"अभिज्ञानशाकुन्तलम्": अवतरणों में अंतर

पंक्ति 33:
[[गेटे|जर्मन कवि गेटे]] ने अभिज्ञान शाकुन्तलम् के बारे में कहा था-
 
:''‘‘यदि तुम युवावस्था के फूल प्रौढ़ावस्था के फल और अन्य ऐसी सामग्रियां एक ही स्थान पर खोजना चाहो जिनसे आत्मा प्रभावित होता हो, तृप्त होता हो और शान्ति पाता हो, अर्थात् यदि तुम स्वर्ग और मर्त्यलोक को एक ही स्थान पर देखना चाहते हो तो मेरे मुख से सहसा एक ही नाम निकल पड़ता है - शाकुन्तलम्, महान कवि कालिदास की एक अमर रचना !’’''
 
इसी प्रकार संस्कृत के विद्वानों में यह श्लोक प्रसिद्ध है-
पंक्ति 40:
:'''तत्रापि च चतुर्थोऽङ्कस्तत्र श्लोकचतुष्टयम्'''।।
 
इसका अर्थ है - ''काव्य के जितने भी प्रकार हैं उनमें नाटक विशेष सुन्दर होता है। नाटकों में भी काव्य-सौन्दर्य की दृष्टि से अभिज्ञान शाकुन्तलम् का नाम सबसे ऊपर है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् का नाम सबसे ऊपर है। अभिज्ञान शाकुन्तलम् में भी उसका चतुर्थ अंक और इस अंक में भी चौथा श्लोक तो बहुत ही रमणीय है।''
 
अभिज्ञान शाकुन्तल में नाटकीयता के साथ-साथ काव्य का अंश भी यथेष्ट मात्रा में है। इसमें [[श्रृंगारशृंगार]] मुख्य रस है; और उसके संयोग तथा वियोग दोनों ही पक्षों का परिपाक सुन्दर रूप में हुआ है। इसके अतिरिक्त हास्य, वीर तथा करुण रस की भी जहां-तहां अच्छी अभिव्यक्ति हुई है। स्थान-स्थान पर सुन्दर और मनोहरिणी उतप्रेक्षाएं न केवल पाठक को चमत्कृत कर देती हैं, किन्तु अभीष्ट भाव की तीव्रता को बढ़ाने में ही सहायक होती हैं। सारे नाटक में कालिदास ने अपनी उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं का उपयोग कहीं भी केवल अलंकार-प्रदर्शन के लिए नहीं किया। प्रत्येक स्थान पर उनकी उपमा या उत्प्रेक्षा अर्थ की अभिव्यक्ति को रसपूर्ण बनाने में सहायक हुई है। कालिदास अपनी उपमाओं के लिए संस्कृत-साहित्य में प्रसिद्ध हैं। शाकुन्तल में भी उनकी उपयुक्त उपमा चुनने की शक्ति भली-भांति प्रकट हुई। शकुन्तला के विषय में एक जगह राजा दुष्यन्त कहते हैं कि ‘वह ऐसा फूल है, जिसे किसी ने सूंघा नहीं है; ऐसा नवपल्लव है, जिस पर किसी के नखों की खरोंच नहीं लगी; ऐसा रत्न है, जिसमें छेद नहीं किया गया और ऐसा मधु है, जिसका स्वाद किसी ने चखा नहीं है।’ इन उपमाओं के द्वारा शकुन्तला के सौंदर्य की एक अनोखी झलक हमारी आंखों के सामने आ जाती है। इसी प्रकार पांचवें अंक में दुश्यन्त शकुन्तला का परित्याग करते हुए कहते हैं कि ‘हे तपस्विनी, क्या तुम वैसे ही अपने कुल को कलंकित करना और मुझे पतित करना चाहती हो, जैसे तट को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृक्ष को तो गिराती ही है और अपने जल को भी मलिन कर लेती है।’ यहां शकुन्तला की चट को तोड़कर बहने वाली नदी से दी गई उपमा राजा के मनोभाव को व्यक्त करने में विशेष रूप से सहायक होती है। इसी प्रकार जब कण्व के शिष्य शकुन्तला को साथ लेकर दुष्यन्त के पास पहुंचते हैं तो दुष्यन्त की दृष्टि उन तपस्वियों के बीच में शकुन्तला के ऊपर जाकर पड़ती है। वहां शकुन्तला के सौंदर्य का विस्तृत वर्णन न करके कवि ने उनके मुख से केवल इतना कहलवा दिया है कि ‘इन तपस्वियों के बीच में वह घूंघट वाली सुन्दरी कौन है, जो पीले पत्तों के बीच में नई कोंपल के समान दिखाई पड़ रही है।’ इस छोटी-सी उपमा ने पीले पत्ते और कोंपल की सदृश्यता के द्वारा शकुन्तला के सौन्दर्य का पूरा ही चित्रांकन कर दिया है। इसी प्रकार सर्वदमन को देखकर दुष्यन्त कहते हैं कि ‘यह प्रतापी बालक उस अग्नि के स्फुलिंग की भांति प्रतीत होता है, जो धधकती आग बनने के लिए ईधन की राह देखता है।’ इस उपमा से कालिदास ने न केवल बालक की तेजस्विता प्रकट कर दी, बल्कि यह भी स्पष्ट रूप से सूचित कर दिया है कि यह बालक बड़ा होकर महाप्रतापी चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। इस प्रकार की मनोहर उपमाओं के अनेक उदाहरण शाकुन्तल में से दिये जा सकते हैं क्योंकि शाकुन्तल में 180 उपमाएं प्रयुक्त हुईं हैं। और उनमें से सभी एक से एक बढ़कर हैं।
 
कालिदास अपनी उपमाओं के लिए संस्कृत-साहित्य में प्रसिद्ध हैं। शाकुन्तल में भी उनकी उपयुक्त उपमा चुनने की शक्ति भली-भांति प्रकट हुई। शकुन्तला के विषय में एक जगह राजा दुष्यन्त कहते हैं कि ‘वह ऐसा फूल है, जिसे किसी ने सूंघा नहीं है; ऐसा नवपल्लव है, जिस पर किसी के नखों की खरोंच नहीं लगी; ऐसा रत्न है, जिसमें छेद नहीं किया गया और ऐसा मधु है, जिसका स्वाद किसी ने चखा नहीं है।’ इन उपमाओं के द्वारा शकुन्तला के सौंदर्य की एक अनोखी झलक हमारी आंखों के सामने आ जाती है। इसी प्रकार पांचवें अंक में दुश्यन्त शकुन्तला का परित्याग करते हुए कहते हैं कि ‘हे तपस्विनी, क्या तुम वैसे ही अपने कुल को कलंकित करना और मुझे पतित करना चाहती हो, जैसे तट को तोड़कर बहने वाली नदी तट के वृक्ष को तो गिराती ही है और अपने जल को भी मलिन कर लेती है।’ यहां शकुन्तला की चट को तोड़कर बहने वाली नदी से दी गई उपमा राजा के मनोभाव को व्यक्त करने में विशेष रूप से सहायक होती है। इसी प्रकार जब कण्व के शिष्य शकुन्तला को साथ लेकर दुष्यन्त के पास पहुंचते हैं तो दुष्यन्त की दृष्टि उन तपस्वियों के बीच में शकुन्तला के ऊपर जाकर पड़ती है। वहां शकुन्तला के सौंदर्य का विस्तृत वर्णन न करके कवि ने उनके मुख से केवल इतना कहलवा दिया है कि ‘इन तपस्वियों के बीच में वह घूंघट वाली सुन्दरी कौन है, जो पीले पत्तों के बीच में नई कोंपल के समान दिखाई पड़ रही है।’ इस छोटी-सी [[उपमा]] ने पीले पत्ते और कोंपल की सदृश्यता के द्वारा शकुन्तला के सौन्दर्य का पूरा ही चित्रांकन कर दिया है। इसी प्रकार सर्वदमन को देखकर दुष्यन्त कहते हैं कि ‘यह प्रतापी बालक उस अग्नि के स्फुलिंग की भांति प्रतीत होता है, जो धधकती आग बनने के लिए ईधन की राह देखता है।’ इस उपमा से कालिदास ने न केवल बालक की तेजस्विता प्रकट कर दी, बल्कि यह भी स्पष्ट रूप से सूचित कर दिया है कि यह बालक बड़ा होकर महाप्रतापी चक्रवर्ती सम्राट बनेगा। इस प्रकार की मनोहर उपमाओं के अनेक उदाहरण शाकुन्तल में से दिये जा सकते हैं क्योंकि शाकुन्तल में 180 उपमाएं प्रयुक्त हुईं हैं। और उनमें से सभी एक से एक बढ़कर हैं।
यह ठीक है उपमा के चुनाव में कालिदास को विशेष कुशलता प्राप्त थी और यह भी ठीक है कि उनकी-सी सुन्दर उपमाएँ अन्य कवियों की रचनाओं में दुर्लभ हैं, फिर भी कालिदास की सबसे बड़ी विशेषता उपमा-कौशल नहीं है। उपमा-कौशल तो उनके काव्य-कौशल का एक सामान्य-सा अंग है। अपने मनोभाव को व्यक्त करने अथवा किसी रस का परिपाक करने अथवा किसी भाव की तीव्र अनुभूति को जगाने की कालिदास अनेक विधियां जानते हैं। शब्दों का प्रसंगोचित चयन, अभीष्ट भाव के उपयुक्त छंद का चुनाव और व्यंजना-शक्ति का प्रयोग करके कालिदास ने अपनी शैली को विशेष रूप से रमणीय बना दिया है। जहां कालिदास शकुन्तला के सौन्दर्य-वर्णन पर उतरे हैं, वहां उन्होंने केवल उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा शकुन्तला का रूप चित्रण करके ही सन्तोष नहीं कर लिया है। पहले-पहले तो उन्होंने केवल इतना कहलवाया कि ‘यदि तपोवन के निवासियों में इतना रूप है, तो समझो कि वन-लताओं ने उद्यान की लताओं को मात कर दिया।’ फिर दुष्यन्त के मुख से उन्होंने कहलवाया कि ‘इतनी सुन्दर कन्या को आश्रम के नियम-पालन में लगाना ऐसा ही है जैसे नील कमल की पंखुरी से बबूल का पेड़ काटना।’ उसके बाद कालिदास कहते हैं कि ‘शकुन्तला का रूप ऐसा मनोहर है कि भले ही उसने मोटा वल्कल वस्त्र पहना हुआ है, फिर उससे भी उसका सौंदर्य कुछ घटा नहीं, बल्कि बढ़ा ही है। क्योंकि सुन्दर व्यक्ति को जो भी कुछ पहना दिया जाए वही उसका आभूषण हो जाता है।’ उसके बाद राजा शकुन्तला की सुकुमार देह की तुलना हरी-भरी फूलों से लदी लता के साथ करते हैं, जिससे उस विलक्षण सौदर्य का स्वरूप पाठक की आंखों के सामने चित्रित-सा हो उठता है। इसके बाद उस सौंदर्य की अनुभूति को चरम सीमा पर पहुंचाने के लिए कालिदास एक भ्रमर को ले आए हैं; जो शकुन्तला के मुख को एक सुन्दर खिला हुआ फूल समझकर उसका रसपान करने के लिए उसके ऊपर मंडराने लगता है। इस प्रकार कालिदास ने शकुन्तला के सौंदर्य को चित्रित करने के लिए अंलकारों का सहारा उतना नहीं लिया, जितना कि व्यंजनाशक्ति का; और यह व्यजना-शक्ति ही काव्य की जान मानी जाती है।
 
यह ठीक है उपमा के चुनाव में कालिदास को विशेष कुशलता प्राप्त थी और यह भी ठीक है कि उनकी-सी सुन्दर उपमाएँ अन्य कवियों की रचनाओं में दुर्लभ हैं, फिर भी कालिदास की सबसे बड़ी विशेषता उपमा-कौशल नहीं है। उपमा-कौशल तो उनके काव्य-कौशल का एक सामान्य-सा अंग है। अपने मनोभाव को व्यक्त करने अथवा किसी रस का परिपाक करने अथवा किसी भाव की तीव्र अनुभूति को जगाने की कालिदास अनेक विधियां जानते हैं। शब्दों का प्रसंगोचित चयन, अभीष्ट भाव के उपयुक्त छंद का चुनाव और व्यंजना-शक्ति का प्रयोग करके कालिदास ने अपनी शैली को विशेष रूप से रमणीय बना दिया है।
 
यह ठीक है उपमा के चुनाव में कालिदास को विशेष कुशलता प्राप्त थी और यह भी ठीक है कि उनकी-सी सुन्दर उपमाएँ अन्य कवियों की रचनाओं में दुर्लभ हैं, फिर भी कालिदास की सबसे बड़ी विशेषता उपमा-कौशल नहीं है। उपमा-कौशल तो उनके काव्य-कौशल का एक सामान्य-सा अंग है। अपने मनोभाव को व्यक्त करने अथवा किसी रस का परिपाक करने अथवा किसी भाव की तीव्र अनुभूति को जगाने की कालिदास अनेक विधियां जानते हैं। शब्दों का प्रसंगोचित चयन, अभीष्ट भाव के उपयुक्त छंद का चुनाव और व्यंजना-शक्ति का प्रयोग करके कालिदास ने अपनी शैली को विशेष रूप से रमणीय बना दिया है। जहां कालिदास शकुन्तला के सौन्दर्य-वर्णन पर उतरे हैं, वहां उन्होंने केवल उपमाओं और उत्प्रेक्षाओं द्वारा शकुन्तला का रूप चित्रण करके ही सन्तोष नहीं कर लिया है। पहले-पहले तो उन्होंने केवल इतना कहलवाया कि ‘यदि तपोवन के निवासियों में इतना रूप है, तो समझो कि वन-लताओं ने उद्यान की लताओं को मात कर दिया।’ फिर दुष्यन्त के मुख से उन्होंने कहलवाया कि ‘इतनी सुन्दर कन्या को आश्रम के नियम-पालन में लगाना ऐसा ही है जैसे नील कमल की पंखुरी से बबूल का पेड़ काटना।’ उसके बाद कालिदास कहते हैं कि ‘शकुन्तला का रूप ऐसा मनोहर है कि भले ही उसने मोटा वल्कल वस्त्र पहना हुआ है, फिर उससे भी उसका सौंदर्य कुछ घटा नहीं, बल्कि बढ़ा ही है। क्योंकि सुन्दर व्यक्ति को जो भी कुछ पहना दिया जाए वही उसका आभूषण हो जाता है।’ उसके बाद राजा शकुन्तला की सुकुमार देह की तुलना हरी-भरी फूलों से लदी लता के साथ करते हैं, जिससे उस विलक्षण सौदर्य का स्वरूप पाठक की आंखों के सामने चित्रित-सा हो उठता है। इसके बाद उस सौंदर्य की अनुभूति को चरम सीमा पर पहुंचाने के लिए कालिदास एक भ्रमर को ले आए हैं; जो शकुन्तला के मुख को एक सुन्दर खिला हुआ फूल समझकर उसका रसपान करने के लिए उसके ऊपर मंडराने लगता है। इस प्रकार कालिदास ने शकुन्तला के सौंदर्य को चित्रित करने के लिए अंलकारों का सहारा उतना नहीं लिया, जितना कि व्यंजनाशक्ति का; और यह व्यजना-शक्ति ही काव्य की जान मानी जाती है।
 
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