"मदनमोहन मालवीय": अवतरणों में अंतर

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मालवीय जी ने प्रयाग की धर्म ज्ञानोपदेश तथा विद्याधर्म प्रवर्द्धिनी पाठशालाओं में संस्कृत का अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् म्योर सेंट्रल कालेज से 1884 ई० में कलकत्ता विश्वविद्यालय की बी० ए० की उपाधि ली। इस बीच अखाड़े में व्यायाम और सितार पर शास्त्रीय संगीत की शिक्षा वे बराबर देते रहे। उनका व्यायाम करने का नियम इतना अद्भुत था कि साठ वर्ष की अवस्था तक वे नियमित व्यायाम करते ही रहे।
 
सात वर्ष के मदनमोहन को धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला के देवकीनन्दन मालवीय माघ मेले में ले जाकर मूढ़े पर खड़ा करके व्याख्यान दिलवाते थे। शायद इसका ही परिणाम था कि कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में अंग्रेजी के प्रथम भाषण से ही प्रतिनिधियों को मन्त्रमुग्ध कर देने वाले मृदुभाषी (सिलवर टंग्ड) मालवीयजी उस समय विद्यमान भारत देश के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के व्याख्यान वाचस्पतियों में इतने अधिक प्रसिद्ध हुए। हिन्दू धर्मोपदेश, मन्त्रदीक्षा और सनातन धर्म प्रदीप ग्रथों में उनके धार्मिक विचार अज भी उपलब्ध हैं जो परतन्त्र भारत देश की विभिन्न समस्याओं पर बड़ी कौंसिल से लेकर असंख्य सभा सम्मेलनों में दिये गये हजारों व्याख्यानों के रूप में भावी पीढ़ियों के उपयोगार्थ प्रेरणा और ज्ञान के अमित भण्डार हैं। उनके बड़ी कौंसिल में रौलट बिल के विरोध में निरन्तर साढ़े चार घण्टे और अपराध निर्मोचन ([[अंग्रेजी]]: Indemnity) बिल पर पाँच घण्टे के भाषण निर्भयता और गम्भीरतापूर्ण दीर्घवक्तृता के लिये आज भी स्मरणीय हैं। उनके उद्घरणों में ह्दय को स्पर्श करके रुला देने की क्षमता थी, परन्तु वे अविवेकपूर्ण कार्य के लिये श्रोताओं को कभी उकसाते नहीं थे।
 
म्योर कालेज के मानसगुरु महामहोपाध्याय पं० आदित्यराम भट्टाचार्य के साथ 1880 ई० में स्थापित '''हिन्दू समाज''' में मालवीयजी भाग ले ही रहे थे कि उन्हीं दिनों प्रयाग में वाइसराय लार्ड रिपन का आगमन हुआ। रिपन जो स्थानीय स्वायत्त शासन स्थापित करने के कारण भारतवासियों में जितने लोकप्रिय थे उतने ही अंग्रेजों के कोपभाजन भी। इसी कारण प्रिसिपल हैरिसन के कहने पर उनका स्वागत संगठित करके मालवीयजी ने प्रयाग वासियों के ह्दय में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया।