"धनुर्विद्या": अवतरणों में अंतर

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[[अग्निपुराण]] में धनुर्विद्या की तकनीकी बारीकियों का विस्तारपूर्वक वर्णन है। बाएँ हाथ में धनुष और दाएँ हाथ में बाण लेकर, बाण के पंखदार सिरे को डोरी पर रखकर ऐसा लपेटना चाहिए कि धनुष की डोरी और दंड के बीच बहुत थोड़ा अवकाश रह जाए। फिर डोरी को कान तक सीधी रेखा से अधिक खींचना चाहिए। बाण छोड़ते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। किसी वस्तु विशेष पर बाण का लक्ष्य करते समय त्रिकोणात्मक स्थिति में खड़े रहना चाहिए। धनुर्विज्ञान में इसके अतिरिक्त अन्य स्थितियों का भी उल्लेख है, जो निम्नलिखित हैं :
 
*(क) समपद या खड़ी स्थिति, में पैर, हथेली, पिंडली और हाथ के अँगूठे एक दूसरे से घने सटे रहते हें।
*(ख) वैशाख स्थिति में पंजों के बल खड़ा रहा जाता है, जाँघे स्थिर रहती हैं और दोनों पैरों के बीच थोड़ी दूरी रहती है।
 
*() वैशाख स्थितिमंडल में पंजोंवृत्ताकार केया बलअर्धवृत्ताकार स्थिति में खड़ा रहा जाता है,है। जाँघेइस स्थिरस्थिति रहतीमें हैंवैशाख औरस्थिति दोनोंकी अपेक्षा पैरों के बीचमें थोड़ीअधिक दूरीअंतर रहतीरहता है।
*(घ) आलीढ़ स्थिति में दाईं जाँघ और घुटने को स्थिर रखकर बाएँ पैर को पीछे खींच लिया जाता है।
 
*(ङ) प्रत्यालीढ़ उपर्युक्त स्थिति से विपरीत स्थिति है।
(ग) मंडल में वृत्ताकार या अर्धवृत्ताकार स्थिति में खड़ा रहा जाता है। इस स्थिति में वैशाख स्थिति की अपेक्षा पैरों में अधिक अंतर रहता है।
*(च) स्थानम् में अंगुलियों के बराबर स्थान घेरा जाता है, अधिक नहीं।
 
*() आलीढ़निश्चल स्थिति में दाईं जाँघ औरबाएँ घुटने को स्थिरसीधा रखकररखा बाएँजाता पैरहै कोऔर पीछेदाएँ खींचघुटने लियाको जातामुड़ा है।हुआ।
*(ज) विकट स्थिति में दायाँ पैर सीधा रहता है।
 
*(झ) संपुट में दोनो टाँगें उठी हुई और घुटने मुड़े होते हैं।
(ङ) प्रत्यालीढ़ उपर्युक्त स्थिति से विपरीत स्थिति है।
*(ञ) स्वस्तिक स्थिति में दोनों टाँगें सीधी फैली होती हैं और पैर के पंजे बाहर की ओर निकले होते हैं।
 
(च) स्थानम् में अंगुलियों के बराबर स्थान घेरा जाता है, अधिक नहीं।
 
(छ) निश्चल स्थिति में बाएँ घुटने को सीधा रखा जाता है और दाएँ घुटने को मुड़ा हुआ।
 
(ज) विकट स्थिति में दायाँ पैर सीधा रहता है।
 
(झ) संपुट में दोनो टाँगें उठी हुई और घुटने मुड़े होते हैं।
 
(ञ) स्वस्तिक स्थिति में दोनों टाँगें सीधी फैली होती हैं और पैर के पंजे बाहर की ओर निकले होते हैं।
 
बाण चलाते समय धनुष को लगभग खड़ी स्थिति में पकड़ते हैं, जैसा आज भी होता है और तदनुसार ही अंग को ऊपरी या निचला
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[[नीतिप्रकाशिका]] में धनुष की निम्नलिखित चालों का वर्णन है :
 
:1. लक्ष्यप्रतिसंधान, 2. आकर्षण, 3. विकर्षण, 4. पर्याकर्षण, 5. अनुकर्षण, 6. मंडलीकरण, 7. पूरण,
:8. स्थारण, 9. धूनन, 10. भ्रामण, 11. आसन्नपात, 12. दूरपात, 13. पृष्ठपात तथा 14. मध्यमपात।
 
[[परशुराम]] इस धरती पर ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनकी धनुर्विद्या की कोई पौराणिक मिसाल नहीं है। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य और खुद कर्ण ने भी परशुराम से ही धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी। बेशक इस मामले में कर्ण थोड़े अभागे रहे थे। क्योंकि अंत में परशुराम ने उनसे ब्रह्मास्त्र ज्ञान वापस ले लिया था।
 
शास्त्रों के अनुसार चार वेद हैं और तरह चार उपवेद हैं। इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद है। दूसरा शिल्प वेद है। तीसरा गंधर्व वेद और चौथा [[धनुर्वेद]] है। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है। ये अलग बात है कि अब ये धनुर्वेद अपने मूल स्वरुप में कहीं नहीं है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि धनुर्वेद इस देश से खत्म हो गई है।
 
==इन्हें भी देखें==
परशुराम इस धरती पर ऐसे महापुरुष हुए हैं जिनकी धनुर्विद्या की कोई पौराणिक मिसाल नहीं है। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य और खुद कर्ण ने भी परशुराम से ही धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी। बेशक इस मामले में कर्ण थोड़े अभागे रहे थे। क्योंकि अंत में परशुराम ने उनसे ब्रह्मास्त्र ज्ञान वापस ले लिया था।
*[[धनुर्वेद]]
 
शास्त्रों के अनुसार चार वेद हैं और तरह चार उपवेद हैं। इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद है। दूसरा शिल्प वेद है। तीसरा गंधर्व वेद और चौथा धनुर्वेद है। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है। ये अलग बात है कि अब ये धनुर्वेद अपने मूल स्वरुप में कहीं नहीं है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि धनुर्वेद इस देश से खत्म हो गई है।
[[श्रेणी:युद्ध]]
[[श्रेणी:संस्कृति]]