सरकार की सहायता के बिना ही मंदिर की देखभाल एवं रख-रखाव करते हैं।
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कर्णप्रयाग के आस-पास घुमने पर आप कुछ प्राचीन स्थलों पर पहुंचेगें जो गढ़वाल की गौरवशाली विरासत के भाग है और बीते काल के निपुण कारीगरों के उत्तम कौशल को प्रदर्शित करते हैं। यहां से आप नौटी भी जा सकते है, जहां से हर 12 वर्ष बाद नंद राज जाट की ऐतिहासिक यात्रा आरंभ होती है। इस यात्रा का आयोजन पिछले 1500 वर्षों से चल रहा है।
===चाँदपुर गढ़ी===
{{main|चाँदपुर गड़ी}}
गढ़वाल का प्रारंभिक इतिहास कत्यूरी राजाओं का है, जिन्होंने जोशीमठ से शासन किया और वहां से 11वीं सदी में अल्मोड़ा चले गये। गढ़वाल से उनके हटने से कई छोटे गढ़पतियों का उदय हुआ, जिनमें पंवार वंश सबसे अधिक शक्तिशाली था जिसने चांदपुर गढ़ी (किला) से शासन किया। कनक पाल को इस वंश का संस्थापक माना जाता है। उसने चांदपुर भानु प्रताप की पुत्री से विवाह किया और स्वयं यहां का गढ़पती बन गया। इस विषय पर इतिहासकारों के बीच विवाद है कि वह कब और कहां से गढ़वाल आया।
 
कुछ लोगों के अनुसार वह वर्ष 688 में मालवा के धारा नगरी से यहां आया। कुछ अन्य मतानुसार वह गुज्जर देश से वर्ष 888 में आया जबकि कुछ अन्य बताते है कि उसने वर्ष 1159 में चांदपुर गढ़ी की स्थापना की। उनके एवं 37वें वंशज अजय पाल के शासन के बीच के समय का कोई अधिकृत रिकार्ड नहीं है। अजय पाल ने चांदपुर गढ़ी से राजधानी हटाकर 14वीं सदी में देवलगढ़ वर्ष 1506 से पहले ले गया और फिर श्रीनगर (वर्ष 1506 से 1519)।
 
यह एक तथ्य है कि पहाड़ी के ऊपर, किले के अवशेष गांव से एक किलोमीटर खड़ी चढ़ाई पर हैं जो गढ़वाल में सबसे पुराने हैं तथा देखने योग्य भी हैं। अवशेष के आगे एक विष्णु मंदिर है, जहां से कुछ वर्ष पहले मूर्ति चुरा ली गयी। दीवारें मोटे पत्थरों से बनी है तथा कई में आलाएं या काटकर दिया रखने की जगह बनी है। फर्श पर कुछ चक्राकार छिद्र हैं जो संभवत: ओखलियों के अवशेष हो सकते हैं। एटकिंसन के अनुसार किले का क्षेत्र 1.5 एकड़ में है। वह यह भी बताता है कि किले से 500 फीट नीचे झरने पर उतरने के लिये जमीन के नीचे एक रास्ता है। इसी रास्ते से दैनिक उपयोग के लिये पानी लाया जाता होगा। एटकिंसन बताता है कि पत्थरों से कटे विशाल टुकड़ों का इस्तेमाल किले की दीवारों के निर्माण में हुआ जिसे कुछ दूर दूध-की-टोली की खुले खानों से निकाला गया होगा। कहा जाता है कि इन पत्थरों को पहाड़ी पर ले जाने के लिये दो विशाल बकरों का इस्तेमाल किया गया जो शिखर पर पहुंचकर मर गये।
 
यह स्मारक अभी भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण की देख-रेख में है।
 
 
===आदि बद्री===
{{main|आदि बद्री}}
यह रानीखेत मार्ग पर कर्णप्रयाग से 17 किलोमीटर दूर तथा चांदपुर गढ़ी से 3 किलोमीटर दूर है।
चांदपुर गढ़ी से 3 किलोमीटर आगे जाने पर आपके सम्मुख अचानक प्राचीन मंदिर का एक समूह आता है जो सड़क की दांयी ओर स्थित है। किंबदंती है कि इन मंदिरों का निर्माण स्वर्गारोहिणी पथ पर उत्तराखंड आये पांडवों द्वारा किया गया। यह भी कहा जाता है कि इसका निर्माण 8वीं सदी में शंकराचार्य द्वारा हुआ। भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षणानुसार के अनुसार इनका निर्माण 8वीं से 11वीं सदी के बीच कत्यूरी राजाओं द्वारा किया गया। कुछ वर्षों से इन मंदिरों की देखभाल भारतीय पुरातात्विक के सर्वेक्षणाधीन है।
 
मूलरूप से इस समूह में 16 मंदिर थे, जिनमें 14 अभी बचे हैं। प्रमुख मंदिर भगवान विष्णु का है जिसकी पहचान इसका बड़ा आकार तथा एक ऊंचे मंच पर निर्मित होना है। एक सुंदर एक मीटर ऊंचे काली शालीग्राम की प्रतिमा भगवान की है जो अपने चतुर्भुज रूप में खड़े हैं तथा गर्भगृह के अंदर स्थित हैं।
 
इसके सम्मुख एक छोटा मंदिर भगवान विष्णु की सवारी गरूड़ को समर्पित है। समूह के अन्य मंदिर अन्य देवी-देवताओं यथा सत्यनारयण, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, चकभान, कुबेर (मूर्ति विहीन), राम-लक्ष्मण-सीता, काली, भगवान शिव, गौरी, शंकर एवं हनुमान को समर्पित हैं। इन प्रस्तर मंदिरों पर गहन एवं विस्तृत नक्काशी है तथा प्रत्येक मंदिर पर नक्काशी का भाव उस मंदिर के लिये विशिष्ट तथा अन्य से अलग भी है।
 
यहां अब भी पूजा होती है तथा विष्णु मंदिर की देखभाल चक्रदत्त थपलियाल करते हैं जो पास ही थापली गांव के रहने वाले हैं तथा पांच-छ: पीढ़ियों से इस मंदिर के पुजारी रहे हैं।
 
===नंज राज जाट/नौटी===
{{main|नंज राज जाट}}
 
कर्णप्रयाग नंदा देवी की पौराणिक कथा से भी जुड़ा हैं; नौटी गांव जहां से नंद राज जाट यात्रा आरंभ होती है इसके समीप है। गढ़वाल के राजपरिवारों के राजगुरू नौटियालों का मूल घर नौटी का छोटा गांव कठिन नंद राज जाट यात्रा के लिये प्रसिद्ध है, जो 12 वर्षों में एक बार आयोजित होता है तथा कुंभ मेला की तरह महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह यात्रा नंदा देवी को समर्पित है जो गढ़वाल एवं कुमाऊं की ईष्ट देवी हैं। नंदा देवी को पार्वती का अन्य रूप माना जाता है, जिसका उत्तरांचल के लोगों के हृदय में एक विशिष्ट स्थान है जो अनुपम भक्ति तथा स्नेह की प्रेरणा देता है। नंदाष्टमी के दिन देवी को अपने ससुराल – हिमालय में भगवान शिव के घर – ले जाने के लिये राज जाट आयोजित की जाती है तथा क्षेत्र के अनेकों नंदा देवी मंदिरों में विशेष पूजा होती है। नंद राज जाट कनक पाल (जिसने 9वीं शताब्दी में पंवार वंश की स्थापना की) के समय से पहले चली आ रही है। कुछ लोगों के मतानुसार राज जाट एक प्राचीन तीर्थयात्रा है जो शासक शाहीपाल के समय से ही होती है। स्थानीय लोकगीतों के अनुसार शाहीपाल की राजधानी चांदपुर गढ़ी में थी। उसने यहां एक तांत्रिक यंत्र गड़वाकर अपनी संरक्षिका नंदा देवी की स्थापना नौटी में की। यह भी संभव है कि प्राचीन काल में जो गढ़पती इस क्षेत्र में राज्य करते थे वह सब नंदा देवी के नाम पर यात्राएं निकालते थे। पंवार वंश के 37वें वंशज अजय पाल ने जब इन गढ़पतियों को परास्त किया तो उसने इन सब यात्राओं के एक बड़ी यात्रा के रूप में परिवर्तित कर दिया।
 
प्रत्येक 12 वर्षों पर राज जाट का आयोजन होता है जिसकी पूरी तैयारी इस रिवाज के मूल भागीदार लोगों के वंशजों, नौटी के नौटियालों एवं कंसुआ गांव के कुंवरों द्वारा किया जाता है। कुंवर राज परिवार के वंशज हैं। जब अजय पाल ने श्रीनगर को अपनी राजधानी बनायी (वर्ष 1506-1509) तो उसने नंद राज जाट के आयोजन की जिम्मेदारी कुंवरों को सौंप दी। यह माना जाता है कि अजय पाल ने ही हर 12 वर्षों में राज जाट आयोजित करने की प्रथा चलायी। यह प्रथा तब से चली आ रही है।
 
परंपरागत रूप से कुंवर, राज जाट का आयोजन करने नंदा देवी से आशीर्वाद प्राप्त करने नौटी आते हैं। इसके बाद शीघ्र ही एक चार सिंगों वाला भेड़ कंसुआ गांव में जन्म लेता है। राज जाट के लिये इस प्रकार की एक समय-सारणी बनायी जाती है कि यह नंद घुंटी के आधार पर एक झील होमकुंड अगस्त/सितंबर नंदाष्टमी के दिन पहुंचे तथा कुलसारी विशेष पूजा के लिये इसके पूर्ववर्त्ती दूज के दिन पहुंच जाये। इसके अनुसार चार सिंगों वाले भेड़ सहित कुंवर नौटी पहुंचते हैं जिनके साथ एक रींगल की छटोली तथा देवी को भेंट की गयी वस्तुएं होती हैं। नंदा देवी की स्वर्ण प्रतिमा डोली में रखकर राज जाट लगभग 280 किलोमीटर की गोल यात्रा आरंभ होती है जिसके रास्ते में 19 पड़ाव होते है तथा यह 19 से 22 दिनों में पूरा होती है। पास के इलाकों से अपनी मूर्तियां, डोलियां तथा देवताओं के साथ कई समुदाय इसमें शामिल हो जाते हैं। कुमाऊं के गोरिल या गोलू देवता तथा बंधन के लट्टू देवता 300 से अधिक प्रतिमाओं एवं सज्जित छतरियों के साथ घाट तपोवन के निकट लाता एवं अल्मोड़ा से शामिल हो जाते हैं।
 
शिला समुद्र में, भक्तगण सुबह के ठीक पहले तीन प्रकाश एवं एक धुएं की लकीर दैवीय संकेत के रूप में देख पाते हैं। नौटी से होमकुंड पहुंचने तक देवी के लिये पूजा सामग्री से लदा चार सिंगों वाला भेड़ जुलुस के आगे-आगे चलता है। समुद्र तल से 22,000 फीट ऊंचाई पर पर्वतों में वह भेड़ गायब हो जाता है और उसके साथ ही देवी की प्रसाद सामग्रियां भी चली जाती हैं।
 
राज जाट के दिन यात्रियों के उपयोग के लिये वान गांव के घर के प्रत्येक वासी घर खुला रखने के एक अलौकिक रिवाज का पालन करते हैं जो नंदा देवी का धार्मिक आदेश होता है तथा धार्मिक रीति से ही इसका पालन होता है। हजारों की संख्या में भक्तजन राज जाट में शामिल होते हैं बर्फ एवं हिम के ढेरों पर पैदल चलते हैं, घने जंगलों से गुजरते हैं तथा समुद्र तल से 17,000 फीट ऊंचाई पर स्थित रूप कुंड को पार करते हैं।
 
वर्ष 2000 के अगस्त-सितंबर में अंतिम नंदा देवी राज जाट का आयोजन हुआ था तथा अगला जाट वर्ष 2012 में आयोजित होगा। घाट के निकट बसे कुरूर गांव से प्रत्येक वर्ष छोटे राज जाटों का आयोजन होता है जहां नंदा देवी को समर्पित एक मंदिर है।
 
 
==तथ्य==
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[[श्रेणी:हिन्दू तीर्थ]]
[[श्रेणी:प्रयाग]]
[[श्रेणी:कर्णप्रयाग]]
[[श्रेणी:पंचप्रयाग]]